‘अरे यायावर रहेगा याद?’- अज्ञेय का बहुआयामी यात्रा संस्मरण
1953 में प्रकाशित अज्ञेय द्वारा लिखा गया यात्रा-संस्मरण, अरे यायावर रहेगा याद? हिंदी साहित्य के इतिहास में संग्रहणीय है। आठ अध्याय में विभाजित यह कृति एक महत्वपूर्ण दस्तावेज है जो भारतीय उपमहाद्वीप के स्वतंत्रता संग्राम के समय के इतिहास, भूगोल, और राजनीति को समग्रता से समेटे हुए है। यह यात्रा-संस्मरण अज्ञेय के अनुभवों का संग्रह है जो उन्होंने द्वितीय विश्व-युद्ध के अंत और स्वतंत्रता-संग्राम के समय में अपनी यात्राओं के दौरान प्राप्त किए थे।
अज्ञेय विज्ञान के स्नातक के अध्ययन-काल के समय कॉस्मिक किरणों की खोज़ में एक शोधार्थी-छात्र के रूप में यात्रा पर गए थे। वह सन् 1943 और 1946 के बीच ब्रिटिश सेना का एक हिस्सा भी रहे थे। कुछ जगहों की उन्होंने अलग से स्वयं अपनी इच्छा से यात्रा भी की और उन यात्राओं के अनुभवों का भी उन्होंने इस पुस्तक में विवरण दिया है। अज्ञेय इस पुस्तक की भूमिका में लिखते हैं “प्रस्तुत पुस्तक के यात्रा-संस्मरणों में स्थानों का जो ब्यौरा है, कुछ तो वह प्रकाशन से पहले ही पुराना पड़ गया था: कुछ यात्राएँ पिछले महायुद्ध के पहले की थीं, पुस्तकाकार प्रकाशन स्वाधीनता-प्राप्ति के बाद हुआ।”
अज्ञेय ने बहुत से प्रदेशों जैसे असम, महाराष्ट्र, तमिलनाडु, कश्मीर, हिमाचल प्रदेश आदि का भ्रमण करते हुए सम्पूर्ण देश की यात्रा कीं। उन्होंने कुछ ऐसे शहरों और क्षेत्रों का भी भ्रमण किया जो वर्तमान में पाकिस्तान का हिस्सा हैं।
प्रकृति और उसका बदलता स्वरूप
अज्ञेय ने अपने लेखन में हमेशा प्रकृति का सूक्ष्मता से वर्णन किया है। उनके साहित्य में स्थान-विशेष के प्रकृति चित्रण तथा उसकी भौगोलिकता को अन्वेषणात्मक दृष्टि से अंकित करने की विशेष भूमिका रहती है जिसमें उनकी मनोवैज्ञानिक सोच तथा संवेदनशीलता भी परिलक्षित होती है। यह विशेषता उनके इस यात्रा-वृत्तांत में भी दिखाई देती है जो इसे और विशिष्ट बना देती है क्योंकि वह अपने यात्रा के अनुभवों में संसार के आतंरिक और बाह्य स्वरूप की अनेक परतों का समावेश कर देते हैं।
अज्ञेय के लेखन में प्रकृति से उनका अनन्य लगाव प्रस्तुत होता है। यात्रा-वृतांत में शोधार्थी के रूप में उन्मुक्त मन से कश्मीर की यात्रा के अंतराल, प्रकृति में उन्हें एक स्वच्छंद अपूर्व सौंदर्य दिखाई देता है जो प्रस्तुत उदाहरण में परिलक्षित होता है, “पीले, लाल, गुलाबी, नीले, आसमानी, किरमिज़ी, उन्नाबी, सफ़ेद, चम्पई रंगों की होली-सी मची हुई थी और हवा के झोकों से नाल झूम-झूम जाते थे। मानो फूल मटक-मटक कर कह रहे हों, ‘उंह्, हमें तुम्हारी क्या परवाह है!’”
