उत्तर प्रदेश प्रवासी दिवस का आगरा में आयोजन, आम निवासियों पर असर

 
भारत में आज भी कई शहरों में दिन चढ़ने के बाद सब्ज़ी ले लो”, “आलू, मटर, गुहिया…”, जैसी आवाज़ें सुनकर घर से कोई न कोई बाहर निकल पड़ता है। रेढ़ी पर सजी सब्ज़ियों पर नज़र पड़ते ही उस दिन के खाने का मेन्यु दिमाग में बनने लगता है। सब्ज़ी वाले से थोड़ा मोल-भाव और उससे हरी मिर्च और धनिया मुफ्त  में देने के आग्रह ये सभी आज भी कई शहरों में रोज़मर्रा की ज़िंदगी का एक रिवाज है। पर जहाँ रेढ़ी के एक तरफ होते हैं मध्यमवर्गीय गृहस्थी वाले लोग, उसके दूसरी तरफ खड़े होते हैं सब्ज़ी बेचकर रोज़ी कमाने वाले। और सच बात तो यह है कि अपने पूरे दिन में केवल सब्ज़ी बेचते समय ही वे खड़े हो सकते हैं। बाकी सभी समय उन्हें चलते रहना होता है।

एक दिन में बीसियों किलोमीटर चल सकना हर किसी के बस की बात नहीं होती है। सुबह-सुबह मंडी जाना, वहाँ थोक में लाई गईं सब्ज़ियों में से अच्छी, हरी, ताज़ा सब्ज़ियाँ खरीदना और फिर चल देना दिन भर की हड्डी-पसली एक कर देने वाली यात्रा पर, यही है सब्ज़ी बेचने वालों की रोज़ की कहानी। 
 
सब्ज़ी मंडी में जाकर ताज़ा सब्ज़ियाँ चुनने से होती है सब्ज़ी विक्रेताओं के दिन की शुरुआत 
 
