विभाजन की त्रासदी से रूबरू कराता ‘जिस लाहौर नई वेखया, ओ जमिया ही नई’ नाटक का रंगलोक द्वारा मंचन
भारत–पाकिस्तान का विभाजन एक ऐसी मानव–निर्मित त्रासदी है जिसने इतिहास के सबसे बड़े मानव–विस्थापनों में से एक को जन्म दिया। जहाँ एक औपनिवेशक महाशक्ति ने बड़ी आसानी से एक वतन के दो टुकड़े कर दो मुल्कों को जन्म दे दिया, वहीं उनके इस कदम से कितने शहर और कितनी ज़िंदगिंयाँ उजड़ गईं इसका आँकड़ों में हिसाब लगा पाना भले ही मुमकिन हो पर इससे पहुँचे मानसिक सदमों और संबंधों को पहुँचे आघातों का हिसाब लगा पाना मुश्किल है। पारस्परिक संबंधों और संवेदनाओं पर हुए विभाजन के असर पर आज तक अमूमन साहित्य में ही ध्यान दिया गया है। हालांकि सामाजिक–राजनीतिक विमर्श भी अब ऐसे साहित्य पर आलोचनात्मक दृष्टि डालने लगे हैं और इसलिए ऐसे साहित्य को एक प्रकार के सामाजिक–राजनीतिक दस्तावेज़ के रूप में देखा जाने लगा है।
प्रसिद्ध साहित्यकार डॉ असगर वजाहत द्वारा लिखित नाटक ‘जिस लाहौर नई देखिया, ओ जमिया नई’, विभाजन पर आधारित एक ऐसी ही कृति है जो इस त्रासदी के एक शहर और उसके बाशिंदों पर हुए अपरिमेय आघात को वर्णित करने का प्रयास करता है। इस शनिवार को आगरा के रंगलोक सांस्कृतिक संस्थान ने सूरसदन प्रेक्षागृह में इस नाटक का मंचन किया और आगरा के रंगप्रेमियों को विभाजन के एक किस्से से रूबरू करवाया। नाटक की कहानी अपने–आप में बेहद दिलचस्प है। सरकारी हुक्मरानों के फैसले से उपजे विभाजन को अमलीजामा पहनाने वाले सरकारी महकमों की गलती के कारण लाहौर के एक मौहल्ले में स्थित एक ऐसे घर, जिसे उसमें रहने वाला हिंदु परिवार छोड़कर भारत चला गया, में पीछे रह चुकी उस परिवार की एक बुज़ुर्ग महिला के रहते हुए भी भारत से आए एक मुसलमान परिवार को रहने के लिए दे दिया गया। इस मुसलमान परिवार के इस बुज़ुर्ग हिंदु महिला के साथ दुराव से लेकर उनके ही नहीं बल्कि उनके साथ–साथ लगभग पूरे नए बसे मौहल्ले का इस महिला के साथ एक आत्मीय संबंध स्थापित होने के सफर को ही बयान करती है यह कहानी।
बिछड़े स्वजनों की यादें, हिंसा से साक्षात्कार का लोगों के मानस पर दुष्प्रभाव, विभाजन जैसी कृत्रिम घटना का मनुष्यों के नैसर्गिक जीवन और संबंधों पर असर, इस नाटक में विभिन्न पेचीदा और संजीदा पहलू हैं, जिनका एक छोटे से समीक्षा–लेख में उल्लेख करने का प्रयास व्यर्थ है। पर एक पहलू जिसका उल्लेख करना आवश्यक है वह इस नाटक की मौजूदा समय में प्रासंगिकता। किसी भी समय में किसी समस्या पर लिखे गए साहित्य का काफी समय के बाद प्रासंगिक रहना यही दिखाता है कि हम आज भी उस समस्या से जूझ रहे हैं। नाटक में चित्रित उस मौहल्ले की कहानी जहाँ एक साधारण परंतु विधर्मी महिला की मौजूदगी मात्र कुछ लोगों को फूटी आँख नही सुहाती और उसके चलते वे हिंसा की हदें पार करने को तैयार हो जाते हैं, शायद आज के सामाजिक परिप्रेक्ष्य और समय में बेहद सटीक बैठती है। हालांकि नाटक की पृष्ठभूमि विभाजन में अलग हुए लोगों के सिर्फ एक समृद्ध हिस्से पर केन्द्रित थी, पर इस तरह की प्रस्तुति से हमें एक मौका मिलता है कि हम उन लोगों की भी कहानी को भी एक बार याद करने का प्रयास करें जो इस समृद्ध वर्ग में नहीं आते थे और जिन पर विभाजन की, संवेदनात्मक और भौतिक रूप में दोहरी मार पड़ी थी।
