अंक नाट्य समूह की प्रस्तुति ‘अंजी’- एक सहज लड़की की असहज करने वाली कहानी

आगरा के सूरसदन सभागार में लोग बैठे हुए हैं। थोड़ी हलचल है। कुछ बातचीत है। सब दिनेश ठाकुर मेमोरियल नाट्य उत्सव के पाँचवे दिन, मुंबई के अंक नाट्य समूह द्वारा मंचित होने वाले नाटक ‘अंजी’ के शुरु होने का इंतज़ार कर रहे हैं। अभी सभागार की लाइट्स बंद नहीं हुई हैं और मंच पर एक शास्त्रीय गीत बजना शुरु हो जाता है। शायद कोई ठुमरी है। सबका ध्यान मंच की ओर चला जाता है। पर फिर भी आपस में कुछ गुफ़्तगू बाकी है। थोड़ी देर में लाइट्स बंद हो जाती हैं और सब चुप हो जाते हैं कि शायद नाटक शुरु होने जा रहा है। पर अभी भी थोड़ा इंतज़ार बाकी है। अंधेरे में ही सब दर्शक चुपचाप उस गीत को सुनते रहते हैं और एक खूबसूरत रुमानी समा बंध जाता है।

फिर मंच के दो तरफ खड़े पात्रों पर रोशनी डाली और बुझाई जाती रहती है। नाटक की शुरुआत में ही दर्शकों के साथ एक खेल सा चलना शुरु हो जाता है। कुछ देर बाद संगीत का दारोमदार रिकॉर्डिंग से हटकर मंच पर बैठे हारमोनियम और तबले पर बैठे कलाकारों पर स्थानांतरित हो जाता है। लाइव संगीत शुरु होता है और नाटक के सूत्रधार की भूमिका में अतुल माथुर नाटक को पेश करना शुरु करते हैं। नाटक की रचना, ब्रेख्तियन अंदाज़ में संवादात्मक है यानी नाटक के कुछ पात्र समय-समय पर दर्शकों से सीधा संवाद स्थापित करते हैं। ब्रेख्तियन अंदाज़ में होने वाला संवाद कलाकार को चरित्र से बाहर निकालकर पेश कर देता है। इस संवाद में सभागार में बैठे लोग जो टिकट लेकर नाटक देखने वाले दर्शक भी हैं और समाज के सदस्य भी, दोनों से ही जुड़ी बातें शामिल हैं।

नाटक एक मध्यमवर्गीय, नौकरीपेशा ब्राह्मण घर की लड़की अंजली शर्मा की कहानी है जिसे प्यार से अंजी बुलाते हैं। इस भूमिका को निभाया है प्रीता माथुर ने। यह लड़की अपनी बड़ी और छोटी बहनों की शादी के बाद अब अपनी शादी होने के इंतज़ार और जुगत में है। कहीं बात ना बनते हुए भी अंजी निराश नहीं है। उसका जीवन के प्रति नज़रिया सहज और सकारात्मक है। पूरा नाटक उसकी अपने जीवनसाथी को ढूंढने की इसी यात्रा पर आधारित है।

नाटक की पृष्ठभूमि पूरी तरह से सवर्ण-ब्राह्मण समाज पर आधारित है। इस समाज से आने वाली एक लड़की को पारिवारिक और सामाजिक मूल्यों और नीति-बोध की जितनी भी रूढ़ियाँ और बेड़ियाँ जकड़ कर रखती हैं, उन्हें यह नाटक रेखांकित करता है। और दूसरी तरफ जब यही मूल्यों से घिरी लड़की बाहर निकलती है तो कामकाजी और पुरुषों के दबाव वाली बाहरी दुनिया उसके वस्तुतीकरण और उसके भोग के लिए आतुर रहती है। दोनों ही दुनिया उस लड़की के मनोभाव और इच्छाओं को नकारती रहती हैं। सहजता से जीवन जीना एक स्त्री के लिए दूभर होता चला जाता है।

