अभिव्यक्ति में संभावनाएँ: ‘रंगलोक’ समूह द्वारा ‘जाति ही पूछो साधू की’ नाटक का मंचन।

छवि (साभार): मुदित चतुर्वेदी

प्रस्तावना: किसी भी सामाजिक आलोचना में बहुत सम्भावनाएँ  छुपी होती हैं।  कला के माध्यम से की गई सामाजिक आलोचना और भी महत्वपूर्ण हो जाती है क्योंकि यह व्यापक रूप से समाज में कई सन्देश पहुंचाती है।  20 फरवरी 2015, को सूरसदन ऑडिटोरियम में  रंगलोक सांस्कृतिक संस्थान द्वारा “जाती ही पूछो साधू की” का ताज महोत्सव के अंतर्गत सफल मंचन ऐसी ही कला प्रस्तुति का एक उदाहरण था।  नाट्य कला का कोई गहरा ज्ञान होने का दावा किए बिना इस नाटक की एक समीक्षा प्रस्तुत करने की ज़ुर्रत इस लेख में की गई है पर साथ ही कलात्मक अभिव्यक्ति के सामाजिक दायित्व पर कुछ ईमानदार टिप्पणी भी इसमें शामिल हैं।

 किसी भी नाटक का अच्छा मंचन न केवल मनोरंजक होता है पर रोमांचकारी भी। अगर कलाकारों का अभिनय और नाटक का निर्माणनिर्देशन फीका हो तो नाटक के आगे बढ़ते बढ़ते ही दर्शकों की रुचि उसमें कम होती जाती है। पर अगर अभिनय, निर्देशन आदि सब कसा हुआ हो तो प्रस्तुति में रुचि तो बनी ही रहती है पर साथ ही रोमांच भी बना रहता है कि कहीं कोई अभिनेता संवाद भूल न जाए, मंच पर कोई प्रॉप धोखा ना दे जाए या फिर प्रकाश या ध्वनि व्यवस्था में कोई गड़बड़ न हो जाए। यानि एक अच्छे मंचन में कलाकार की धड़कन तेज़ हो न हो, पर निष्ठावान दर्शक की ह्रदय गति अवश्य तेज़ होती है कि एक अच्छी प्रस्तुति की जिस सुखद यात्रा पर वह निकले हैं वह अंत तक अच्छी ही बनी रहे और ट्रेन पटरी से उतर न जाए।

ताज महोत्सव के तीसरे दिन, 20 फरवरी को आगरा के सूरसदन ऑडिटोरियम में आयोजित नाटकजाति ही पूछो साधु की” ने लगभग तीन घंटो की ऐसी ही यात्रा का बन्दोबस्त कर दिया। यह नाटक मूल रूप से मराठी भाषा में प्रसिद्ध नाटककार विजय तेंदुलकर द्वारा लिखा गया है, जिसके वसन्त देव द्वारा किए गए हिंदी रूपान्तरण को रंगमंचथिएटर ग्रुप ने डिम्पी मिश्रा के कुशल निर्देशन में मंचित किया।
 
इस यात्रा को शुरु से लेकर उसके अंजाम तक पहुँचाने में एक बहुत बड़ा हाथ रहा कलाकार जितेंद्र रघुवंशी का, जिन्होंने महिपत बभ्रुवान की मुख्य भुमिका निभाई। सात बजकर चालीस मिनट पर शुरु हुए नाटक में जितेन्द्र ने पहला ब्रेक, वह भी सिर्फ चंद मिनटों का, आठ बजकर अड़तीस मिनट पर लिया और फिर नाटक के अंत तक मंच पर डटे रहे। हालांकि नाटक सामाजिक व्यंग्य और यथार्थ पर हास्य लिए हुआ था पर साथ ही इसमें काफी फिज़िकल कॉमेडी भी शामिल थी। इतनी देर तक अपने संवादों को पूरे जोश से बोलना और साथ ही लगभग तीन घंटों में कई हास्यास्पद स्थितियों में अपनी पूरी ताकत से किरदार निभाने के लिए बहुत स्टैमिना चाहिए जिसकी जीतेंद्र में कोई कमी नही प्रतीत होती थी। मंच पर उनकी लगातार मौजूदगी वाजिब भी थी। महिपत के जिस किरदार को वह निभा रहे थे वह न सिर्फ नाटक का मुख्यपात्र था बल्कि सूत्रधार भी।
 
