मुज़फ़्फ़रनगर की बात चली तो… :ओमप्रकाश वाल्मीकि की आत्मकथा-“जूठन” से परिचय।
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मुज़्ज़फ़रनगर से मेरा सही परिचय हुआ प्रख्यात लेखक ओमप्रकाश वाल्मीकि की आत्मकथा “जूठन” के माध्यम से। एक शहर के साथ ही यह एक समाज, एक व्यवस्था और एक मानसिकता का भी परिचय है। पर ओमप्रकाश के लिए यह आत्मकथा लिखना कोई खूबसूरत यादों का सफर नही रहा।
“इन अनुभवों को लिखने में कई प्रकार के खतरे थे। एक लंबी जद्दोजहद के बाद, मैंने सिलेसिलेवार लिखना शुरू किया। तमाम कष्टों, यातनाओं, उपेक्षाओं, प्रताड़नाओं को एक बार फिर जीना पड़ा। उस दौरान गहरी मानसिक यंत्रणाएँ मैंने भोगीं। स्वयं को परत-दर-परत उधेड़ते हुए कई बार लगा- कितना दुखदायी है यह सब!”
(लेखक की ओर से, जूठन)
(लेखक की ओर से, जूठन)
ओमप्रकाश वाल्मीकि की यह आत्मकथा मुज़फ़्फ़रनगर के बरला गाँव में रहने वाले एक छोटे दलित लड़के के बड़े होकर समाज के एक महत्वपूर्ण आलोचक बनने तक के सफर की कहानी कहती है। ‘दलित’ पहचान को उनकी शुरूआत से जोड़ना इसलिए आवश्यक है क्योंकि ना सिर्फ यह पहचान हमेशा एक साए की तरह उनके साथ चलती रही बल्कि इस पहचान के माध्यम से उन्होंने बतलाया कि भारत के शहर बदलते हैं पर सवर्ण समाज की सोच नहीं।
मुज़फ़्फ़रनगर में बचपन से ही, गाँव में दबंग तगाओं (त्यागियों) द्वारा “चुहड़े के” जैसे जातिसूचक संबोधन से ओमप्रकाश वाल्मीकि और उनके साथी बुलाए जाते रहे। गाँवे के मुसलमान त्यागियों का भी यही व्यवहार था। जीवन में सफलता मिलने और इस परिवेश से बाहर निकलने पर भी संबोधन की इस दुविधा ने एक दूसरे रूप में सिर उठा लिया। ओमप्रकाश वाल्मीकि इस दुविधा के बारे में लिखते हैं-
“दलितों में जो पढ़-लिख गए हैं, उनके सामने एक भयंकर संकट खड़ा हुआ है- पहचान का संकट, जिससे उबरने का वे तत्कालिक और सरल रास्ता ढूँढने लगे हैं…। इन सबके पीछे ‘पहचान’ की तड़प है, जो ‘जातिवाद’ की घोर अमानवीयता के कारण प्रतिक्रियास्वरूप उपजी है। दलित पढ़-लिखकर समाज की मुख्यधारा से जुड़ना चाहते हैं, लेकिन सवर्ण (?) उन्हें इस धारा से रोकता है।… इस पीड़ा को वही जानता है जिसने इसकी विभीषिका के नश्तर अपनी त्वचा पर सहे हैं। जिसने जिस्म को सिर्फ बाहर से ही घायल नहीं किया है अंदर से भी छिन्न-भिन्न कर दिया है।”
किसी मनुष्य की सबसे बड़ी पहचान, उसका नाम, ही यदि उसके अस्तित्व और समाज में उसकी हिस्सेदारी पर ही निरंतर अंकुश लगाता रहे तो समझा जा सकता है कि इसके पीछे का कारण जो व्यवस्था है वह कितनी हिंसक और सर्वव्यापी है। जाति व्यवस्था निम्न जाति कहे जाने वाले इंसान के साथ सिर्फ शारीरिक रूप से अन्याय और हिंसा नहीं करती बल्कि उसके अंतर्मन और चेतना को भी उधेड़ देती है।
ओमप्रकाश वाल्मीकि ने इस आत्मकथा में इस हिंसा के अलग अलग, छोटे बड़े सभी मायनों पर प्रकाश डालकर बतलाया है कि कितना मुश्किल है इस हिंसा से बच पाना, फिर चाहे उनका अपने गाँव के घर की जातीय व्यवस्था से प्रेरित भौगोलिक स्थिति का वर्णन हो-
“जोहड़ी के किनारे पर चूहड़ों के मकान थे, जिनके पीछे गाँव भर की औरतें, जवान लड़कियाँ, बड़ी-बुढ़ी यहाँ तक कि नई नवेली दुल्हनें भी इसी डब्बोवाली के किनारे खुले में टट्टी-फरागत के लिए बैठ जाती थीं। रात के अँधेरे में ही नहीं, दिन के उजाले में भी पर्दों में रहने वाली त्यागी महिलाएँ, घूँघटे काढें, दुशाले ओढ़े इस सार्वजनिक खुले शौचालय में निवृत्ति पाती थीं।”
या फिर चूहड़, चमार जाति के बच्चों के स्कूल पढ़ने जाने का अनुभव-
“लंबा-चौड़ा मैदन मेरे वजूद से कई गुना बड़ा था, जिसे साफ करने से मेरी कमर दर्द करने लगी थी। धूल से चेहरा, सिर अँट गया था। मुँह के भीतर धूल घुस गई थी। मेरी कक्षा में बाकी बच्चे पढ़ रहे थे और मैं झाड़ू लगा रहा था… तमाम अनुभवों के बीच कभी इतना काम नहीं किया था। वैसे भी घर में भाइयों का मैं लाडला था।
