राजनीति, नीति और शासनसमीक्षा

लोहिया का राजनैतिक विमर्श- ‘समता और सम्पन्नता’ लेख संग्रह की एक समीक्षा

स्वतंत्रता आंदोलन में विभिन्न राजनीतिक विचारधाराओं का प्रतिनिधित्व एवं योगदान रहा जिनका अंश स्वतंत्रता के उपरान्त बने राष्ट्र की संरचना और राजनीति में भी देखने को मिला। राजनीतिक विमर्श में दक्षिणपंथ, वामपंथ और केन्द्रवाद यानी सेंट्रिस्म की बात तो बहुधा होती है पर समाजवाद पर उतना विमर्श देखने को नहीं मिलता है जबकि भारत की केंद्र एवं राज्यों की राजनीति में इस विचारधारा का प्रतिनिधित्व करने वाली पार्टियों का ख़ास महत्व रहा है। समाजवाद की दलीय राजनीति की शुरुआत करने में जिन नेताओं अग्रणी भूमिका निभाई उनमें राम मनोहर लोहिया का नाम प्रमुख है।      

स्वतंत्रता आंदोलन में भाग लेने के कारण लोहिया की राजनीति पर दोहरा प्रभाव पड़ा, पहला यह कि वह जीवन-पर्यन्त ज़मीनी स्तर पर राजनीतिक गतिविधि में सक्रिय रहे और दूसरा कि वह राजनीतिक विमर्श की भारतीय परम्परा में लगातार योगदान देते रहे। साथ ही उनके राजनीतिक विमर्श पर उनकी ज़मीनी स्तर की राजनीतिक गतिविधियों का प्रभाव भी देखने को मिलता रहा। लोहिया के अनेकों ऐसे लेख हैं जिनमें यह राजनीतिक विमर्श परिलक्षित तो होता ही है, साथ ही इनके माध्यम से भारतीय समाजवाद की वैमर्शिक परम्परा में भी एक महत्वपूर्ण अध्याय जुड़ता है। उनके ऐसे ही कई अप्रकाशित लेख, जो 1953 और 1967 के बीच लिखे गए, ओंकार शरद ने संग्रहित किए जो राजकमल प्रकाशन द्वारा समता और सम्पन्नता  नामक पुस्तक के रूप में 1991 में प्रकाशित हुए।  

इस संग्रह को और बेहतर समझने के लिए इन लेखों का कुछ विशेष मजमूनों (themes) में वर्गीकरण किया जा सकता है। कई लेख ऐसे हैं जो स्वतंत्रता के बाद के पहले कुछ दशकों में भारत में प्रचलित राजनैतिक कार्यशैली और क्रियाकलाप पर टिप्पणी करते हैं। लोहिया ज़मीनी स्तर पर राजनीतिक भागीदारी के माध्यम से राजनीतिक संस्कृति में लोकतांत्रिकरण के बड़े समर्थक थे और चाहते थे कि यह संस्कृति युवाओं में छात्र-जीवन के समय से ही मजबूत हो। ‘उदार दर्शन और उग्र कार्यक्रम’ नामक एक लेख में वह राजनीतिक गतिविधियों और दार्शनिक पहलुओं पर प्रकाश डालते हैं और इनके आपस के सामंजस्य पर भी अपने विचार प्रस्तुत करते हैं। जैसा कि पहले ही बताया गया है, लोहिया राजनैतिक क्रिया और विमर्श, दोनों के ही पुरजोर समर्थक थे पर भारतीय राजनीति में इन दोनों के बीच की दूरी उनके लिए चिंता का विषय बनी रही। 

जैसा कि इन लेखों से स्पष्ट होता है, लोहिया निरंतर वैचारिक और दार्शनिक विषयों के साथ जूझते रहे। एक समाजवादी राजनीतिज्ञ होने के नाते उनकी विभिन्न विचारधाराओं के दार्शनिक और व्यावहारिक पक्षों में रूचि थी। इस संग्रह के विभिन्न लेख साम्यवाद, गांधीवाद, समाजवाद और नक्सलवाद के बारे में चर्चा करते हैं। इन निबंधों में वह इन विचारधाराओं के वांछित लक्ष्यों और यथार्थ में इनके अमल के बीच के विरोधाभास का उल्लेख करते हैं। लोहिया इनमें से किसी भी राजनैतिक कार्यक्रम को लेकर अत्यंत उत्साहित नहीं हैं और यथार्थ में इनके अमल को लेकर वह और भी अधिक निराश हैं। हालांकि वह इन सभी विचारधाराओं और उन पर अमल करने वालों की कमियों के निदान के लिए समाजवाद में उपाय खोजते हैं पर इस कारण से वह भारतीय समाजवाद की अपनी मौलिक परम्परा का सृजन करने के बजाय बाकी विचारधाराओं की खामियों पर ही केंद्रित हो कर रह जाते हैं।     