और इस रोज़ की कहानी को भुलाना भी आसान ही है- इतना थक कर चूर हो जाना कि कोई सुध ही ना रहे। यहाँ तक कि अपने बच्चे किस क्लास में पढ़ रहे है, कैसा पढ़ रहे हैं इसका भी कोई अंदाज़ा ना होना, यानि अपनी ही दुनिया के सबसे अभिन्न अंगों से अनभिज्ञ रह जाना, यही नियति है इन सब्ज़ी विक्रेताओं की। मार्क्स अगर जीवित होते तो थ्योरी ऑफ़ एलियेनेशनयानि एकाकीकरण के सिद्धांत को इन जैसे सभी मेहनतकशों पर आधारित कर, फिर से गढ़ देते।
मुश्किल यह है कि इस कार्यप्रणाली से बचने का कोई व्यवहारिक रास्ता नहीं है। हर दिन की कमाई से जिंदगी चलाने वाले असंगठित-अनौपचारिक वर्ग के लोग बिमारी की छुट्टी नहीं ले सकते हैं। हड्डी टूटे या बुखार हो या कोई और मर्ज़, इस वर्ग के लोगों को अपने काम पर जाना ही होता है, फिर चाहे टूटे-फूटे बीमार शरीर से कितना ही ना चलना पड़े। रोज का राशन जुगाड़ने वालों की ज़िंदगी इतनी आसान नहीं होती है। ऊपर से यदि बीच में छुट्टी कर दें तो इनके रोज़ के ग्राहक इनसे रूठ जाएँगे। ऐसे में मरता क्या न करतावाली स्थिति इनके सिर पर हमेशा तलवार बन लटकती रहती है।
ऐसे में पिछले ही हफ़्ते जब 4 से 6 जनवरी तक आगरा शहर में पहला उत्तर प्रदेश प्रवासी दिवस आयोजित किया गया तो इसके उपलक्ष में 3 से 7 तारीख तक फतेहाबाद स्थित सब्ज़ी मंडी की बन्दी का सब्ज़ीवालों पर पड़ी मार का अंदाज़ा लगाना बहुत मुश्किल नहीं है।
फतेहाबाद स्थित सब्ज़ी मंडी 3 तारीख को कुछ बेरौनक दिखी 
3 तारीख को लगी ये दुकानें अगले दिन गायब दिखीं
इस आयोजन को सफल बनाने में प्रदेश सरकार ने एढ़ी-चोटी का ज़ोर लगा दिया। सड़कें बनी, बिगड़ी और फिर बनीं, साफ हुईं, बैनर लगे, सड़क किनारे सफेद, लाल और हरे रंग का चूना बिछा, होर्डिंग लगीं आदि। आयोजन के माध्यम से कोशिश थी प्रवासी यू पी वालों को आकर्षित करने की, कि वे अपने मूल प्रदेश के आर्थिक और सामाजिक ढांचे में ज़्यादा से ज़्यादा निवेश करें।
मौजूदा केंद्र सरकार का प्रवासी भारतियों से गहराता रिश्ता किसी से नहीं छुपा है जिसे नित नए फैसलों से और पक्का किया जा रहा है। पर प्रदेशों की अपने यहाँ से निकले प्रवासियों से प्रदेश से ही जुड़ने की अपील एक नया परिवर्तन है। प्रवासी भारतियों को चुनावों में मतदान करने के लिए स्वीकृति देकर, प्रवासी भारतियों को निवेश के स्त्रोत के साथ ही एक छोटे पर महत्वपूर्ण वोट बैंक में भी तब्दील कर दिया गया है।
सरकारी और स्थानीय प्रशासन का शहर को साफ-सुथरा करने की मुहिम में सब्ज़ी मंडी जैसी बुनियादी सुविधाओं को बंद रखना सवाल खड़ा करता है कि क्या प्रवासी भारतीयों की सोच इतनी संकीर्ण है कि वे अपने मूल देश की सिर्फ एक रुमानी तस्वीर, जो कि स्वच्छऔर चमकतीहुई है, को ही स्वीकार करेंगे? या फिर हमारी सरकारें प्रवासी भारतियों को एक बेहद सीमित खांचे में फिट करने को आतुर है? प्रवासी भारतियों को संभवत: सब साफ सुथरा दिखे या फिर सड़क पर अवाँछित भीड़-भड़क्काना हो, इसके लिए सड़क किनारे लगने वाली इस सब्ज़ी मंडी को बंद रखा गया।
सुबह से ही थोक मंडी के लिए आने लगती हैं ट्रक भर के सब्ज़ियाँ  
सेना भी अपने राशन के लिए इन्हीं सब्ज़ी मंडियों पर निर्भर रहती है
पर प्रदेश के विकास के लिए धन इक्कट्ठा करने की मुहिम में किस पर गाज गिरती है यह देखना भी ज़रूरी है। जहाँ 3 और 4 तारिख को मंडी थोड़ी बहुत खुली रही, बाकी तीन दिन यह पूर्ण रूप से बंद रही। पाँच दिन तक रोज़ की कमाई का साधन गँवा चुके कुछ सब्ज़ी वालों को शहर के दक्षिणीय कोने पर स्थित इस मंडी के बजाय इसके बिल्कुल विपरीत उत्तरीय कोने में लगभग 20 कि.मी. दूर खूब रुपया खर्च कर सिंकदरा स्थित मंडी तक जाना पड़ा और बेचने के लिए सब्ज़ी लानी पड़ी। यानि एक तो बंदी की मार, ऊपर से दूर तक जाने का किराया।

प्रदेश के भले के लिए काम करने की ज़िम्मेदारी यदि एक समाजवादीपार्टी की सरकार पर हो तो उम्मीद करना वाजिब है कि गरीब और वंचित वर्ग की अनदेखी नहीं होगी। यही आशा की जा सकती है कि निवेश आकर्षित करने में हुई इस वर्ग की उपेक्षा, इस निवेश के उपयोग में नहीं की जाएगी।  

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