हास्य और व्यंग्य के माध्यम से इसी विषय-वस्तु को नाटक में पिरोया गया है। पुरुषों की स्त्रियों के जीवन, अस्तित्व और उनकी देह पर अपनी हिस्सेदारी समझने वाली सोच की प्रस्तुति शायद ठहाकों और हँसी के बीच कहीं खो सकती थी पर विजय तेंदुलकर की अनुभवी कलम और मरहूम दिनेश ठाकुर के कसे हुए निर्देशन के माध्यम से यह खतरा टला रहा। नाटक से बाहर निकलकर सूत्रधार ने कई बार नाटककार का पक्ष और उनकी सोच सीधे-सीधे दर्शकों तक पहुँचाई। ब्रेख्तियन विधा का यह प्रयोग आकर्षक तो था ही, कारगर भी था।

प्रयोग के मामले में यह नाटक तकनीक और विधाओं से सराबोर था। कहीं फ्रीज़ (यानी कलाकारों का मूर्त हो जाना) अभिनय का प्रयोग तो कहीं माइम (यानी अंगविक्षेप) का प्रयोग और कहीं मंच सज्जा के साथ होता निरंतर खिलवाड़, इस प्रस्तुति के हास्य और मनोरंजन भाव को निरंतर साधे रहे। प्रकाश और संगीत व्यवस्था इस प्रस्तुति में मात्र नेपथ्य में नहीं बल्कि नाटक में एक सक्रिय भूमिका निभाते रहे। इन सभी तकनीकों और विधाओं के द्वारा कलाकारों और नाटक की पटकथा का दर्शकों से सीधा सूत्र बँधा रहा।

इसीलिए नाटक के निष्कर्ष की ओर अग्रसर प्रस्तुति ने जब धीरे-धीरे अपना रूप बदलना शुरु किया तो दर्शकों में व्याप्त हास्य भाव अचानक गंभीरता और असहजता में बदलने लगा जिसे सूत्रधार ने भी रेखांकित किया। नाटक के अंत में सहज, सरल अंजी के साथ घटी घटना से सब हतप्रभ रह गए। पर इस घटना को साभिप्राय अधूरा छोड़ा गया। दर्शकों में उपजने वाली जिज्ञासा और उत्कंठा पर प्रहार कर समाज की उस मानसिकता को उजागर किया गया जिसमें महिलाओं के साथ घटने वाले यौन अपराधों को लेकर संवेदना की कमी और खोजी दृष्टि का परिचय मिलता है। आज जब Me Too जैसा अभियान समाज में व्याप्त है, इस तरह की सोच पर प्रहार और प्रासंगिक हो जाता है।

पर सबसे खास और समाज की रूढ़िगत मानसिकता के लिए विस्फोटक बात थी इस नाटक के अंत में अंजी द्वारा कही गई वह बात जो शायद ही समाज कभी सहजता से स्वीकार कर सके। यौन अपराध की स्थिति में और उसके बाद भी अपनी यौन स्वतंत्रता और सुख के लिए अंजी का आग्रह। समाज की अपेक्षा के विरुद्ध जो यह मानता है कि यौन अपराध के बाद स्त्री का जीवन जीने योग्य नहीं है, अंजी प्रतिकार करती है। वह अपने यौन अनुभव को नकारना नहीं चाहती जो विवाह के अतिरिक्त उसे मिलना दुर्लभ है। पर नाटक के अंत में समाज की इस मानसिकता पर आघात के रूप में एक अन्य निष्कर्ष को भी शामिल किया गया है।

ऐसी प्रस्तुति आज भी प्रासंगिक है, यह नाटककार की सफलता तो है पर साथ ही समाज की विफलता भी है। इतने क्लिष्ट और वर्जित माने जाने वाले विषय को हास्य और फिर संजीदगी के भाव में पिरोना जितना नाटककार के लिए कठिन रहा होगा, उसको पूरी ज़िम्मेदारी और संजीदगी से प्रस्तुत करना कलाकारों के लिए भी कम कठिन नहीं है। अंक समूह के सभी कलाकारों ने मुख्य एवं अन्य भूमिकाओं में यह कार्य कुशलतापूर्वक सिद्ध किया इसके लिए उनकी जितनी प्रशंसा की जाए कम है।

-सुमित चतुर्वेदी

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