अपने युवा जीवन में गांधी और उनके आर्थिक दर्शन के अनुयायी होने के कारण लोहिया के लेखन में बार-बार गांधी के राजनैतिक, सामाजिक और आर्थिक सिद्धांतों का उल्लेख देखने को मिलता है। जहाँ एक तरफ वह गांधी के विचारों को इतिहास के सबसे महत्वपूर्ण राजनैतिक विचारों में से एक मानते हैं, वहीं दूसरी तरफ वह उनके विचारों और आदर्शों के सन्दर्भ में उनकी राजनीतिक गतिविधियों पर प्रश्न चिन्ह भी खड़ा करते हैं। साथ ही वे उन लोगों, मुख्यतः: काँग्रेस के नेताओं, की भी आलोचना करते हैं जो अपने आप को गांधी के वैचारिक उत्तराधिकारी होने का दावा करते हैं। लोहिया द्वारा उस समय की सबसे प्रभावशाली पार्टी, काँग्रेस की आदर्शवादी और सैद्धांतिक राजनीति से भटकने को लेकर की गई आलोचना उनके अधिकांश लेखों की मुख्य विषय-वस्तु है।

इन लेखों में लोहिया की देश के आंतरिक मुद्दों के अलावा अंतरराष्ट्रीय मुद्दों में भी विशेष रुचि परिलक्षित होती है, जिनमें भारत की विदेश और रक्षा नीति एवं सामरिक हित भी शामिल हैं। वह इन विषयों को लेकर भारत की औपचारिक नीति को लेकर चिंतित हैं। भारत-पाकिस्तान के विभाजन से अत्यंत आहत, लोहिया ने इस विषय का अपनी अन्य पुस्तक भारत विभाजन के गुनाहगार में उल्लेख किया ही है पर साथ ही वह भारत की पाकिस्तान के प्रति विदेश नीति से भी असंतुष्ट हैं। साथ ही वह चीन के आक्रमण को लेकर व्यथित हैं, खासकर 1962 के भारत-चीन युद्ध के बाद के समय में। उनके निबंध सरकार की सामरिक हितों, विदेश नीति, रक्षा नीति आदि के विषयों पर जवाहरलाल नेहरू और लाल बहादुर शास्त्री दोनों के ही नेतृत्व की कमियों को उजागर करते हैं। शास्त्री की नीतियों को लेकर वे इतने असंतुष्ट थे कि उनकी मृत्यु के बाद भी वह उनकी भर्त्सना करने से नहीं चूके।

कहीं-कहीं पर लोहिया का देश प्रेम विस्तारवादी और भारत के पड़ौसी देश जैसे कि नेपाल और भूटान की सांस्कृतिक और संजातीय पहचान पर अपनी पहचान थोपने की मानसिकता की झलक देता है जो उपमहाद्वीप में भारतीय पहचान को सबसे पुरानी और प्रमुख साबित करने के प्रयास पर आधारित है। अपने लेखों में वह कई बार उपमहाद्वीप के विभिन्न मूलनिवासी समुदायों के ऐतिहासिक उद्भव की गलत विवेचना करते हुए पाए जाते हैं और ब्राहम्णवाद द्वारा भारत के सीमावर्ती इलाकों में मूलनिवासी पहचानों पर ब्राहम्णवादी पहचान थोपने के प्रभावों को अनदेखा करते हैं।

पर ऐसा नहीं है कि लोहिया जातीय राजनीति की अनदेखी करते हैं। वह अपने लेखों में भारतीय सेना में वर्गीय और जातीय असमानता को रेखांकित करते हैं जिसका दुष्प्रभाव सेना के उत्साह और हौसले पर पड़ता है। साथ ही वह जातीय और वर्गीय राजनीति की भाषाई राजनीति में भूमिका की भी बात करते हैं। जैसा कि उनके लेखों में लक्षित होता है, लोहिया के अनुसार भाषाई राजनीति स्वयं शक्ति समीकरण से उपजती है और साथ ही इन समीकरणों को प्रभावित भी करती है। भाषा के शक्ति समीकरणों को लेकर उनकी चिंता ना सिर्फ अंग्रेज़ी भाषा के भारत में प्रभुत्व को लेकर लिखे गए लेखों में दिखती है पर साथ ही ऐसे लेखों में भी जो भाषा के विषय से बिल्कुल भी जुड़े नहीं हैं। वह संसद, सेना, न्यायपालिका जैसे सभी औपचारिक क्षेत्रों से अंग्रेज़ी को पूरी तरह से हटाने के पक्षधर थे। वह अंग्रेज़ी को औपनिवेशिक गुलामी का परिचायक मानते थे और स्वदेशी बौद्धिक परम्पराओं और ज़मीनी स्तर पर प्रतिभा के विकास की राह में बाधा मानते थे। उनके अनुसार अंग्रेज़ी केवल संपन्न वर्ग को फ़ायदा पहुँचाती है और वंचितों का नुकसान करती है।

