अपने अपने अजनबी और वैयक्तिक यथार्थबोध
हिन्दी साहित्य में किसी भी प्रकार के यथार्थबोध का सैद्धान्तिक विवेचन नहीं किया गया है। इसलिये यथार्थबोध को समझने के लिये यथार्थवाद को समझना आवश्यक हो जाता है। `यथार्थ’ का अर्थ है सत्य और वाद का अर्थ है सिद्धान्त, अर्थात जो सिद्धान्त सत्य को उद्घाटित करे वह यथार्थवाद है। वैयक्तिक संवेदनाएँ और मानसिक स्थिति मनुष्य के आंतरिक यथार्थ को स्थापित करते हैं।
आंतरिक यथार्थ को यथार्थ की संज्ञा देने पर साहित्यकारों का एक मत नहीं रहा है। अर्जुन मिश्र का कथन है कि, “वस्तुएँ अर्थात् ज्ञान के विषय मन से बाहर स्वतंत्र अस्तित्व रखते हैं”। वह यह भी कहते हैं कि “ज्ञान के ज्ञात पदार्थों में किसी प्रकार का परिवर्तन नहीं होता है। पदार्थ का जैसा स्वरूप है, उसका उसी रूप में ज्ञान होता है।”
इस दृष्टि से यथार्थवादी रचनाकार स्वयं के दृष्टिकोंण मान्यताओं और आदर्शवादी दृष्टिकोंण से अलग रहकर यथार्थ का केवल वस्तुगत चित्रण करता है। परन्तु कुछ साहित्यिक चिंतकों ने यथार्थवाद पर एक अलग मत भी प्रस्तुत किया है।
अर्न्स्ट फ़िशर का मानना है कि “यथार्थवाद को दो रूपों में देखा जा सकता है, एक दृष्टिकोंण के अनुसार तथा दूसरा शैली या पद्धति के रूप में। पर दोनों के मध्य अत्यन्त सूक्ष्म अन्तर है। दृष्टिकोंण सम्बन्धी यथार्थवाद वस्तु के बाह्य रूप तक ही सीमित रहता है अतः वह जड़ हो जाता है तभी वह यथार्थ बनता है। अतः यथार्थ को दृष्टिकोंण से ना जोड़कर पद्धति के रूप में देखना उचित है।”
वहीं लुकाच न तो वस्तुगत यथार्थ और न केवल व्यक्तिगत यथार्थ को ही मानते हैं। लुकाच का कहना है कि मात्र जैविक क्रियाओं का चित्रण साहित्यिक दृष्टि से पूर्णता रखता हो परन्तु मानवीय सम्बन्धों की जटिलता समग्रता से चित्रित न कर उसके मार्ग में बाधा बनता है। अतः लुकाच उपन्यासों की मनोवैज्ञानिक दृष्टि से सहमत हैं।
संवेदनात्मक अथवा दार्शनिकता प्रधान साहित्य के उचित मूल्याँकन के लिये एक उपयुक्त साहित्यिक सिद्धांत की स्थापना नहीं हो सकी है। इस रिक्तता को भरने के लिये वैयक्तिक यथार्थबोध एक सम्भावना प्रदान करता है।
‘अपने अपने अजनबी’ और वैयक्तिक यथार्थबोध (मूल्यांकन)
वैयक्तिक यथार्थबोध का अपने साहित्य में चित्रण करने वाले लेखकों में अज्ञेय का नाम विशेष रूप से लिया जाता है। उनकी रचनाओं में मानवीय संवेदनाएँ अभिव्यक्त होती हैं। अज्ञेय की दृष्टि अन्तर्मन को पढ़ने में सक्षम है। उनकी रचनाएं व्यक्ति केन्द्रित होती हैं, जिसमें व्यक्ति का अन्तर्द्वन्द अत्यन्त संवेदनशीलता से व्यक्त होता है एवं वैयक्तिक यथार्थबोध सूक्ष्मता से परिलक्षित होता है।
`अपने अपने अजनबी’ अज्ञेय के बाकी उपन्यासों से भिन्न प्रकृति की रचना है। इस उपन्यास में यथार्थबोध के वैयक्तिक पक्ष की प्रधानता है। इसे कुछ विद्वानों ने अस्तित्ववादी चेतना का उपन्यास भी माना है। अज्ञेय ने इसकी रचना दो पात्रों, योके और सेल्मा के माध्यम से की है जो एक बर्फ़ से दबे हुए घर में फ़ँस गई हैं। दोनों पात्रों की नितान्त वैयक्तिक अनुभूतियाँ इसमें व्यक्त होती हैं। उपन्यास के केन्द्र में मृत्यु है। मृत्यु जीवन का अन्तिम सत्य है। मनुष्य मृत्यु का अनुभव नहीं कर सकता और उसे देख नहीं सकता परन्तु उसे मृत्युबोध हो सकता है। जीवन और निकट आती मृत्यु के बीच के समय का अनुभव ही मृत्युबोध है। मृत्युबोध से उत्पन्न होने वाली संवेदनाओं का उपन्यास में समावेश किया गया है। उपन्यास में मृत्युबोध दो रूपों में सामने आता है– एक निकट आती मृत्यु का बोध और दूसरा मृत्यु का भय।
उपन्यास में मृत्यु बोध की असम्पूर्णता को प्रमुखता से वयक्त किया गया है। योके और सेल्मा के अनुभवों द्वारा यह दर्शाया गया है कि मनुष्य को मृत्यु का आभास ही हो सकता है, वह मृत्यु को पूर्ण होते हुए नहीं देख सकता। मृत्यु हो सकती है यह देखना संभव है परन्तु मृत्यु होना नहीं देखा जा सकता। यहाँ एक असम्पूर्णता की स्थिति है। यह बोध उपन्यास में काठघर में आती “एक अन्तहीन, परिवर्तनहीन धुँधली रोशनी” के माध्यम से पाठकों को कराया गया है। कब्र में अँधेरे की ही भाँति काठघर में अँधेरा नहीं है पर इस धुँधली रोशनी को भी रोशनी नहीं कहा जा सकता। इस प्रकार रोशनी के द्वारा प्रतीकात्मक रूप से मृत्यु की असंपूर्णता को व्यक्त किया गया है।
अज्ञेय ने मृत्यु की असंपूर्णता को नीतिबोध से जोड़ कर भी देखा है, “यह हमारे युगों से धँचे हुए नीति बोध की सजा है कि हमारा मरना भी अधूरा ही हो सकता है मरकर भी कुछ बाकी रह जाता है।” मनुष्य में विवेक होता है। उसमें अच्छे – बुरे का ज्ञान होता है। मरते समय तक वह इस विवेक से स्वतंत्र नहीं हो पाता। उसमें नीतिबोध का दबाब होता है। उसका मस्तिष्क अंतिम समय तक इस बोझ से दबा रहता है कि संसार में उसका कुछ करना बाकी रह गया है क्योंकि उसके कार्यों को जीवन काल में पूर्णता कभी प्राप्त नहीं होती। इसलिये वह अपूर्णता का बोध लिये हुए ही मृत्यु को प्राप्त होता है। विवेक के आधीन मनुष्य की मृत्यु में भी अपूर्णता रह जाती है। मृत्यु का अंतहीन क्रम संसार में निरंतर चलता रहता है। उपन्यास में इसे गहराई और पूर्णता के साथ व्यक्त किया गया है।
आसन्न मृत्यु का बोध मनुष्य में उदासीनता का भाव भी उत्पन्न कर सकता है। कैंसर से पीड़ित सेल्मा अपने भविष्य की बात पर कहती है “उस दृष्टि से तो मेरा भविष्य बहुत आसान है। कुछ भी जानने को नहीं है – न उत्कंठा है।” सेल्मा के इस उदासीन दृष्टिकोंण से लेखक ने व्यक्त करने का प्रयास किया है कि व्यक्ति जीवन भर अपने अतीत एवं वर्तमान के साथ भविष्य का चिंतन करता हुआ बढ़ता है पर जब उसकी मृत्यु की निश्चित अवधि आ जाती है, तब उसकी भविष्य के प्रति रुचि समाप्त हो जाती है। मृत्यु के आगमन पर स्वयं मनुष्य के लिये उसके भविष्य के साथ अतीत और वर्तमान भी समाप्त हो जाता है। मृत्यु उसका समग्रता से अंत कर देती है।
