महाश्वेता देवी की कृति ‘झाँसी की रानी’ में इतिहास और उपन्यास के समन्वय की झलक

झाँसी की रानी’ महाश्वेता देवी की 1956 में बांग्ला में प्रकाशित प्रथम गद्य रचना है जिसका हिन्दी में अनुवाद डॉ रामशंकर द्विवेदी ने किया। इस उपन्यास को लिखने के बाद ही महाश्वेता देवी का लेखन-जीवन शुरु हुआ। इसमें लक्ष्मीबाई के जीवन-चरित्र का ही नहीं बल्कि 1857 के ब्रिटिश-शासन के विरुद्ध प्रथम भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम में उनके संघर्ष का प्रामाणिक चित्रण भी है जो भारत के विभिन्न क्षेत्रों में दो वर्षों तक चला। यह कृति महाश्वेता देवी के अथक परिश्रम और लगन का परिणाम है जिसे लिखने के लिए उन्होंने 26 वर्ष की उम्र में अपनी छोटी बेटी को छोड़कर झाँसी, ग्वालियर, कालपी, जबलपुर, पूना, इन्दौर आदि की यात्राएं कीं। इस उपन्यास में केवल एक तेजोमय रानी का ही परिचय नहीं मिलता है, बल्कि कहीं हमारे समक्ष एक वीरता से ओत-प्रोत उत्साहित, कहीं दया और वेदना से भरी और कहीं नितान्त निरुपाय स्त्री प्रस्तुत होती है। इसमें लक्ष्मीबाई के विवाह से लेकर झाँसी पर उनके शासन काल की घटनाओं को साक्ष्यों के साथ चित्रित किया गया है। लेखिका ने तत्कालीन झाँसी और उसके आसपास की भौगोलिकता और झाँसी के विभिन्न स्थलों का महत्वपूर्ण घटनाओं के सन्दर्भ में उल्लेख किया है; साथ ही वहाँ के जनजीवन में रानी के प्रति अगाध श्रद्धा का सम्पूर्णता से वर्णन भी मिलता है।

उपन्यास में महाश्वेता देवी ने इतिहास और उपन्यास का सटीक समन्वय किया है। इतिहास की दृष्टि से देखा जाए तो भारतीय तथा अंग्रेजी सेनाओं और उनके आक्रमण की गतिविधियों तथा समस्त घटनाओं का, तिथि, महीने, स्थान, समय आदि के उल्लेख के साथ, प्रामाणिक चित्रण मिलता है। प्रमुख भारतीय तथा अंग्रेज़ शासकों का उनकी सैन्य शक्ति तथा पदवी और अधिकार क्षेत्र के साथ उल्लेख किया गया है। समस्त पदाधिकारियों के लिखित आदेश, प्रमाण, उनके पत्र, तिथि और अन्य आवश्यक उल्लेख साक्ष्य के साथ मिलते हैं। उपन्यास के अन्त में ग्रन्थ-सूचि दी गई है। इस प्रकार समस्त साक्ष्यों सहित प्रामाणिक चित्रण से इतिहास के एक भाग को पढ़ने की अनुभूति होती है

विभिन्न स्थलों पर रानी की मनोगत भावनाओं की अभिव्यक्ति होने पर उपन्यास का स्वरूप मिलता है। आम तौर पर रानी के शौर्य की गाथाओं से सब अवगत हैं परन्तु उनकी सेना और झाँसी के लोगों का उनको मिला साथ और स्त्री-पुरुष एवं बच्चों का भी उनके नेतृत्व में युध्याभ्यास द्वारा योगदान का चित्रण इस वृत्तान्त का एक विशेष पहलू है। युद्ध में रानी के हार जाने पर झाँसी के लोगों को अंग्रेजों के निर्मम अत्याचारों का सामना करना पड़ा जिसका अत्यन्त मार्मिक चित्रण भी महाश्वेता देवी ने किया है। किले पर विजय हो जाने पर सम्पूर्ण झाँसी में अंग्रेजों ने आग लगा दी थी। झाँसी से बाहर जाने वाले सभी दरवाजों को सील कर दिया गया था। इसके बाद हजारों नागरिकों को मार डाला गया। लड़ाई में अपनी सेना का सदैव मनोबल बनाए रखने वाली रानी अन्त में निरुपाय और दुखी होकर किले से जलती हुई झाँसी को देखती  रह जाती हैं। इन सभी मार्मिक चित्रण को पढ़कर पाठक भाव-विह्वल हो जाता है।