जाति व्यवस्था पर टिप्पणी करता हुआ यह नाटक महिपत की कहानी बयान करता है जिसमें गाँव के परिवेश से निकला, वह अपनी जाति का पहला परास्नातक लड़का है और अब नौकरी की जद्दोजहद में फंसा हुआ है। छोटी जाति का होने के कारण, महिपत अपनी जाति के बिल्ले से जितना चाहे पीछा छुड़ा ले, यह बिल्ला उसका पीछा नही छोड़ता और बार बार उसके नौकरी पाने के रास्ते में बाधा बन खड़ा हो जाता है। नाटक में साथ ही रूढ़िवादी और सामंतवादी सामाजिक व्यवस्था पर भी कटाक्ष किया गया है। समाज में आधुनिक सोच लाने के लिए ज़िम्मेदार माने जाने वाले उच्च शिक्षा संस्थानों की बागडोर गाँव देहात में आज भी सामंती व्यवस्था के ठेकेदारों के हाथ में होने की हास्यास्पद स्थिति को नाटक में खूब उजागर किया गया है। 
 
जातीयता, भाई-भतीजावाद, पितृसत्ता आदि की भावनाओं से ओतप्रोत लोगों के हाथों में यदि नौजवानों का भविष्य होगा तो उनकी सोच का विकास किस दिशा में होना स्वाभाविक है, इस विषय पर मुख्यधारा सिनेमा और अन्य मनोरंजन के साधन भले ही चुप हों पर यह नाटक इस बेहद महत्वपूर्ण विषय पर अवश्य प्रकाश डालता है।
 
इस कार्य को करने के लिए जो सबसे आवश्यक शर्त है वह है गाँव और देहात के परिदृश्य का प्रामाणिकता से चित्रण। इस कसौटी पर यह मंचन बखूबी खरा उतरा है। आगरा शहर जो कि उत्तर प्रदेश के ब्रज क्षेत्र का प्रमुख हिस्सा है वहाँ गाँव के लोगों का विश्वसनीय चित्रण बिना ब्रज की बोली की पकड़ के मुश्किल है। पर गौरतलब है कि ब्रज के अलावा उत्तर प्रदेश के अन्य ग्रामीण आंचलिक हिस्सों की बोली और संस्कृति का भी मंचन में प्रभाव दिखता है जो इसे और भी प्रासंगिक बना देता है। बोली के शब्दों, उतार चढ़ाव और अन्य बारीकियों पर कलाकारों की पकड़ काबिले तारीफ है और साथ ही एक अच्छे निर्देशन की पहचान भी। यहाँ ग्रामीणों की भूमिकाओं में रोहित चौहान, जितेन्द्र कोशिक, दक्ष यादव, रंजीत गुप्ता और विद्यार्थियों की भूमिकाओं में अगम आधार सिन्हा, सागर गुप्ता, अमित सौनी, शिक्षांत राजवंश और रोहित राठोर का अहम योगदान रहा जिन्होंने समय समय पर अपने अभिनय से ग्रामीण माहौल का कुशल चित्रण किया जिसे दर्शकों ने काफी सराहा भी।
 
सामंती मूल्यों का चित्रण सबसे अधिक सरपंच और उनके बेटे बबना के प्रसंगों के माध्यम से हुआ। सरपंच की भूमिका में भानू प्रताप विश्वकर्मा और बबना के किरदार में हर्ष महेरे ने गाँव में दबंगई के माहौल का चित्रण बेहद मनोरंजक पर साथ ही विश्वनीय रूप से किया है। अक्सर हास्य व्यंग्य कथानकों में इस प्रकार के किरदारों की भूमिका सिर्फ हंसी ठिठोली तक सीमित रह जाती है पर इस प्रस्तुति में हास्य, व्यंग्य पर हावी नही हुआ और इसके लिए निर्देशक और कलाकार दोनों ही बधाई के पात्र हैं। फिर भी यदि कुछ दर्शकों ने इनमें सिर्फ हंसने के मौके ढूँढे और इन पात्रों के माध्यम से गाँव या पिछड़े इलाकों में दबंगई के कारण सामाजिक, शैक्षिक ढांचों के पतन को नही समझ सके तो यह भले ही दुर्भाग्यपूर्ण रूप से ही पर मौजूदा स्थिति में नाटक की सार्थकता को उजागर करता है।
 
सामाजिक आलोचना और आदर्शवाद में विश्वास करने वालों की दुविधा हमेशा यह रहती है कि न तो उनका काम कभी समाप्त होता है और न ही वे अपने आदर्शों के ऊँचे मापदंडों से कभी खुद ही बच पाते हैं। साथ ही सामाजिक यथार्थ की आर्थिक और व्यवहारिक चुनौतियों का सामना भी उन्हें करना पड़ता है। ईश्वर भाई का किरदार, जिसे विक्रम सागर ने बखूबी निभाया है, ऐसे ही एक आदर्शवादी स्टीरियोटाइप का उदाहरण है जो हमेशा कोई तीखा, चुभने वाला संपादकीय लिखता रहता है और आर्थिक तंगी के कारण कभी नियमों के कारण तो कभी कंजूसी के चलते महिपत की मदद करने से इन्कार कर देता है पर फिर भी अतिआवश्यक मौकों पर उसे कभी निराश नही करता। 