उनकी लेखन-शैली परिस्थिति और वातावरण के अनुसार ढल जाती है। द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान स्वतन्त्रता प्राप्ति से कुछ पहले असम की यात्रा करते समय अज्ञेय प्रकृति की सुन्दरता से नहीं जुड़ सके। तत्कालीन विषम राजनितिक वातावरण ने अज्ञेय को गहराई से प्रभावित किया जो उनके प्रकृति के चित्रण में भी परिलक्षित होता है। उस समय की परिस्थिति के अनुसार वही शांत-सुरम्य प्रकृति का चित्रण एक उद्वेलन और संताप का रूप ले लेता है। जैसा कि असम की यात्रा के समय अज्ञेय पुस्तक के पहले अध्याय में लिखते हैं,
“महाकाय सेमल के धवल-गात पेड़ मानो आगमिष्यत रक्त-प्रसूनों की सुलगती हुई पूर्वानुभूति से कंटकित हो रहे थे; और कहीं-कहीं किंशुकों के झुरमुट। कुछ ही दिनों में इनमें आग खिल जाएगी; लपलपाती एक के बाद एक रूख को लीलती हुई ऊपर तक फ़ैल जाएगी।”
अज्ञेय इस पुस्तक में नरगिस के फूलों से भरे हुई एबटाबाद नामक जगह का वर्णन करते है जो अब पाकिस्तान में है। जब अज्ञेय स्वतंत्रता प्राप्ति से ठीक पहले यहाँ यात्रा कर रहे थे, उन दिनों उपमहाद्वीप में पाकिस्तान के रूप में एक अलग राष्ट्र की माँग की जा रही थी। उस समय राजनीतिक वातावरण बहुत तनावपूर्ण तथा संघर्षमय था। ऐसे समय में अज्ञेय को प्रकृति में व्याप्त सौन्दर्य की अनुभूति नहीं हो सकी क्योंकि तत्कालीन राजनीतिक स्थिति से वह बहुत व्यथित थे। वह अपनी डायरी में आगामी बिगड़ती स्थिति का अनुमान करते हुए लिखते हैं ‘‘‘मेरी कल्पना देखती है, इन नरगिसों को हजारों पैर रौंद रहे हैं, बेदर्द और बेरहम पैर-और फूलों की डाँठों के टूटने की आवाज़ वातावरण में नारों की आवाज़ के बीच डूब जाती है…बर्फ़ में झूमते नरगिस, रौंदते हुए नरगिस,पैर, केवल पैर…’।“
सामाजिक सन्दर्भ
अज्ञेय का उद्देश्य यात्रा के साथ-साथ उस स्थान-विशेष के सामाजिक-राजनीतिक पहलुओं को महत्व देना भी था। वह पुस्तक की भूमिका में लिखते हैं, “भ्रमण या देशाटन केवल दृश्य-परिवर्तन या मनोरंजन न हो कर सांस्कृतिक दृष्टि के विकास में भी योग दे, यही उसकी वास्तविक सफलता होती है।’’
यात्रा के मध्य अज्ञेय ने प्रत्येक स्थान का सामाजिक और राजनीनिक दृष्टि से अवलोकन किया। संस्मरण में कुछ जगह अज्ञेय ने जातिगत भेदभाव के प्रचलन का उल्लेख किया है। उन्होंने विभिन्न जगहों के प्रचलित मिथक और पौराणिक कथा सम्बन्धी तथ्यों का भी अवलोकन किया है। पौराणिक और धार्मिक सन्दर्भ में एक भेदभाव पूर्ण प्रथा का उन्होंने विशेषकर उल्लेख किया है कि हिमाचल प्रदेश की कुछ जनजातियों के देवताओं को स्थानीय लोगों के देवताओं से कम महत्व दिया जा रहा था।
अज्ञेय ने यात्रा-वृत्तान्त में असम की नौकरशाही तथा शासन सम्बन्धी मामलों पर ध्यान केंद्रित किया है। उन्होंने असम के कुछ क्षेत्र-विशेष में खाने और राशन की कमी के बारे में बताया है। साथ ही प्रदेश में बरसात के मौसम में होने वाली बाढ़ की स्थिति के कारण जनजीवन को होने वाली कठिनाईयों का वर्णन किया है कि किस प्रकार प्रत्येक बार बरसात का मौसम वहाँ के लोगों के लिए कठिनाईयाँ लेकर आता है। अज्ञेय ने अपने यात्रा-वृत्तान्त द्वारा असम के आपदा-परिदृश्य पर प्रकाश डाला है, एक ऐसा मामला जो समय के साथ अधिक प्रासंगिक बन गया है।
