साहित्य के फिल्मों में अनुरूपण की चुनौतियाँ: ‘शतरंज के खिलाड़ी’ और ‘चोखेर बाली’ का मूल्यांकन

फ़िल्मों की साहित्य पर निर्भरता हमेशा से रही है। बीसवीं सदी के अंत में जब फिल्मों के माध्यम का उदय हो रहा था, उस वक्त सबसे लोकप्रिय मन लगाने का माध्यम उपन्यास एवं कहानियाँ ही थे। फिल्मों में मुद्रित (प्रिंट) माध्यम में कही गई कहानियों को चल चित्र (मुवीज़) और बाद में आवाज़ (टौकीज़) के माध्यम से एक नया आयाम देने का अवसर मिला। उपन्यासों और लघु-कथाओं में पहले से ही उपलब्ध लोकप्रिय कहानियों का शुरु से ही फिल्मकारों ने फिल्मों के रूप में अनुरूपण (Adaptation) करना शुरु कर दिया। इस लेख का इस अंतर्संबंध के इतिहास की विवेचना का उद्देश्य नहीं है अपितु साहित्य की दो विधाओं- उपन्यास और लघु-कथाओं के फिल्मों के रूप में अनुरूपण से उपजने वाली कुछ विशिष्ट चुनौतियों पर ध्यान आकर्षित करना है।



इस विश्लेषण के लिए जिन दो फिल्मों का चयन किया गया है, वे दोनों ही भारतीय एवं विश्व साहित्य की दो अद्भुत और अद्वितीय साहित्यिक हस्तियों की कृतियों पर आधारित हैं। पहली फिल्म है सत्यजीत राय द्वारा निर्देशित 1975 में बनी ‘शतरंज के खिलाड़ी’ जो कि महान हिन्दी साहित्यकार प्रेमचंद की लघु-कथा ‘शतरंज के खिलाड़ी’ पर आधारित है और दूसरी फिल्म है 2003 में बनी, ॠतुपर्णो घोष द्वारा निर्देशित, ‘चोखेर बाली’ जो कि बंगाली एवं अंग्रेज़ी साहित्य के विश्व प्रख्यात एवं नोबेल पुरस्कार विजयी रचनाकार रवीन्द्रनाथ टैगोर के उपन्यास ‘चोखेर बाली’ पर आधारित है। जहाँ सत्यजीत राय खुद ही विश्व-प्रसिद्ध निर्देशक हैं जिन्हें सिनेमा जगत को अपने जीवनपर्यंत योगदान के लिए ऑस्कर पुरस्कार से नवाज़ा गया था, रितुपर्णो घोष बंगाली सिनेमा के एक प्रमुख निर्देशक बन कर तेज़ी से उभर रहे थे जब उनकी असमय मृत्यु हो गई।

शतरंज के खिलाड़ी

शतरंज के खिलाड़ी प्रेमचंद की सबसे चर्चित और महत्वपूर्ण कहानियों में से एक है। इस कहानी में उन्नीसवीं शताब्दी में रीतिकालीन साहित्य और सामंतवादी व्यवस्था के अवसान की व्याख्या आप अमिता चतुर्वेदी के इस लेख में पढ़ सकते हैं। वह लिखती हैं- “शतरंज के खिलाड़ी… तत्कालीन भारत की परिस्थितियों को चित्रित करती हुई, प्रेमचंद की एक सार्थक कहानी है, जिसमें एक तरफ प्रेमचंद ने विलासिता तथा अय्याशी में डूबे सुप्तप्राय जनजीवन को पुनः जागरूक होने का सन्देश दिया है और दूसरी तरफ रीतिकालीन साहित्य के, समाज से कटे हुए चरित्र का यथार्थवादी लेखन के रूप में एक विकल्प प्रस्तुत करने की चेष्टा भी की है।“