महिपत भी आदर्शों का मारा किरदार है। पढ़ लिख जाने और रूढ़ियों आदि में विश्वास कम हो जाने के कारण वह अपने आप को गाँव के माहौल में सहज नही पाता है और वहीं शहर में महँगी व्यवस्था उसकी कमर तोड़े रहती है। महिपत अपने आदर्शों पर अंत तक टिके रहना चाहता है पर मुश्किल से मिली नौकरी को खतरे में जान उसे निरंतर अपने आदर्शों से समझौते करने पड़ते हैं फिर चाहे वह क्लास में सरपंच के बिगड़े हुए लड़के बबना को काबू में करने के लिए गाँव की गवंई और दबंग भाषा और व्यवहार को अपनाना हो या फिर अपनी नौकरी के लिए सरपंच की भतीजी नलिनी से खतरा भाँप उसे अपने प्यार में फंसा कर अपना रास्ता साफ करना ही। खास बात यह है कि ऐसे मौकों पर इंसान हमेशा ही अपने मन में अपने किए समझौतों के लिए तर्क देता रहता है। महिपत का समय समय पर दर्शकों से ऐसा संवाद यही मनोदशा दिखाता है।
 
खास बात यह है कि अक्सर नलिनी जैसे महिला पात्र किसी भी फिल्म या नाटक में एक वस्तु बनकर रह जाते हैं। यानि कहानी में उनके साथ घटनाएँ घटती जाती हैं पर उनमें उनके आंतरिक या बाहरी यथार्थ का चित्रण माकूल तौर पर नही होता। पर यहाँ यह नाटक एक सुखद आश्चर्य देता है। नलिनी का किरदार झाँसे में आ सकने वाली एक गाँव की गंवार लड़की का भले ही हो पर कथानक में उसकी मजबूत उपस्थिति है। ऐसे में नलिनी का किरदार निभाने वाली गरिमा मिश्रा का उत्कृष्ट अभिनय इस पात्र को मंचन में और भी मजबूती प्रदान करता है। भले ही नाटक में उनका प्रवेश देर से हुआ हो पर मनोरंजन और पात्र परिकल्पना, दोनों के ही तहत वह तुरंत नाटक का एक बेहद ज़रूरी हिस्सा बन जाती हैं। नलिनी गाँव की एक सीधी सादी लड़की है जो पारिवारिक पहुँच से कॉलेज में नौकरी पा तो लेती है पर साथ ही परिवार की अनेक बंदिशों में फंसी भी रहती है। 

इस किरदार पर गरिमा ने अपनी पकड़ बनाई या फिर किरदार ने उन पर यह कहने में कठिनाई ही बताती है कि उनका अभिनय कितना दमदार रहा। खास कर जब अपने परिवार द्वारा महिपत के खिलाफ जातिवादी और रूढ़िवादी तर्कों से भड़का दिए जाने पर नलिनी उससे अपना रिश्ता तोड़ती है, तब जितेंद्र की असाहायता और गरिमा का एक मशीनी ढंग से एक साँस में बेहद लंबा संवाद बोलना नाटक को एक तरफ हास्यास्पद बना देता है तो दूसरी तरफ इस स्थिति में छुपे व्यंग्य और दु:ख को बहुत गहराई से उजागर भी करता है। ऐसे दृश्य और उनका सटीक चित्रण कहानी और मंचन, दोनों ही की परिपक्वता दिखाते हैं।
 

साथ ही यह भी कहना होगा कि सभी पात्रों की आपस की कैमिस्ट्री लाजवाब थी। फिर चाहे वह बबना और महिपत की गुरु और चेले के दो दो हाथ वाली स्थिति हो या फिर सरपंच और महिपत के बीचमरता, क्या न करतावाले मौके। या फिर पूतना कही जाने वाली सरपंच की साली के किरदार में रितु अग्रवाल का सब पर कहर बरपाना।  सौरभ चतुर्वेदी, राहुल गुप्ता, रूबी चौधरी, दुर्गेश प्रताप सिंह, अकाश कुमार, प्रकृति अग्रवाल और शैली शर्मा  की सहायक  भूमिकाओं के बिना यह प्रस्तुति सफल नहीं हो सकती थी। 