दूसरे दिन स्कूल पहुँचा। जाते ही हेडमास्टर ने फिर झाड़ू के काम पर लगा दिया।… तीसरे दिन मैं कक्षा में जाकर चुपचाप बैठ गया। थोड़ी देर बाद उनकी दहाड़ सुनाई पड़ी, “अबे, ओ चूहड़े के, मा……द कहाँ घुस गया… अपनी माँ…”… हेडमास्टर ने लपककर मेरी गर्दन दबोच ली थी… जैसे कोई भेड़िया बकरी के बच्चे को दबोचकर उठा लेता है… चीखकर बोले, “जा लगा पूरे मैदान में झाड़ू… नहीं तो ___ में मिर्ची डालके स्कूल से बाहर काढ़ (निकाल) दूँगा।”…
पिताजी ने मेरा हाथ पकड़ा और लेकर घर की तरफ चल दिए। जाते-जाते हेडमास्टर को सुनाकर बोले, “मास्टर हो… इसलिए जा रहा हूँ… पर इतना याद रखिए मास्टर… यो चुहड़े का यहीं पढ़ेगा… इसी मदरसे में। और यो ही नहीं, इसके बाद और भी आवेंगे पढ़ने कू।”
या फिर संभवत: इस आत्मकथा का शीर्षक तय करने वाली प्रथा हो-
“शादी-ब्याह के मौकों पर, जब मेहमान या बाराती खाना खा रहे होते थे तो चूहड़े दरवाज़ों के बाहर बड़े-बड़े टोक्रे लेकर बैठे रहते थे। बारात के खाना खा चुकने पर झूठी पत्तलें उन टोकरों में डाल दी जाती थीं, जिन्हें घर ले जाकर वे जूठन इकट्ठी कर लेते थे। पूरी के बचे-खुचे टुकड़े, एक आध मिठाई का टुकड़ा या थोड़ी-बहुत सब्जी पत्तल पर पाकर बाछें खिल जाती थीं। जूठन चटखारे लेकर खाई जाती थी।…
आज जब मैं इन सब बातों के बारे में सोचता हूँ तो मन के भीतर काँटे उगने लगते हैं, कैसा जीवन था?
दिन-रात मर-खपकर भी हमारे पसीने की कीमत मात्र जूठन, फिर भी किसी को कोई शिकायत नहीं। कोई शर्मिंदगी नहीं, कोई पश्चाताप नहीं।”
ओमप्रकाश वाल्मीकि की जीवनी हमारी दुनिया के ज्ञान में एक भयावह रिक्तता को भरती है। यह रिक्तता इसलिए भयावह है क्योंकि यह जिस अनभिज्ञता को जन्म देती है वह जाति व्यवस्था की हिंसा को नकारने का काम करती है और अपने आप में हिंसक हो जाती है। इस हिंसा की सतत प्रक्रिया को हम पहचान नहीं पाते, वह इसलिए क्योंकि जिन घटनाओं से हमारे समाज का उपेक्षित वर्ग होकर गुजरा है उसे समृद्ध वर्ग सोच भी नहीं सकता।
अपनी सहज आलोचना से उन्होंने भारत के समाज का खांका खींच दिया। उन्होंने बताया कि जाति व्यवस्था जैसी प्रथा की हिंसा हमारे समाज की नींव में विदित है। आज जब भारत के कई गाँवों, शहरों में हिंसा की घटनाएं घटती हैं तो यह समझना ज़रूरी है कि यह अचानक से जन्म नहीं लेतीं। यदि हम हिंसा को तभी समझ सकते हैं जब वह एक भयानक घटना का रूप ले ले और तब नहीं जब वह एक निरंतर प्रक्रिया की तरह चल रही है तो ना सिर्फ हम हमारे समाज की आधी से ज़्यादा आबादी के साथ अन्याय कर रहे हैं पर साथ ही इन घटनाओं के जब तब, बार-बार फिर घटने की ज़मीन तैयार कर रहे हैं।
यह आत्मकथा साहित्य और सामाजिक परिदृश्य की नज़र से एक महत्वपूर्ण दस्तावेज है। साहित्य इसलिए क्योंकि इस पुस्तक से अधिक कोई भी कृति “साहित्य समाज का दर्पण है” जैसी लोकोक्ति के साथ न्याय नहीं कर सकती। और सामाजिक परिदृश्य इसलिए क्योंकि राजनैतिक और समाज विज्ञान के मद्देनज़र यह आत्मकथा भारत में जाति प्रथा के दंश के संख्यात्मक पहलू के बजाय गुणात्मक पहलू को उजागर करती है, जिसे अक्सर आँकड़ों की दौड़ में हम भुला देते हैं पर जिसका मूल्य आंतरिक रूप से हुए आघातों को समझने के लिए कहीं ज्यादा है।
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मुज़्ज़फ़्फ़रनगर या फिर भारतीय समाज में हो रही हिंसाओं को समझने के लिए हमें लगातार उन पर नज़र बनाए रखने की ज़रूरत है। जान माल को नुकसान एक बेहद आपत्तिजनक बात है, पर ना जीने लायक जीवन जीना उससे भी बुरा हो सकता है। सिर्फ इसलिए कि हमारे पास जीने लायक जीवन है और हमें उसे खोने का डर है, हम सिर्फ उन्हीं हिंसाओं को समझने का प्रयास करें जो जीवन को खतरे में डालती हैं तो यह भी अपने आप में निरंतर चलने वाली हिंसा में योगदान करने जैसा ही है।