पर लोहिया के भाषाई राजनीति पर विचार एक प्रकार से उनके भारत के सामरिक हित और अंतरराष्ट्रीय संबंधों पर विचारों की तरह ही क्षेत्रीयवादी प्रतीत होते हैं। हालांकि वह अंग्रेज़ी की जगह क्षेत्रीय भाषाओं को स्थापित करना चाहते हैं पर कई बार वह अंततः अन्य क्षेत्रीय भाषाओं से अधिक हिंदी को बढ़ावा देते हुए पाए जाते हैं। उनके लेखों में जो बात सबसे अधिक आपत्तिजनक प्रतीत होती है वह यह है कि वह कुछ विशेष भाषाओं, खासकर बांग्ला और तमिल, के समर्थकों पर अंग्रेज़ी बोलने वाले संपन्न वर्ग के हाथों की कठपुतली होने का आरोप लगाते हैं। साथ ही वह क्षेत्रीय भाषाएँ किस प्रकार अंग्रेज़ी का पूर्वस्थापित औपचारिक और अनुदेशात्मक स्थान ले सकें इसके लिए किसी ठोस योजना को स्पष्ट नहीं कर पाते हैं।     

आम लोगों और संपन्न वर्ग के बीच की खाई, लोहिया के समाजवाद के विचारों के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है। एक अर्थशास्त्री होने के नाते, उन्हें आर्थिक दर्शन और विचारधाराओं की गहरी समझ तो थी ही पर वह विशेषकर संपन्न वर्ग और वंचितों के बीच की खाई को पाटना चाहते थे। वह भारतीय उच्च एवं मध्यम वर्ग से, खासकर उनके उपभोक्तावाद और उदासीनता की संस्कृति से अत्यंत खिन्न थे। उनके द्वारा इन समस्याओं के लिए सुझाए गए निदान, उनके समाज की संस्कृति में बदलाव लाने के राजनीतिक कार्यक्रम के अनुरूप ही थे। 

पर इस बदलाव को अमली जामा पहनाने के लिए लोहिया ने एक बहुत सख्त राज्य-नियंत्रित कार्यक्रम सुझाया। इस कार्यक्रम के कुछ प्रावधान थे- व्यय करने पर एक सख्त सीमा, निजी वाहनों के उत्पादन पर रोक, केवल राजकीय विद्यालयों में अनिवार्य शिक्षा आदि। आज के समय में ये सुझाव बहुत असुगम और ना लागू करने योग्य लगते हैं पर जब लोहिया इन्हें सुझा रहे थे तब भारत का एक स्वतन्त्र राज्य के रूप में मात्र एक या दो दशक पुराना ही था और वह देश को एक ख़ास सांचे में ढालना चाहते थे जिससे समता और सम्पन्नता (जो कि इस संग्रह का नाम भी है) सुनिश्चित हो सके।

सख्त राज्य-नियंत्रित कार्यक्रम की वकालत उन्होंने बंदी और उन्मूलन के विषय पर भी की है। यहाँ वह सांस्कृतिक एकीकरण के एजेंडे से उपजने वाले बंदी कार्यक्रम जैसे कि गोवध-हत्या की बंदी की व्यर्थता को उजागर करते हैं। साथ ही उन्होंने सरकार के कुछ अन्य बंदी कार्यक्रमों को लागू करने में असफल रहने की भी बात की है जैसे कि शराब और अंग्रेज़ी भाषा पर प्रतिबंध। कुल-मिलाकर लोहिया के राज्य-नियंत्रित और निर्धारित कार्यक्रमों के बारे में विचारों की निजी स्वतंत्रता और सार्वजनिक संस्कृति के बीच के तालमेल और इसके लाभ और हानि के सन्दर्भ में चर्चा करना आज के समय में और भी प्रासंगिक हो जाता है।   

लोहिया सार्वजनिक हित और सार्वजनिक तानाशाही के बीच के अंतर के बारे में भली-भांति परिचित थे जिसका परिचय मिलता है महिलाओं के प्रति समाज के दोहरे और प्रतिगामी मापदंडों के बारे में उनके विचार जान कर। अपने एक निबंध में वह महिलाओं से जुड़ी जैविक राजनीति के बारे में बात करते हैं और बताते हैं कि कैसे रीतिगत एवं धार्मिक रूढ़ियाँ इसे नियंत्रित करने का प्रयास करती हैं और कैसे यह महिलाओं की दैहिक स्वायत्ता पर असल जीवन में प्रभाव डालती हैं। ख़ास बात यह है कि उन्होंने यह निबंध 1969 में लिखा था और दुर्भाग्यवश इन विषयों पर आज तक बहस जारी है और समाज अभी तक महिलाओं के प्रति इस प्रकार की नियंत्रण करने वाली प्रतिगामी व्यवस्था के ख़िलाफ़ लामबंद नहीं हो सका है। साथ ही उन्होंने इस विषय पर जातीय व्यवस्था के सन्दर्भ में भी चर्चा की जो इस राजनीति पर उनकी बहु-आयामी सोच का परिचय देता है।    

