रंगलोक नाट्य कोलाज का 'आधे अधूरे' की प्रस्तुति के साथ सफल समापन
साभार: मुदित चतुर्वेदी |
जीवन में छोटी–बड़ी गतिविधियों के बीच भी हम सभी के सिर पर कुछ ऐसे सवाल मंडराते रहते हैं, जिनसे हम हमेशा भागने की कोशिश करते रहते हैं। पर खास बात है कि यही सवाल हमारे जीवन की सभी गतिविधियों, घटनाओं और परिस्थितियों पर ना चाहते हुए भी प्रभाव डालते रहते हैं। अस्तित्ववादी दर्शन में इस परिदृश्य को समझने का प्रयास किया जाता है पर इस मर्म को किसी कहानी में ढालना बेहद कठिन काम है। कुछ चुनिंदा साहित्यकारों ही इस मुश्किल काम को काफी हद तक अंजाम देने में सफल हुए हैं, जिनमें शामिल हैं आधुनिक भारतीय नाटक के एक महत्वपूर्ण स्तंभ, मोहन राकेश।
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मोहन राकेश की एक ऐसी ही कृति, जो जीवन के अबूझ प्रश्नों के जीवन पर पड़ने वाले असर के पेचीदा विषय पर प्रकाश डालने का प्रयास करती है, है उनकी कालजयी रचना ‘आधे–अधूरे’। शुक्रवार को रंगलोक सांस्कृतिक संस्थान द्वारा आयोजित दो–दिवसीय नाट्य कोलाज के दूसरे दिन इस नाटक का, प्रतिष्ठित नाट्य निर्देशक जयंत देशमुख के निर्देशन में, मंचन किया गया। लगभग दो घंटे चले इस नाटक में देश के विभिन्न हिस्सों से आए प्रशिक्षित कलाकारों ने भाग लिया और एक बेहद संजीदा कहानी को अपनी बेहतरीन अदायगी से मंच पर जीवंत कर दिया।
कला-निर्देशन के लिए प्रसिद्ध देशमुख ने ना सिर्फ एक मध्यमवर्गीय घर के दृश्य को मंच परिकल्पना के माध्यम से मंच पर उतारा पर साथ ही उन बारीकियों का भी इतनी सूक्ष्मता से ध्यान रखा कि एक मध्यमवर्ग के जीवन का एहसास भी मंच पर मौजूद रहा। इस परिकल्पना के माध्यम से ही एक विरोधाभास भी प्रस्तुत किया गया। मंच पर सजे दृश्य में किसी आम मध्यमवर्गीय घर की तरह सामान की बहुतायत थी जो हर तरफ बेतरतीब तरीके से रखा और पड़ा हुआ था जिसके समक्ष नाटक के पात्रों के जीवन की रिक्तता और खालीपन उभर कर सामने आ रहा था। यही सूक्षमता मंच पर प्रकाश व्यवस्था में भी दिखाई पड़ी। कहानी के सूत्रधार के आरम्भ में घर की कई लैंप और लाइट जलाने से शुरु हुए इस नाटक में प्रकाश के प्रयोगों द्वारा समय-समय पर यथार्थ, कल्पना और पात्रों के आंतरिक संसार, सभी पहलुओं को उजागर किया जाता रहा।
अभिनय की बात करें तो इन मंझे हुए कलाकारों के लिए सबसे बड़ी चुनौती थी, पूरे माहौल में एक परेशानी और अड़चन की भावना का संचार करना जिसमें नाटक के किरदार अपने-आप को फँसा हुआ महसूस कर रहे हैं। और सभी कलाकारों ने अपने संजीदा अभिनय और बेहतरीन तारतम्य से इस चुनैती को सफलतापूर्वक पार किया। सबसे अधिक उलझन भरा और कठिन किरदार था सावित्री का जिसमें क्रोध, व्याकुलता, छटपटाहट और आकांक्षा के विभिन्न भाव समाहित थे। गरिमा मिश्रा ने अपने सधे हुए अभिनय से इस किरदार की इन सभी भावनाओं के संतुलन को पूरे नाटक में बनाए रखा। साथ ही अंजलि सिंह ने भी अपने किरदार के साथ पूरा न्याय किया। दोनों ही किरदार लगभग पूरे नाटक में निरंतर मौजूद रहे पर बाकि सभी कलाकारों ने भी अपने अभिनय से नाटक को एक संपूर्णता का भाव दिया।
नाटक की विषय-वस्तु अत्यंत संजीदा और क्लिष्ट थी। आम तौर पर साहित्य और विशेषकर नाटकों में समाज और राजनीति की मिमांसा की जाती है पर ‘आधे-अधूरे’ एक ऐसा नाटक है जिसमें आलोचना की दृष्टि परिवार की संस्था पर डाली गई है। पर इस आलोचना की खास बात यह है कि इसमें नीतिबोध को दर्शकों पर थोपा नहीं गया है। व्यक्तिगत आकांक्षाओं और पारिवारिक समीकरणों के बीच का विरोधाभास इस नाटक में बेहद संजीदगी और समझदारी से दिखाया गया है।
देशमुख ने नाटक के अंत में बताया कि जबकि इस नाटक की प्रस्तुति आमतौर पर एक नाट्य समूह द्वारा की जाती है, आगरा में हुई यह प्रस्तुति किसी एक समूह के बजाय, अलग-अलग शहरों से एक जगह पर इकट्ठे किए गए कलाकारों द्वारा की गई। इतने संजीदा नाटक की कुछ दिनों में ही थोड़े समय में तैयारी कर, इतनी सधी हुई प्रस्तुति देना इन सभी कलाकारों और निर्देशन की सफलता रही।
रंगलोक सांस्कृतिक संस्थान के आगरा में नाट्य आयोजन के इस नवीन प्रयोग यानि नाट्य कोलाज के दो दिनों में दो अलग-अलग विधाओं के नाटकों के मंचन से शहर के रंग प्रेमियों को एक नया अनुभव मिला। रंगलोक सांस्कृतिक संस्थान के संयोजक, डिम्पी मिश्रा ने बताया कि आगामी महीनों में रंगलोक समूह द्वारा दो नए नाटकों की प्रस्तुति की योजना भी है।
-सुमित