कालपी में रानी को युद्ध का नेतृत्व सौंपे जाने पर उन्हें एक स्त्री होने के कारण संशय हुआ कि उनके नेतृत्व को माना जाएगा या नहीं और उनका संशय ठीक निकला। युद्ध के अनेक अवसरों पर लक्ष्मीबाई के सहयोगी नेताओं द्वारा उनके नेतृत्व और सलाह की अवहेलना की गई जिसके कारण  रानी को पराजय का सामना करना पड़ा। सेना में पारस्परिक समन्वय का अभाव तथा मनमुटाव भी कई युद्ध में रानी की हार के कारण बने। अन्त में ग्वालियर में उन्हीं नेताओं द्वारा लक्ष्मीबाई से युद्ध में नेतृत्व का निवेदन करने पर वह पुनः युद्ध-संचालन  के लिए तत्पर हो गईं। अपनी उत्साहित सेना के साथ अंग्रेजों से यु्द्ध करते हुए 29 वर्ष की कम उम्र में उनकी मृत्यु हो गई। अंतिम क्षणों में लड़ते-लड़ते रानी और उनके बचे हुए साथी किस प्रकार एक असहाय  स्थिति तक पहुँच जाते हैं, इसका मार्मिक चित्रण इस उपन्यास में पढ़ने को मिलता है।

लक्ष्मीबाई अन्त तक अपने दत्तक पुत्र दामोदर राव के जीवन को बचाने में प्रयत्नशील रहीं और उसमें सफल भी रहीं। रानी ने दामोदर राव के अधिकारों के लिए भी सन्घर्ष किया परन्तु उसे अधिकार दिला न सकीं। युद्ध के बाद कुछ समय बीत जाने के उपरांत दामोदर के बिगड़े हुए हालात के वर्णन के साथ एक उल्लेख मिलता है जिसमें महाश्वेता देवी के सामाजिक और आर्थिक दृष्टिकोंण की झलक मिलती है,

‘’भारत के इतिहास में सामन्त का युग जानेवाला था और पूँजीवाद का युग आनेवाला था। इस युग- सन्धि के क्षण में खड़े होकर दामोदर राव शायद अपने अभागे और विडम्बित जीवन के बारे में सोचा करता था। रानी अगर उसे गोद न लेती तो शायद उसको इस तरह के दुर्भाग्य का वरण न करना पड़ता।’’

कहानीकार प्रियम्वद ने अपने लेख ‘इतिहास और उपन्यास’ में महाश्वेता देवी के ‘झाँसीर रानी’ उपन्यास के हिन्दी अनुवाद पर टिप्पणी करते हुए लिखा है, ‘’लक्ष्मीबाई पर यह उपन्यास इतिहास की किसी भी पुस्तक पर भारी पड़ेगा। गहन शोध, समर्पण, प्रतिबद्धता और श्रम के साथ, इतिहास के सूक्ष्मतम तत्वों का प्रामाणिक स्रोतों से समर्थन पाने व विवेचन करने के बाद, महाश्वेता ने इस उपन्यास को लिखा है।’’ परन्तु महाश्वेता देवी ने भूमिका में लिखा है, ‘’मेरा यह ग्रन्थ प्रचलित अर्थों में इतिहास नहीं है, रानी का जीवन-चरित लिखने का एक विनीत प्रयास मात्र है।’’

रचनाकार अपने मत और भावनाओं के अनुसार रचना करता है लेकिन पाठक उसमें अनेक सम्भावनाएं ढूँढ लेता है। यह उपन्यास लक्ष्मीबाई का जीवन-चरित्र होने पर भी लेखिका के अथक शोध और परिश्रम के फलस्वरूप प्रामाणिक बन एक एतिहासिक स्वरूप धारण कर लेता है जो इसे और महत्वपूर्ण बना देता है। हिन्दी साहित्य में लक्ष्मीबाई के जीवन-इतिहास की दृष्टि से यह एक संग्रहीय उपन्यास है। एतिहासिक रुचि के पाठक इसका तथ्यों की प्रामाणिकता के अनुसार अध्ययन कर सकते हैं और जिस प्रकार महाश्वेता देवी ने कहानी में निरन्तर रोचकता और सरसता बनाए रखी है वह इसे उपन्यास का स्वरूप देती है। निश्चय ही झाँसी की रानी इतिहास और उपन्यास का उत्कृष्ट समन्वय है।   

अमिता चतुर्वेदी एक स्वतंत्र लेखिका हैं और अपना परिचय नामक ब्लॉग पर लिखती हैं।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *