हिन्दी धारावाहिकों पर आलोचनात्मक पत्रकारिता का अभाव
दोपहर के एक या दो बजे के समय अगर आप कोई भी जाना-माना हिन्दी समाचार चैनल (एक दो को छोड़कर) चलाएंगे तो इसकी कम ही संभावना है कि आपको उस पर कोई समाचार देखने को मिलेगा। इन सभी चैनलों पर इस समय एक खास कार्यक्रम प्रसारित होता है जिसका पूरा केन्द्र हिन्दी धारावाहिक होते हैं। अधिकांश कार्यक्रमों का नाम भी एक जैसा होता है जिसमें मुख्यत: सास और बहु शब्दों का प्रयोग होता है। ये नाम इस अवधारणा को पक्का करते हैं (कम से कम ऐसा प्रयास तो करते ही हैं) कि हिन्दी धारावाहिकों का अभिप्राय अब सिर्फ सास-बहु से है फिर चाहे कथा-वस्तु की बात हो या फिर उसे देखने वाले दर्शकों की।
इन कार्यक्रमों में धारावाहिकों की कहानियों में होने वाले नए बदलावों के बारे में जानकारी दी जाती है। (ये अलग बात है कि शायद ही किसी धारावाहिक की कहानी में कोई बदलाव देखने को मिलता है।) साथ ही इन कार्यक्रमों में धारावाहिक-जगत के प्रमुख सितारों के साक्षात्कार होते हैं। इन साक्षात्कारों की खास बात है कि इसमें बातचीत करने वाले कलाकार पूरी तरह से अपने द्वारा निभाए जाने वाले पात्रों के रूप में ही बोलते हैं। यानी धारावाहिक की कहानी में पात्र को लेकर क्या चल रहा है यह जानकारी वह पात्र के रूप में ही बताते हैं ना कि एक कलाकार के रूप में जो उस किरदार को निभा रहा या निभा रही है। और ऐसा नहीं है कि साक्षात्कार देने का यह तरीका सिर्फ एक या दो कलाकारों द्वारा अपनाया जाता है बल्कि कई कलाकार इसी तरह से साक्षात्कार देते हुए नजर आते हैं। इसके पीछे संभवत: यह विश्वास होता है कि दर्शक अपने पसंदीदा किरदारों को काल्पनिक ना मान कर उनको निभा रहे अदाकारों को उन चरित्रों से अलग करके नहीं देख पाते हैं। यदि यह प्रणाली वास्तविकता में किसी प्रकार के अनुभव या अवलोकन पर आधारित है तो दर्शकों की सोच के लिए यह एक चिंताजनक बात है अन्यथा यह धारावाहिकों पर हो रही पत्रकारिता कि वर्तमान स्थिति के लिए बेहद निराशाजनक है।
पर इसके अलावा भी हिन्दी धारावाहिकों पर हो रही पत्रकारिता का स्तर अत्यंत खेदजनक है और मौजूदा हिन्दी धारावाहिक की स्थिति और स्तर के लिए काफी हद तक उत्तरदायी भी है। सांस्कृतिक गतिविधियों और संस्कृति भी पत्रकारिता का एक अहम हिस्सा है जो सामाजिक और राजनैतिक चर्चा और गतिविधियों पर भी प्रभाव डालता है। धारावाहिकों के प्रचलन वाले सभी समाजों में प्रमुख अखबार, ऑनलाइन पत्रिकाएँ आदि इन धारावाहिकों पर निरन्तर टिप्पणी और चर्चा करते हैं। उदाहरण के तौर पर अमेरिका में, जहाँ टीवी धारावाहिकों का उद्योग आज भी बेहद महत्वपूर्ण है, लगभग सभी प्रमुख पत्रकारिता के माध्यम लोकप्रिय धारावाहिकों पर ना सिर्फ लगातार नज़र बनाए रखते हैं बल्कि उनकी विषय-वस्तु, कहानी और प्रस्तुति की वैचारिक, सामाजिक और राजनैतिक पक्षों को ध्यान में रखते हुए मिमांसा भी करते हैं। साथ ही इन धारावाहिकों का तकनीकी रूप से विश्लेषण भी किया जाता है। यहाँ तक कि जो धारावाहिक वैश्विक रूप से प्रसिद्ध और लोकप्रिय हो जाते हैं उन पर गहन परिचर्चाएँ भी होती हैं जिनमें पक्ष और विपक्ष दोनों ही अपने-अपने मत सामने रखते हैं।
अब इस स्थिति को हिन्दी धारावाहिकों पर पत्रकारिता की स्थिति के साथ मिलाकर देखिए और आपके हाथों निराशा ही हाथ लगेगी। जहाँ टीवी पत्रकारिता का हाल, जैसे कि पहले ही बताया गया, बेहद खराब है, प्रिंट में भी धारावाहिकों पर कोई चर्चा देखने को नहीं मिलती है। यह लाज़मी भी है क्योंकि टीवी और प्रिंट पत्रकारिता में वाणिज्यिक मूल्यों को इतना महत्व दिया जाने लगा है कि सांस्कृतिक परिवेश से जुड़े सूक्ष्म पहलुओं पर इन माध्यमों द्वारा ध्यान दिए जाने की अपेक्षा करना व्यर्थ ही लगता है। ऐसे में तेज़ी से उभरती हुई ढेरों ऑनलाइन पत्रिकाओं से यह आशा की जा सकती थी कि वे धारावाहिकों के सामाजिक-सांस्कृतिक प्रभावों पर ध्यान देने का प्रयास करेंगी। पर अधिकांश लोकप्रिय ऑनलाइन पत्रिकाओं में भी इस ओर ध्यान नहीं दिया गया।