इस कहानी में प्रेमचंद ने उस समय की सामाजिक-राजनीतिक परिस्थिति पर एक कटाक्ष किया है। कहानी में भले ही अवध के तत्कालीन शासक वाजिद अली शाह का संदर्भ दिया गया है परन्तु वह इस कहानी में पात्र के रूप में मौजूद नहीं है। कहानी दो मुख्य पात्र मिर्ज़ा सज्जाद अली और मीर रौशन अली के माध्यम से ही चलती है जिसमें अन्य पात्र या तो कुछ समय के लिए उपस्थित होते हैं या फिर सिर्फ उनका संदर्भ ही दिया जाता है।

पर फिल्म की कहानी को सत्यजीत राय ने अपने अनुसार पुन: लिखा है जिसमें कहानी की पृष्ठभूमि में तत्कालीन ऐतिहासिक परिदृश्य को प्रमुखता से दर्शाया गया है। वाजिद अली शाह के किरदार को फिल्म का एक अहम पात्र बनाया गया है जिसे अमजद खान ने बखूबी निभाया है। वाजिद अली शाह किस प्रकार भोग और विलासिता में डूबे रहते हैं इसके प्रस्तुतिकरण को नृत्य एवं नाटिकाओं के दृश्यों से और साथ ही सेट की सज्जा में मौजूद शान-ओ-शौकत के दिखावे के द्वारा साधा गया है। साथ ही ब्रिटिश शासकों द्वारा किस प्रकार एक-एक कर उस समय की हिंदुस्तान में मौजूद सभी रियासतों को अपने आधीन करने का अभियान चल रहा था इसको भी कई दृश्यों एवं संवादों द्वारा दर्शाया गया है, जिसका उल्लेख मूल रूप से कहानी में नहीं है।

एक तरफ वाजिद अली शाह का भावुक पक्ष जो रियासत की बागडोर संभालने के बजाय नृत्य एवं अन्य ललित कलाओं को तरजीह देना चाहते हैं पर साथ ही उन्हें अवध की सल्तनत को खोने का दु:ख भी है और दूसरी तरफ ब्रिटिश अफसरों का रियासतों को अपने आधीन करने के पीछे प्रशासनिक और तार्किक पक्ष, दोनों ही पक्षों को सत्यजीत राय निरन्तर फिल्म में उभारने की कोशिश करते हैं जो कि मौलिक कहानी की मंशा नहीं है। लघु-कथा अपने-आप में एक सीमित दायरे में रचित कृति होती है जिसमें सभी पात्रों का वृहद चरित्र-चित्रण और सभी आयामों को विकसित करना संभव नहीं होता है। परन्तु सिनेमा के विशाल पटल पर कहने के लिए इन दोनों ही बातों की आवश्यकता होती है जिसके कारण संभवतः: राय ने इस कहानी को अपने अनुसार ढाला।

चोखेर बाली

शतरंज के खिलाड़ी की ही तरह, चोखेर बाली भी स्वतंत्रता से पहले के समय में आधारित एक कहानी है। बीसवीं शताब्दी के पूर्वार्ध के बंगाल में यह बिनोदिनी नामक एक विधवा की कहानी है जो तत्कालीन समाज में विधवाओं के लिए निर्धारित किए गए सामाजिक नीतिबोध और कर्तव्यों के खिलाफ जाकर उन सभी चीज़ों को हासिल करने की इच्छा रखती है जो उसके लिए वर्जित मानी गई हैं। टैगोर ने ऐसे समय में यह उपन्यास लिखा था जब पूरे देश में स्वतंत्रता अन्दोलन चल रहा था। पर सामाजिक सुधार की लड़ाई कुछ ही जगहों पर व्याप्त थी। इनमें एक जगह थी बंगाल जहाँ महिलाओं कि स्थिति को बदलने के लिए कई प्रकार के अभियान और कार्यक्रम चलाए जा रहे थे। टैगोर ने इस कहानी को विधवा-समाज को केन्द्र में रखकर तो लिखा पर सभी पात्रों का एक अस्तित्ववादी चित्रण भी किया है जिसमें उनके चरित्रों की सभी विशेषताओं और उनके पारस्परिक संबंधों का बहुत सूक्ष्मता और धैर्य के साथ वर्णन किया गया है।

