कला, साहित्य और संस्कृतिसमीक्षा

‘पंछी ऐसे आते हैं’: रंगलोक द्वारा संजीदगी और हास्य लिए संतुलित मंचन

जहाँ बड़े शहरों में नाटकों का मंचन वाणिज्यिक और गैर-वाणिज्यिक रूप से निरन्तर होता रहता है, वहीं छोटे शहरों में नाट्य विधा को जीवित रखना आसान काम नहीं है। एक तो नाटकों का मंचन करने के लिए संसाधनों का इंतज़ाम करना, दर्शकों में इसके प्रति रुचि बानए रखना और फिर नए कलाकारों को नाटक विधा के प्रति निरन्तर आकर्षित करना, ये कुछ ऐसी चुनौतियाँ हैं जिनसे नाटक से जुड़े लोगों को, खास कर छोटे शहरों में, लगातार जूझना पड़ता है।

ऐसी ही एक जद्दोजहद में लगे रहने वाले एक नाट्य समूह का नाम है रंगलोक सांस्कृतिक संस्थानजो आगरा शहर में नाट्य विधा को जीवित और जीवंत रखने में पिछले कई वर्षों से लगा हुआ है। ताज महोत्सव के अंतर्गत 24 मार्च को रंगलोक ने सूरसदन प्रेक्षागृह में विजय तेंडुलकर द्वारा लिखित मराठी नाटक का हिन्दी रूपान्तरण- “पंछी ऐसे आते हैं” का सफल मंचन किया। खास बात यह है कि यह मंचन इस समूह की शहर में 22वीं पेशकश थी जो कि आगरा शहर के मद्देनज़र एक बड़ा कीर्तिमान है।

नाटक का निर्देशन डिम्पी मिश्रा और गरिमा मिश्रा द्वारा किया गया। जीवन की तमाम जद्दोजहद के भंवर में फंसे एक मध्यम्वर्गीय परिवार में कैसे एक आगन्तुक आकर सब कुछ उथलपुथल कर जाता है, यह नाटक इसी कहानी पर आधारित है। इस पृष्ठभूमि पर आधारित कहानी में से निकलते हैं आम भारतीय मध्यमवर्गीय समाज के यथार्थ के कुछ ऐसे उदाहरण जो हमें आम तौर पर अपने आसपास देखने को मिल जाते हैं। किसी अविवाहित लड़की के पूरे जीवन और अस्तित्व को शादी तक सीमित कर देना और उसका इससे आजिज आ जाना, ऐसी किसी लड़की के माँ-बाप का इसी चिन्ता में खटे जाना, लड़कों का संस्कृति की दुहाई देते रहना, आदि जैसे कई विषय हल्के-फुल्के अंदाज़ में इस नाटक में दर्शकों के सामने उपस्थित होते रहे।

नाटक संजीदा भी था पर कुछ हास्य भी लिए हुए और यही शायद इसको मंचित करने की सबसे बड़ी चुनौती थी। नाटकों का लाइव मंचन दर्शकों की प्रतिक्रियाओं के हाथों हमेशा गिरवी रखा होता है। सही प्रतिक्रियाओं से नाटक का सही समा बँधता है और गलत प्रतिक्रियाओं से बिगड़ जाता है। ऐसे में निर्देशन और अभिनय पर भारी ज़िम्मेदारी आ जाती है इन प्रतिक्रियाओं को अपने मंचन से साधे रखना। संजीदगी और हास्य को एक साथ समेटे नाटकों में यह कार्य और भी कठिन हो जाता है। और यही सफलता रही इस मंचन की, कि इस कठिन संतुलन को बेहद सहजता से बनाए रखा गया।

लगभग दो घंटे चले इस नाटक की खास बात थी कि चंद किरदारों से ही इतनी लंबी कहानी कहने का प्रयास किया गया। इस कारण हर पात्र को और खास कर नाटक के मुख्य किरदार अरुण को निभाने वाले कलाकार को कई हिस्सों में मैराथन भूमिकाएँ निभानी पड़ीं पर यह काबिल-ए-तारीफ था कि उन्होंने नाटक के मुख्य किरदार और साथ ही कथा वाचक, दोनों ही रोल को अच्छे से निभाया। साथ ही सरु के किरदार को निभाने वाली कलाकार ने भी अपने पात्र की विभिन्न और क्लिष्ट भावनाओं को बहुत सूक्ष्मता से मंच पर प्रस्तुत किया।

जहाँ मंच परिकल्पना को चार हिस्सों में बाँट कर बड़ी प्रामाणिकता के साथ एक मध्यमवर्गीय घर और जीवन के सभी पहलुओं को उभारकर इस कहानी को प्रामाणिक बनाया गया वहीं प्रकाश व्यवस्था के चतुर उपयोग द्वारा नेपथ्य और मंच पर निरन्तर एक ऊर्जा बनी रही जिससे एक लंबे मंचन में भी एक गति का आभास हुआ। संगीत के बेहद सीमित उपयोग ने इस नाटक की आत्मा को बनाए रखने में सहयोग दिया।

नाटक साहित्य की सभी विधाओं में से ग्राह्य करने के लिए सबसे कठिन विधा है। इसका पूर्णतया आनंद सिर्फ तभी मिल सकता है जब इसका सफल और सार्थक मंचन हो। इसीलिए आम तौर पर साहित्य पसंद करने वाले लोग भी नाटकों और नाटककारों से अनभिज्ञ रह जाते हैं। ऐसे में रंगलोक द्वारा जानेमाने नाटककार विजय तेंडुलकर की इस कृति का आगरा में मंचन ना सिर्फ शहरवासियों को एक मनोरंजक मंचन से साक्षात्कार करने का अवसर देता है बल्कि उनकी साहित्य के प्रति जानकारी और रुचि को भी और गहरा करता है।

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