उन्होंने असम के सीमावर्ती क्षेत्र के इसाई-मिशनरीज़ तथा जनजातियों के मध्य राजनीतिक गतिविधियों के विषय में भी लिखा है। अज्ञेय को इस क्षेत्र में ‘पिछड़े’ राज्यों के राजनीतिक प्रतिनिधियों और इसाई-इंजीलवादी के मध्य एक अंतर्भूत-संबन्ध दिखाई दिया। ये सभी वर्णन उस क्षेत्र के स्वतंत्रता प्राप्ति पूर्व समय के राजनितिक मानव-भूगोल को प्रस्तुत करते हैं। जिस समय उस क्षेत्र और राष्ट्र दोनों की राजनितिक-पहचान बनने की प्रक्रिया चल रही थी।
नश्वरता के संदर्भ में स्थायित्व से असहमति एवं गतिशीलता का अनुमोदन
अज्ञेय ने अपने जीवन-काल में मृत्यु को अनेक बार समीप से देखा था। कदाचित मृत्यु के साथ अपने अनुभवों के कारण वह प्रायः अपने लेखन, साथ ही साहित्य में इस विषय पर विशेष ध्यान देते हैं। समाज में प्रचलित मूर्तियों, स्मारकों, कब्रों, अस्थि विसर्जन इत्यादि के प्रचलन में उनकी असहमति दिखाई देती है। उनके अनुसार ये सभी कदाचित नश्वरता का आभास देने वाले प्रतीक हैं। अज्ञेय जीवन में स्थिरता न चाहकर गति के आकांक्षी हैं। जैसा कि इस पुस्तक में एक स्थान पर वह लिखते हैं, “देवता भी जहाँ रुके कि शिला हो गए, और प्राण-संचार के लिए पहली शर्त है गति, गति, गति!” साथ ही एक स्थान पर उल्लेख है कि चीनी कहावतों में से एक को उन्होंने अपनी डायरी के मुख-पृष्ठ पर लिख दिया था जो इस प्रकार है, “मैं क्यों चाहूँ की मेरी अस्थियाँ भी मेरे पुरखों की अस्थियों के साथ एक सुरक्षित समाधि-स्तूप में दबी रहें? जहाँ भी कोई चला जाए, वहीं कोई हरी-भरी पहाड़ी मिल जाएगी…”
इसी प्रकार पुस्तक में अनेक वर्णन हैं जैसे कि औरंगजेब की कब्र, गाँधी जी की प्रतिमा, विवेकानन्द रॉक मेमोरियल तथा स्टेच्यू ऑफ मेरी, जहाँ अज्ञेय उनकी प्रासंगिकता और कलात्मकता पर एक आलोचनात्मक दृष्टिकोण अपनाते हैं। वह अंतिम संस्कार के बाद अस्थि-विसर्जन के भी विरुद्ध थे। मंदिरों में भगवानों की मूर्तियाँ स्थापित करने के बारे में उनका आलोचनात्मक दृष्टिकोंण है। यह एक ऐसा विषय है जो आज के समय में भी प्रासंगिक है।
भूगोल, इतिहास और राजनीति का समावेश
अज्ञेय ने अपनी यात्रा के दौरान प्रत्येक स्थान को समग्रता से देखा। उन्होंने पहाड़ों का माप तथा अवस्थिति के साथ वर्णन किया है। उनके चारों ओर स्थित नदियों और शहरों के विषय में ऐसे महत्वपूर्ण विवरण हैं जो भौतिक तथा राजनीतिक दोनों प्रकार के चित्र अंकित करने में सहायता करते हैं। अज्ञेय ने ऐतिहासिक स्मारकों का उनकी राजनीतिक कथा और वृत्तान्त के साथ वर्णन किया है। इसके साथ ही उस क्षेत्र की जनजातियों के विषय में भी उल्लेख किया है। उन्होंने कुछ जगह पर अंग्रेजी सैन्य-प्रतिष्ठान के बारे में भी लिखा है जैसे कि उनकी छावनियाँ, शिविर, सेना-निवास आदि। भारतीय उप महाद्वीप के विभिन्न क्षेत्रों का विवरण भी पुस्तक में मिलता है। लेकिन कुछ स्थानों पर शहरों और भौगोलिक क्षेत्रों के नाम और माप आदि के अधिक विस्तृत वर्णन पुस्तक के प्रवाह में बाधा उत्पन्न कर सकते हैं।
