"जब शहर हमारा सोता है": रंगलोक समूह का उत्कृष्ट मंचन
रंगमंच:14 दिसम्बर को रंगलोक सांस्कृतिक संस्थान ने आगरा के सूरसदन ऑडिटोरियम में प्रख्यात अदाकार, लेखक और कवि – पियूष मिश्रा द्वारा लिखित “जब शहर हमारा सोता है” का मंचन किया। यह नाटक लखनऊ की भारतेंदु नाट्य अकादमी द्वारा रंगलोक सांस्कृतिक संस्थान, आगरा में आयोजित तीस दिन चली कार्यशाला की प्रस्तुति थी जिसका निर्देशन किया है डिम्पी मिश्रा ने।
प्रस्तुति से पहले दर्शकों से मुखातिब भारतेंदु नाट्य अकादमी के निदेशक अरुण कुमार त्रिवेदी ने बताया कि अकादमी द्वारा उत्तर प्रदेश और बिहार के दस चुनिंदा शहरों में यह कार्यशालाएँ आयोजित की जा रही हैं जिनसे यहाँ के उभरते और स्थापित कलाकारों को अपनी प्रतिभा को निखारने और प्रस्तुत करने का मौका मिलेगा।
रंगलोक सांस्कृतिक संस्थान पहले भी नाटकों का उत्कृष्ट मंचन करता रहा है। पर इस मंचन में ध्वनि, मंच व्यवस्था, पटकथा और प्रकाश व्यवस्था के मद्देनज़र पहले से और भी बेहतर प्रस्तुति देखने को मिली। सूरसदन प्रेक्षागृह में हाल ही में हुए ध्वनि और प्रकाश व्यवस्था आदि में सुधारों का नाटक में भरपूर लाभ उठाया गया।
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सबसे पहले जिस बात से ध्यान आकर्षित हुआ वह थी मंच सज्जा जिसमें शहर के किसी आम रास्ते-चौबारे का दृश्य प्रस्तुत किया गया था। परन्तु पारंपरिक तौर से समतल संयोजन के बजाय इसे त्रि-आयामी तरह से तैयार किया गया था जिसके कारण इस दृश्य की विश्वसनीयता और बढ़ गई थी।
यह त्रि-आयामी संयोजन, इमारतों के कट आउट की छाया पीछे की दीवार पर पड़ने से और उभर कर सामने आ रहा था। इमारतों के इस झुरमुट के सामने चल रही कहानी, निरंतरता के बीच लोगों के जीवन के आम और खास क्षणों से दर्शकों का साक्षात्कार करा रही थी।
जहाँ एक ओर मंच परिकल्पना सैद्धांतिक और प्रत्यक्ष रूप से वास्तविकता के आयामों को प्रदर्शित कर रहा था, वहीं प्रकाश और ध्वनि व्यवस्था से नाटक का नाटकीय पक्ष उभर कर सामने आ रहा था। पियुष मिश्रा के ही लिखे गीतों से नाटक में संवेदनाओं को उकेरा गया। संगीत के साथ ध्वनि व्यवस्था ने पूरा न्याय किया।
प्रकाश की बात करें तो सबसे अधिक उपयोग और प्रयोग इसी के द्वारा किए गए। मंच के बिल्कुल बीच स्थित स्ट्रीट लाइट का प्रॉप इस पूरे नाटक का शाब्दिक और मार्मिक अर्थ में केन्द्र बिंदु था। यह स्ट्रीट लाइट किसी आम शहर की किसी आम सड़क का प्रतीक भी था और इस काल्पनिक जगत के समय का भी प्रतिनिधित्व करता था। पर इसके अतिरिक्त भी प्रकाश की कई संभावनाएँ पूरे ही नाटक में तलाशी जाती रहीं। भोर के धुंधलके की प्रतीक नीली रोशनी हो या फिर हिंसा के फलस्वरूप हुए हत्याकांड पर पूरे मंच को रक्त रंजित करता लाल प्रकाश, मुख्य पात्रों के बीच प्रेम को प्रदर्शित करता कोमल प्रकाश या फिर भय, आतंक और क्रोध को चिन्हित करती तीव्र रोशनी, प्रकाश भी इस मंचन का एक बहुआयामी किरदार ही था।