 
प्रकाश, मंच परिकल्पना  और ध्वनि के मद्देनज़र पूरा नाटक ही मजबूत था जिसका श्रेय पूरी तरह से मंच के पीछे तकनीकी टीम को जाता है। महाभारत की तर्ज पर महिपत और बबना के बीच कृष्ण और अर्जुन की बाबत संवाद नाटक की एक हाइलाईट थी जिसमें बैकग्राउंड लाइट का बेहतरीन इस्तेमाल किया गया। महाभारत धारावाहिक का संगीत सुनते ही दर्शकों ने ठाहाका लगाया। इस प्रकार के कई आधुनिक प्रसंगों ने नाटक को वर्तमान मनोरंजन परिदृश्य और आजकल की हास्य चेतनता से जोड़ने की कोशिश की जो अधिकाँश मौकों पर सफल रहा
अंत में नाटक के संदेश पर एक टिप्पणी आवश्यक है। सामाजिक आलोचना की बात को फिर से आगे उठाते हुए यह कहा जा सकता है कि किसी भी प्रकार की सामाजिक आलोचना करने वालों को अपने आप को भी उसी चश्मे से देखना चाहिए जिससे वह समाज को देखते हैं। यह बात कला के माध्यम के लिए और भी आवश्यक हो जाती है क्योंकि इस के माध्यम से यह आलोचना समाज में व्यापक रूप से पहुँचाई जाती है। इस नाटक में बार बार फूहड़ता की कड़ी आलोचना की गई है और साथ ही इसके सामाजिक परिवेश में इस्तेमाल होने के पीछे ढांचागत वजह भी बताई गईं हैं। स्त्री विरोधी हिंसा का एक अंग उनके खिलाफ या उनको निशाना बनाने वाले अपशब्द और गालियाँ भी होती हैं। नाटक में कई जगह इस बात को रेखांकित किया गया है। इन गालियों पर दर्शक भले ही लुत्फ उठा रहे थे पर इस प्रस्तुति ने अपनी सामाजिक ज़िम्मेदारी निभाते हुए स्त्री पारिवारिक संबंध सूचक गालियों पर गहरा कटाक्ष किया है। पर इस आलोचना की भी एक सीमा प्रतीत होती है। इस आलोचना का समस्त स्त्री जाति के परिवेश में अभाव देखने को मिला। कई जगह एक विशेष गाली का प्रयोग किया गया जिसका प्रचलित भाषा में किसी को बेवकूफ या मूर्ख के रूप में संबोधित करने का प्रयोजन होता है। यह गाली विशेष रूप से स्त्री अंग के संदर्भ में दी जाती है और इसका अभिप्राय होता है कि मूर्खता स्त्री जाति की स्वाभाविक विशेषता है। इस अपशब्द का समय समय पर पात्रों की स्वाभाविक प्रतिक्रिया या फिर मुख्य पात्र की मनोदशा अभिव्यक्त करने के लिए प्रयोग किया गया। इससे बचा जा सकता था और यह प्रस्तुति की इस प्रकार की अन्य गालियों की आलोचना को और बल ही देता।
 
अपशब्द या सामाजिक रूप से गलत माने जाने वाले व्यवहार को यदि सामाजिक नीतिबोध का, जो कि अधिकाँश तौर पर दोहरे मापदंड लिए होता है, विरोध करने के लिए किया जाए तो वह तर्क संगत होता है। परन्तु उन सामाजिक प्रवृत्तियों को और मजबूती देना जो किसी उपेक्षित वर्ग को निशाना बनाती हों कला के उचित दायित्व को नही निभाना है।
 
एक अलग सामाजिक परिवेश में फिट बैठने के लिए अपने को बदलने की महिपत की मजबूरी एक वास्तविक व्यवहारिक स्थिति है जो कई लोगों के सामने आती है। यह संयोग ही है कि दर्शक दीर्घा में ऐसे कई सज्जन थे जो अपशब्दों के प्रयोग पर बहुत खुश थे पर उनके पीछे नाटक के संदेश को समझने में संभवत: असफल थे। डिम्पी मिश्रा ने नाटक के अंत में एक सरहानीय बात कही कि उनका औचित्य शहर का माहौल बदलना है। रंगमंच कला को शहर में बढ़ावा देकर उन्होंने यह पहल भी की है। आशा है कि वह और उनकी मंडली अपने नाटकों के माध्यम से मनोरंजन के प्रभावशाली सामाजिक उपकरण का इसी प्रकार उचित उपयोग करते रहेंगे और शहर के माहौल को और समावेशी और अहिंसात्मक बनाने का प्रयास करेंगे।

 

-सुमित चतुर्वेदी  

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