घर से थोड़ी बर्फ़ हट जाने वाले दिन अन्यथा उद्विग्न रहने वाली योके कुछ सहज हो जाती है और डायरी में प्रथम बार कब्र घर को काठ घर के रूप में संबोधित करती है, लेकिन साथ ही अब उसे हर क्षण यह आभास भी होता रहता है कि सेल्मा की मृत्यु किसी भी समय हो सकती है क्योंकि सेल्मा का स्वास्थ्य प्रतिदिन गिरता जा रहा था। यहाँ एक बहुत ही विषम स्थिति उत्पन्न होती है कि एक बंद घर में दो स्त्रियों में से एक की मृत्यु होने वाली है और दूसरी को अपनी इस घर से मुक्ति का पूरा आश्वासन नहीं हुआ है। इस परिस्थिति में जिसके बचने की आशा है उसके मानसिक द्वन्द के दो ध्रुव हैं। एक तरफ़ स्वयं की मुक्ति की आशा है, दूसरी तरफ़ दूसरे व्यक्ति की मृत्यु का भय। एक की बन्दी अवस्था से मुक्ति का द्वार खुलने वाला है और दूसरे की जीवन से ही मुक्ति है।
मृत्यु के भय का चित्रण भी अज्ञेय ने बहुत गहनता से किया है। उपन्यास में कैंसर से पीड़ित सेल्मा द्वारा बार–बार मृत्यु की बात टालने से यह परिलक्षित होता है कि अन्दर ही अन्दर उसको भी मृत्यु का भय है पर वह उस मृत्युबोध को अपने तक ही रखना चाहती है। इसीलिये वह अपने कैंसर की बात भी योके को नहीं बताती क्योंकि उसको शायद डर है कि जिस मृत्यु के भय को वह भुलाकर जी रही है, वह दूसरे पर प्रकट हो जाने से समक्ष प्रस्तुत हो जायेगा। वह मृत्यु से परिचय नहीं करना चाहती। सेल्मा मृत्यु से अपरिचित रहते हुए जीवंत रूप से अपना बाकी समय व्यतीत करना चाहती है।
मृत्युबोध जैसी विषम स्थिति में सेल्मा की व्यक्तिगत भावना को उपन्यास में चित्रित किया गया है। सेल्मा की मनोभावना पाठक की मनोभावना से सम्बन्ध स्थापित करके, पाठक को पात्र के वस्तुजगत में पहुँचा देती है। वैयक्तिक यथार्थबोध का ऐसा चित्रण व्यक्ति की मानसिकता को समझने में सहायक हो सकता है। साथ ही सेल्मा जैसे पात्र समाज के ऐसे व्यक्ति भी हैं, जो अन्तर्मन की भावनाओं को अपने तक ही सीमित रखते हैं और किसी कारणवश आत्माभिव्यक्ति करने में असमर्थ रहते हैं।
उपन्यास के कथानक में योके का सेल्मा के विरुद्ध निरन्तर संघर्ष चलता रहता है। यह संघर्ष है, सामान्यता का।
“उसके स्वर में जो चिड़चिड़ापन था। उफ़! उससे मुझे कितनी तृप्ति मिली! तो बुढ़िया का वचन भी नीरंध्र नहीं है, कहीं उसमें भी टूट है– कहीं– न कहीं वह भी मृत्यु से डरेगी और रिरियाकर कहेगी कि नहीं, मैं नहीं मरना चाहती। एक प्रबल, दुर्दमनीय उल्लास, एक विजय का गर्व मेरे भीतर उमड़ आया।”
इतने दिनों से घर में रहते हुए योके ने सेल्मा का प्रत्येक क्षण संयत व्यवहार देखा था। मृत्यु के प्रति वह बिल्कुल उदासीन थी। यह बात योके को उद्वेग से भर देती थी। सेल्मा की खीज देख कर उसे लगा कि उसका मन भी हार सकता है। मृत्यु से वह भी डर सकती है। जब उसे आभास होता है कि सेल्मा भी कहीं न कहीं उसकी भाँति व्याकुल और भयभीत है तब उसे संतोष हो जाता है कि उसकी व्याकुलता और भय सही था और वह सामान्य होने का अनुभव करती है जो एक व्यक्ति की सहज प्रवृत्ति है। लेखक ने इस सामान्यता को विजय का नाम दिया है क्योंकि योके की दृष्टि में उसके और सेल्मा के बीच एक संघर्ष चल रहा है जिसे योके जीतना चाहती है।