अरे यायावर रहेगा याद? यात्रा-संस्मरण का महत्व
अरे यायावर रहेगा याद? अज्ञेय के अनूठे सुरम्य साहित्यिक चित्रण के साथ उनकी मनोवैज्ञानिक अंतर्दृष्टि तथा सामाजिक-राजनीतिक परिप्रेक्ष्य को जोड़ता हुआ भारत का एक समग्र चित्र प्रस्तुत करता है। इसमें भारत के द्वितीय विश्व युद्ध से लेकर प्रारम्भिक स्वतंत्रता-वर्षों तक के सामाजिक, ऐतिहासिक, पौराणिक, तथा सांस्कृतिक सभी महत्वपूर्ण पहलुओं का समन्वय मिलता है। अज्ञेय की द्वितीय विश्व युद्ध के समय की भारतीय उपमहाद्वीप की यात्रा का विवरण विशेषकर कथेतर हिन्दी साहित्य में अमूल्य है। इस प्रकार का विवरण हिन्दी साहित्य में कम ही मिलता है। अज्ञेय ने द्वितीय विश्व युद्ध के समय तथा स्वतंत्रता पूर्व वर्षों, दोनों प्रकार के विवरणों में भारत के भयपूर्ण वातावरण का वर्णन किया है जिसका अनुभव उन्हें यात्रा के अन्तराल हुआ।
भारत अपने सम्पूर्ण इतिहास में भौगोलिक, एतिहासिक, राजनीतिक, सामाजिक कई अर्थों में बड़े पैमाने पर बदल गया है। इसलिए यह यात्रा-संस्मरण देश के उस समय के इतिहास तथा परम्परा को सुरक्षित और संरक्षित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। इसके साथ ही इस पुस्तक को पढ़ने से मालूम पड़ता है कि बहुत सी चीजें अभी तक वैसी ही हैं और वर्तमान को समझने के लिए इतिहास से महत्वपूर्ण तथ्य उपलब्ध कराती है।
जिस समय अज्ञेय ने यात्रा की वह बहुत महत्वपूर्ण समय था क्योंकि इसी समय भारत भौगोलिक तथा राजनीतिक दोनों प्रकार से एक आकार ले रहा था। सम्पूर्ण उपमहाद्वीप की व्यापक यात्राओं के मध्य अज्ञेय के अवलोकन से प्राप्त जानकारी जब उनकी अनन्य साहित्यिक शैली तथा दृष्टि के साथ लिखी गई, तो एक अमूल्य रोचक विवरण प्रस्तुत हो गया। इसके साथ ही यह यात्रा-संस्मरण यह सिद्ध करता है, जैसा कि अज्ञेय मानते थे, कि एक यात्रा-संस्मरण केवल प्राकृतिक सौंदर्य और विश्राम के लिए ही महत्वपूर्ण नहीं है बल्कि एक सामाजिक-राजनीतिक और मानव-जाति विज्ञान सम्बन्धी आलेख है।
अज्ञेय ने बहुत से अनुभवों से पूर्ण जीवन व्यतीत किया जो न केवल उनके काल्पनिक बल्कि कथेतर साहित्य में भी परिलक्षित होता है। उपन्यास, निबंध तथा आलोचनाओं के अतिरिक्त उन्होंने अपनी यात्राओं के अनुभवों का भी उल्लेखनीय वर्णन किया है। अरे यायावर रहेगा याद? अज्ञेय का ऐसा ही एक सम्पूर्ण भारत की यात्राओं का विस्तृत विवरण सहित रोचक और सार्थक यात्रा-संस्मरण है।
अमिता चतुर्वेदी स्वतंत्र लेखिका हैं एवं अपना परिचय नामक ब्लॉग पर लिखती हैं। आप इस लेख को उनके ब्लॉग पर भी पढ़ सकते हैं।