ऑनलाइन पत्रिकाओं में जहाँ कई ऐसे अनछुए विषयों पर लेख लिखे जाते रहते हैं जो आपको मुख्यधारा के कई समाचार चैनलों और समाचार पत्रों में देखने को नहीं मिलते, धारावाहिकों पर एक व्यापक चर्चा का अभाव क्यों है इस पर ध्यान देना आवश्यक है। जहाँ हिन्दी फिल्मों की कहानी, विषय-वस्तु, तकनीक आदि पर कई समीक्षक लेख लिखते रहते हैं, टीवी जैसे माध्यम, जिसकी पहुँच फिल्मों से कहीं अधिक है, पर ध्यान ना देना सामाजिक-सांस्कृतिक दृष्टिकोण से तर्कसंगत नहीं लगता। यह सच है कि फिल्में वाणिज्यिक रूप से अधिक महत्वपूर्ण होती हैं पर टीवी का सामाजिक और व्यापारिक मूल्य भी कम नहीं है। लाखों घरों में करोड़ों लोग टीवी देखते हैं। इन पर लोकप्रिय होने वाले धारावाहिकों के अंतराल में बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ तक विज्ञापन प्रस्तुत करने के लिए आतुर होती हैं। यहाँ तक कि अब तो कुछ फिल्मी सितारे भी इन धारावाहिकों में उपस्थित होकर अपनी आने वाली फिल्मों का विज्ञापन करते नज़र आते हैं।
अधिक घरों में दिखने के कारण ही धारावाहिकों का सामाजिक महत्व भी बढ़ जाता है। यह सच है कि हिन्दी धारावाहिकों की स्थिति इस कदर खराब हो चुकी है कि इनमें दिए जाने वाले सामाजिक, वैचारिक और राजनीतिक रूप से हानिकारक संदेशों की आलोचना करने का काम एक बड़े पहाड़ के समान प्रतीत होता है, जिस पर चढ़ना कैसे शुरु करना है समझ नहीं आता है। साथ ही साप्ताहिक होने के बजाय दैनिक कार्यक्रम होने के कारण इनकी कहानियों की निरंतर समीक्षा करना एक कठिन कार्य है। पर धारावाहिकों की वर्तमान स्थिति पर एक सामयिक व्यापक चर्चा भी किसी भी प्रकार के पत्रकारिता के माध्यम पर अनुपस्थित है।
क्या इसका कारण यह धारणा है कि इन धारावाहिकों के दर्शक वर्ग में अधिकांशत: महिलाएँ होती हैं और महिलाओं की इस देश में राजनीतिक और आर्थिक भूमिका सीमित है इसलिए धारावाहिकों का कोई भी प्रभाव सामाजिक-राजनीतिक रूप से उतना महत्वपूर्ण नहीं है? आज यदि पारिवारिक धारावाहिकों में रूढ़िगत मानसिकता ही दिखाई देती है या फिर अधिकांश चैनलों पर पौराणिक धारावाहिक ही दिखाई पड़ते हैं और इस व्यवस्था पर पत्रकारिता में कोई आलोचनात्मक चर्चा नहीं है तो पत्रकारिता ने भी इन धारावाहिकों के एक बहु-संख्यात्मक दर्शक-वर्ग को उनके हाल पर छोड़कर उनके साथ अन्याय ही किया है।
धारावाहिकों की स्थिति हमेशा ऐसी नहीं थी। 80 के दशक के उतरार्ध में शुरु हुए हिन्दी धारावाहिकों में एक समय ना सिर्फ बड़े-बड़े फिल्मकार, कलाकार और कहानीकार योगदान दे रहे थे, बल्कि साहित्यिक जगत से भी इनकी कहानियों के लिए प्रेरणा ली जा रही थीं। समय के साथ जैसे-जैसे हिन्दी धारावाहिकों की स्थिति बदली ये रचनात्मक और बौद्धिक सरोकारों से दूर होते गए। अब एक जैसे चमक-धमक और शोर-शराबे वाले धारावाहिकों का दौर है। पर सांस्कृतिक विषयों पर लिखने और सोचने वाले वर्ग ने ना सिर्फ इस नए चलन पर अधिक ध्यान नहीं दिया बल्कि पुराने उत्कृष्ट, प्रयोगात्मक और जटिल विषयों पर आधारित धारावाहिकों को खंगाल कर भी नहीं देखा। आज हिन्दी धारावाहिकों पर होने वाली पत्रकारिता और हिन्दी धारावाहिकों की जो स्थिति है उसके लिए संभवत: हमारी समीक्षात्मक दृष्टि में निहित एक भेदभाव की भावना उत्तरदायी है।