एक कठिन समय में भी दो प्राणियों की परिस्थिति अपनी– अपनी मनोस्थिति के अनुसार भिन्न–भिन्न हो सकती है। आकस्मिक कारणों से होने वाला मृत्युबोध मनुष्य के लिये अत्यन्त उद्वेग करने वाली परिस्थिति है। ऐसी परिस्थिति से सामना करने का प्रयास करते हुए भी वह उद्विग्न हो जाता है क्योंकि मृत्यु निश्चित ही मनुष्य की सबसे अनचाही चीज है।
अपने अपने अजनबी में मृत्यु का भय सदमे के रूप में भी उपस्थित हुआ है। इस उपन्यास में सदमे के अनुभवों को दो प्रकार से वर्णित किया गया है। पहला सदमे से जीवन पर्यन्त पड़ने वाला मानसिक प्रभाव, दूसरा सदमे से उपजा उन्माद। सदमे से जीवन पर पड़ने वाले प्रभाव के बारे में कैथी कैरथ ने कहा है कि किसी सदमे की कहानी को यदि उसके देर में होने वाले अनुभव के वृत्तान्त के रूप में देखा जाये तो इसे मृत्यु के यथार्थ या उसके संबन्धित प्रभाव से पलायन की अपेक्षा उसके जीवन पर्यन्त पड़ने वाले प्रभाव के रूप में देखा जाना चाहिये।
सदमे के जीवन पर्यन्त पड़ने वाले मानसिक प्रभाव का पहला उदाहरण सेल्मा के बाढ़ में फ़ँसने के वृत्तान्त में परिलक्षित होता है। वैयक्तिक यथार्थबोध का ऐसा चित्रण व्यक्ति की मानसिकता को समझने में सहायक हो सकता है। सेल्मा जैसे पात्रों के रूप में, समाज के ऐसे व्यक्ति हैं, जो अन्तर्मन की भावनाओं को अपने तक ही सीमित रखते हैं, जो किसी घटना के कारण सदमा पहुँच जाने से उस घटना से संबन्धित बातों में अपनी अभिव्यक्ति प्रस्तुत करने में असमर्थ रहते हैं. सदमे के इस दीर्घकालिक प्रभाव का गहरा सम्बन्ध यथार्थ से पलायन से जुड़ा है। बाढ़ की भयंकरता में भी सेल्मा अकेले में स्वयं को सुरक्षित महसूस कर रही थी। उसका व्यवहार असामान्य हो गया था। उसे यह भी आभास हो रहा था कि अकेले रहने पर उसको किसी प्रकार का भय नहीं लगेगा। वह उस परिस्थिति के भय से स्वयं को बचा रही थी। यान और फ़ोटोग्राफ़र के प्रति किसी प्रकार की करुणा या दया का न आना, सेल्मा के अपने अहं को इस घटना के सदमे से बचाने का प्रयास प्रतीत होता है क्योंकि यदि वह उन दोनों के लिये कोई करुणा या दया का भाव मन में लाने देती है तो उसे इस घटना के यथार्थ का बोध करना पड़ता, परन्तु अपने अहं को इस परिस्थिति की भयानकता से बचाने के लिये उसने इस यथार्थ के बोध को ही नकार दिया। इसके परिणाम स्वरूप वह इस स्थिति को कभी अपने अहं से अलग कर पूरी तरह समझ नहीं सकी और सदा एक सदमे से ग्रस्त रही।
सदमे से उपजे उन्माद का उदाहरण सेल्मा की मृत्यु के पश्चात् योके की मनोस्थिति के रूप में सामने आता है। इतने दिनों से सेल्मा के पास मृत्युबोध का आभास योके को उद्विग्न करता था। उदिग्नता में उसे मृत्युगंध का आभास होने लगा था। अब सेल्मा की मृत्यु से उसकी उद्विग्नता इतनी बढ़ गई कि उसका अपने दिमाग पर नियंत्रण नहीं रहा। वह सदमे की अवस्था में पहुँच गई।