जहाँ प्रकाश, ध्वनि और मंच व्यवस्था ने नाटक का एक रेखाचित्र तैयार कर दिया था वहीं उसमें अपने अभिनय और प्रदर्शन से रंग भरा इसमें शामिल कलाकारों ने। भावनाओं और संवेदनाओं के भंवर में फंसे आम लोगों का काफी हद तक सटीक चित्रण सभी ने किया। हमारे आम शहरों में आवारगी और हालातों के आगे बेचारगी के प्रतीक फनियर और खंजर गैंग जो दो अलग संप्रदाय सी आते हैं, की भुमिकाओं में सभी कलाकार अपने पात्रों के साथ न्याय करने में सफल रहे। (यहाँ सभी कलाकारों का नाम लेना शायद संभव न हो सके।)
मुख्य भुमिकाओं में प्रखर सिंह जो फनियर गैंग के मुखिया विलास का पात्र निभा रहे थे और खंजर गैंग के लीडर, असलम की भुमिका में विक्रम सागर क्रोध और वैमनस्य की आग को निरंतर भड़काने वाले तत्वों के रूप में प्रामाणिक रहे। वहीं इस पूरी कहानी में संयम और धैर्य की आवाज़ बनी किरदार, तबस्सुम की भूमिका में आकृति सारस्वत ने भरपूर न्याय किया। रोमियो जूलियट सरीखी प्रेम कहानी के प्रेमी जोड़े की भुमिकाओं में जूही सिंह ने तराना का किरदार निभाकर और आभास का किरदार निभा हर्ष महेरे ने दर्शकों को निश्छल प्रेम और दर्द भरे अंत का सटीक अनुभव कराया। पर साथ ही हर्ष ने अपने किरदार के बहुआयामी चरित्र के साथ भी न्याय किया। सबसे उल्लेखनीय रहा उनका अभिनय उस दृश्य में जहाँ दोनों गुटों में बीच बचाव करते करते उनके हाथों से ही एक पात्र का कत्ल हो जाता है। यहाँ उनके भावों में भरपूर विविधता देखने को मिली और दर्शकों में pathos जगाने में वह बेहद सफल रहे।
कलाकारों के माध्यम से प्रयोग की बात करें तो दोनों गुटों की मुठभेड़ के दौरान मंचित एक नृत्य एक महत्वपूर्ण अल्पविराम रहा।
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पूरा ही नाटक प्रस्तुतिकरण के हर मायने से कुछ अलग करने की एक ललक से ओतप्रोत था। एक साधारण कहानी जो कई बार कही सुनी जा चुकी है, को आकर्षक और रुचिकर बनाए रखने में इसमें हुए प्रयोगों का महत्वपूर्ण योगदान रहा। निर्देशक के तौर पर डिम्पी मिश्रा का बारीकियों पर ध्यान सराहनीय था।
निर्देशन, निर्माण और भूमिकाओं को देखते हुए लगता है कि रंगलोक आगे और भी कठिन और प्रयोगात्मक विषयों के नाटक चुनने की काबिलीयत रखता है। पर यह भी सच है कि नाटक करना जैसे सीखा जाता है, वैसे ही नाटक देखना भी सीखना पड़ता है। नाटक देखना संयम, धैर्य और संवेदनशीलता की परीक्षा है जिसे अभी भी आगरा शहर के कई दर्शकों को समझना आवश्यक है। ऐसे में इस पहले भी कही हुई कहानी को बेहद रोचक ढंग से पेश करना इस समूह की चतुराई भी है और उपलब्धि भी।
– सुमित