इन लेखों में लोहिया का वैज्ञानिक एवं प्रद्यौगिक चर्चा में भी दखल देखने को मिलता है पर एक राजनीतिक चिंतक होने के नाते वह यह सुनिश्चित करते हैं कि यह चर्चा राजनीतिक और वैचारिक सन्दर्भ में की जाए। चाहे मशीनीकरण द्वारा औद्योगिकीकरण हो या फिर चाँद पर जाने वाले अंतरिक्ष अभियान, लोहिया की मुख्य चिंता थी कि एक नव-निर्मित राष्ट्र होने के नाते, जो अब भी अपनी आर्थिक और राजनीतिक ज़मीन तैयार कर रहा है, इन क्षेत्रों में भारत की क्या प्रथमिकताएँ होनी चाहिए। वह इस चर्चा को तत्कालीन वैश्विक राजनैतिक विमर्श में स्थापित करते हैं जो उस समय अमरीका के नेतृत्व वाले पश्चिमी देशों और सोवियत संघ के नेतृत्व में पूर्वी यूरोपीय देशों के गुट के बीच जारी शीत युद्ध में फँसा हुआ था। उनकी प्राथमिकता थी कि भारत इस द्वन्द में ना फँस कर, अपनी ज़रूरतों पर ध्यान दे।

इन लेखों के अलावा इस पुस्तक में ओंकार शरद द्वारा लिया गया राम मनोहर लोहिया का साक्षात्कार भी शामिल है। इस बातचीत में लोहिया के कई भावों का एक मिश्रण देखने को मिलता है जिसमें राजनीति से उनका मोहभंग, मौजूदा राजनीति के लिए उनकी चिंता पर फिर भी भविष्य के लिए उनकी आशा शामिल हैं। पुस्तक के अंत में इलाहाबाद उच्च न्यायालय के एक मामले की सुनवाई की एक प्रतिलिपि प्रकाशित की गई है, जिसमें लोहिया पेश हो रहे थे। इस प्रतिलिपि में लोहिया द्वारा अदालत में न्यायाधीश के समक्ष दिया गया भाषण शामिल है जिसमें वह धारा 144 के दुरुपयोग की बात करते हुए सार्वजनिक व्यवस्था और सार्वजनिक शांति के बीच के अंतर को लेकर अपनी दलील पेश करते हैं। यह वक्तव्य उनकी कानून और उसके प्रावधानों को लेकर गहरी समझ को दर्शाता है।       

यह लेख-संग्रह इसलिए महत्वपूर्ण है कि इसमें भारत के प्रारंभिक दशकों में राजनैतिक विमर्श के सभी विषयों पर खुलकर चर्चा की गई है जिसके कारण उस समय के सभी प्रासंगिक राजनैतिक विषय पाठकों के समक्ष प्रस्तुत हुए हैं। हालाँकि उस समय की राजनीति पर कई चर्चाएँ और विमर्श पहले से मौजूद हैं पर यहाँ इन मुद्दों पर एक ऐसे राजनीतिज्ञ की टिप्पणी मिलती है जो स्वयं समाजवादी चिंतक और राजनेता रहे हैं। भारत के प्रारम्भिक वर्षों पर वामपंथी, केंद्रवादी और दक्षिणपंथी टिप्पणियाँ तो बहुत हैं पर तत्कालीन समाजवादी दृष्टिकोण लिए हुए यह एक दुर्लभ दस्तावेज है।

पर यह मान लेने से पहले कि यह संग्रह तत्कालीन राजनीति पर एक समाजवादी दृष्टिकोण प्रस्तुत करता है, हमें यह जाँचना होगा कि लोहिया के इस पुस्तक में प्रस्तुत विचार किस हद तक एक प्रामाणिक समाजवादी चिंतन और दर्शन का प्रतिनिधित्व करते हैं। इस प्रकार यह पुस्तक एक और रूप से महत्वपूर्ण हो जाती है कि इसमें हमें भारतीय समाजवादी चिंतन की परम्परा के प्रारम्भिक दौर के एक विचारक के विचार पढ़ने को मिलते हैं जिनके आधार पर हम भारतीय समाजवादी दर्शन के विकास और उद्भव की एक खरी समीक्षा कर सकते हैं।

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