मनुष्य जब निरंतर मृत्युबोध से घिरे वातावरण में रहता है और जब उसको इस वातावरण से मुक्ति का मार्ग नहीं दिखाई देता तो यह स्थिति उसके लिये असहनीय हो जाती है। मृत्यु के भय के साथ किसी और की मृत्यु का सामना करना और वह भी ऐसे वातावरण में जहाँ उसे एक मृत शरीर के साथ अनिश्चित अवधि तक रहना है, किसी भी मनुष्य को सदमे में पँहुचा सकता है। अकेलेपन में यह असहनीय अवस्था है जो किसी का मानसिक संतुलन बिगाड़ सकती है।
इस प्रकार मृत्यु के संदर्भ में योके और सेल्मा की विभिन्न वैयक्तिक अनुभूतियों के यथार्थ को उपन्यास में निरंतर उकेरा गया है।
उपसंहार
‘अपने अपने अजनबी’ अज्ञेय जी का वैयक्तिक यथार्थबोध पर आधारित उपन्यास है। इस उपन्यास में योके और सेल्मा अजनबी हैं। अजनबीपन की भावना दोनों पात्रों में से योके के मन में अधिक आती है। वह सेल्मा को समझ पाने में असमर्थ है । इसीलिये उन दोनों में बातें नहीं होती हैं। विपत्ति में मनुष्य किसी न किसी माध्यम से अपने मन का बोझ हल्का करना चाहता है इसलिए योके अपनी भवनाओं को डायरी के माध्यम से व्यक्त करती । योके और सेल्मा में अपरिचय की भावना अंत तक बनी रहती है।
उपन्यास की रचना मृत्यु को केन्द्र में रख कर की गई है। योके के माध्यम से मृत्यु के प्रति भय की भावना प्रत्यक्ष रूप से दिखाई गई है, जबकि सेल्मा का यह भय अप्रत्यक्ष रूप से है। मृत्युबोध के सन्नाटे के साथ उपन्यास का आरंभ होता है और अंत भी मृत्यु के साथ होता है। मृत्युबोध जैसी संवेदना जिसका मनुष्य ने अनुभव न किया हो, उसको व्यक्त करना निश्चय ही एक कठिन कार्य है।
अज्ञेय मानव मन की सूक्ष्म से सूक्ष्म संवेदनाओं को व्यक्त करने में सक्षम हैं। व्यक्ति जो भावनाएँ सहजता से व्यक्त नहीं कर पाता, उनको वह अत्यन्त गहराई से प्रस्तुत कर देते हैं। उनकी संवेदनात्मक दृष्टि मनुष्य के सुख, दुःख, पीड़ा, उदासीनता आदि सभी भावों को इस प्रकार व्यक्त करती है कि उसकी अनुभूति में व्यक्ति आत्मानुभूति प्राप्त करने लगता है। अज्ञेय के रचित पात्रों में एक उदासीनता का आभास होता है। वे उनकी उदासीनता को वाणी देते हैं, जिसमें समाज के ऐसे व्यक्तियों से सापेक्षता प्रतीत होती है जो अन्तर्द्वन्द में फ़ँसे होने के कारण अपने विचारों को व्यक्त नहीं कर पाते।
संवेदनाएँ मनुष्य के व्यक्तिगत यथार्थ का एक अभिन्न अंग हैं। साहित्य में मनुष्य के संपूर्णता के साथ चित्रण के लिये इस यथार्थ को समझना अति आवश्यक हो जाता है। वैयक्तिक यथार्थबोध का साहित्यिक सिद्धान्त इसी चित्रण को और गहराई से समझने और मनुष्य के अन्तर्जगत को पहचानने के लिये महत्वपूर्ण है। वैयक्तिक यथार्थबोध के अन्तर्गत अन्तश्चेतना और व्यक्तिवादी प्रवृत्तियों का समावेश होता है। अन्तश्चेतना में अहं प्रधान होता है। अहं का अर्थ है– अस्तित्व। अन्तश्चेतना के द्वारा स्वानुभूति से ही मनुष्य को वैयक्तिक्तता का बोध होता है। इस बोध को समझने के लिये उपयुक्त वैयक्तिक यथार्थबोध के सिद्धान्त के बिना साहित्यिक विश्लेषण की दुनिया अधूरी है।
(लेखिका परिचय- अमिता चतुर्वेदी ने हिन्दी साहित्य में एम. फिल. की उपाधि प्राप्त की है। यह लेख उनके लघु शोध प्रबंध पर आधारित है। वह ‘अपना परिचय ‘ नामक ब्लॉग पर लिखती हैं।)