ॠतुपर्णो घोष ने अपने फिल्मी अनुरूपण में मूल कहानी के साथ बहुत से परिवर्तन किए हैं। फिल्म के कई प्रसंग मूल कहानी में प्रस्तुत नहीं हैं। साथ ही फिल्म के आरम्भ में और आगे भी कई स्थान पर कहानी की मौलिक गति से कहीं तेज़ी से आगे बढ़ाया गया है। ऐसे में कई बार कथावस्तु और चरित्रों की विशिष्टताओं का पूरा बोध संभव नहीं हो पाता है। घोष ने मौलिक कृति के सामाजिक पक्ष को उजागर करने का प्रयास किया है जिसमें उन्होंने विधवा-जीवन को केन्द्र में रखा है जिसका मुख्य प्रतिनिधित्व बिनोदिनी करती है। पर साथ ही घोष ने उस समय के ऐतिहासिक परिदृश्य को स्थापित करने के लिए स्वतंत्रता आन्दोलन का बहुत जगहों पर ज़िक्र किया गया है जो मूल उपन्यास में इतनी मात्रा में नहीं है।

इस कहानी पर फिल्म बनाने में घोष का उद्देश्य एक स्त्री की आकांक्षाओं को प्रस्तुत करना लगता है जिस पर समाज निरन्तर अंकुश लगाना चाहता है। इस इच्छा की कलात्मक अभिव्यक्ति पर ध्यान देते हुए घोष ने फिल्म में मानव देह को भाव-भंगिमाओं और प्रकाश के प्रयोग द्वारा कई स्थान पर युरोपीय चित्रकला से प्रेरित होकर प्रस्तुत किया है। यह आश्चर्य की बात नहीं है कि इस फिल्म को कला-निर्देशन के लिए राष्ट्रीय पुरस्कार से भी नवाज़ा गया।

मूल कहानी में किए गए परिवर्तनों और कथानक की गति को बढ़ाने के लिए संभवत: घोष की सबसे बड़ी विवशता थी उपन्यास की वृहदता को फिल्म की सीमित अवधि में समेटना जो कि घोष के लिए चुनौतीपूर्ण रहा होगा। ऐसे में घोष ने कहानी के एक महत्वपूर्ण पक्ष पर ध्यान देने के लिए इसकी पटकथा में बदलाव लिए। जहाँ टैगोर ने अपने धैर्यपूर्ण चित्रण से अपने पात्रों के सामाजिक और आंतरिक जीवन का चित्रण किया वहीं घोष ने इन पात्रों के सामाजिक परिवेश को ऐतिहासिक परिदृश्य के माध्यम से प्रस्तुत किया और आंतरिक जीवन को कलात्मक रूप से दैहिक कथावस्तु के माध्यम से प्रस्तुत किया।

अंतिम बात

दोनों ही फिल्मों के मूल्यांकन से पता चलता है कि मूल कृतियों में कई परिवर्तन किए गए। कहानी जिस समयकाल में आधारित है उसे प्रस्तुत करने के लिए ऐतिहासिक तथ्यों को उजागर करना फिल्मकारों के लिए आवश्यक हो गया भले ही ये तथ्य मूल रचना में उपस्थित नहीं थे। लघु-कथा का संसार छोटा होने के कारण उसे फिल्म के कैनवास पर बड़ा कर दिखाने के लिए राय को जहाँ कहानी में कई अनकहे पक्षों को जोड़ना और बढ़ाना पड़ा वहीं घोष को उपन्यास के वृहद रूप को फिल्म में समेटने के लिए कुछ पक्षों की काँट-छाँट करनी पड़ी। साहित्य से फिल्मों के अनुरूपण की यह चुनौतियाँ, इन फिल्मों के विश्लेषण के माध्यम से सहज रूप से स्पष्ट होती हैं।

यह लेख ओपिनियन तंदूर फिल्म क्लब में दिखाई गई फिल्मों के विश्लेषण पर आधारित है जिसमें क्लब के सभी सदस्यों की राय और दृष्टिकोंण का समावेश किया गया है।

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