ऐसे समय में जहाँ सामाजिक विमर्श, असहनशीलता की निरन्तर भेंट चढ़ रहा हो, वहाँ रंगलोक समूह का ऐसी कहानी को बयान करना ना सिर्फ इस नाट्य समूह की सामाजिक चेतना का परिचायक है बल्कि उनके साहस को भी उजागर करता है। सामाजिक वैमनस्य और खासकर हिंदु–मुस्लिम संबंधों को लेकर आज के राजनीतिक परिदृश्य में जिस प्रकार की राजनीति हो रही है, वहाँ यह प्रस्तुति एक महत्वपूर्ण संवाद की पहल करने का काम करता है जिसकी आज के समाज को बेहद आवश्यकता है।
नाट्य प्रस्तुति की ही बात करें तो यह मंचन एक यथार्थवादी चित्रण था जिसे मंच पर ही मौजूद संगीत और गीत व्यवस्था के माध्यम से एक म्युज़िकल के रूप में प्रस्तुत किया गया। संगीत के साथ लाइव मंचन करना एक कठिन और काफी तकनीकी पहलू है जिसे गीत–संगीत व्यवस्था पर मौजूद कलाकारों, भानु प्रताप और राम शर्मा और अपने गायन से नैना तलेगांवकर ने बेहद खूबसूरती से निभाया। गीतों की नाटक के कथानक में भी महत्वपूर्ण भूमिका रही, जहाँ नाटक के पात्रों ने गीतों के माध्यम से कहानी के मूड को निरन्तर अभिव्यक्त किया। नाटक के निर्देशक डिम्पी मिश्रा, जो कि प्रस्तुति में मशहूर शायर नासिर काज़मी का किरदार भी निभा रहे थे, ने अपने सुरीले और भावनात्मक गायन से नासिर की सुप्रसिद्ध गज़लों को लयबद्ध किया, जिसमें उनका साथ नाटक के सभी कलाकारों ने मिलकर कोरस के माध्यम से दिया।
किसी विशेष समय की कहानी का चित्रण करते हुए उस समय की प्रामाणिकता बनाए रखना चुनौतीपूर्ण काम है पर मंच सज्जा, प्रकाश परिकल्पना और वेशभूषा के माध्यम से इस चुनौती पर बखूबी पार पाया गया। प्रामाणिकता की ही बात करें तो, इस नाटक की एक खास बात थी संवाद। जहाँ एक तरफ कहानी लाहौर के शहर में आधारित थी, वहीं दूसरी तरफ इस शहर में भारत के दूसरे शहरों से आए पात्रों की भी मौजूदगी थी। पर सभी पात्रों की भाषा की विशिष्टता को उनको निभाने वाले कलाकारों ने अपने उच्चारण और तलफ्फुज़ से उम्दा तरीके से दर्शाया। पंजाब की खालिस पंजाबी, अंबाला की मिश्रित हिंदी और उर्दू और लखनऊ शहर की खालिस उर्दू, सभी बोलियों में प्रामाणिकता का ध्यान रखा गया। इसके लिए श्रेय नाटक के निर्देशक डिम्पी मिश्रा को जाता है, जिन्होंने नाटक में भूमिका अदा करते हुए एक प्रकार से अपनी टीम की मंच पर रहते हुए सामने से अगुवाई की।
सबसे महत्वपूर्ण रहा नाटक के कलाकारों का अभिनय। विभाजन की त्रासदी को बयान करने वाली कहानी की संवेदनशीलता और भावनात्मकता को उचित रूप से मंचित करने के लिए उम्दा अभिनय अति–आवश्यक था, जिसमें कलाकारों ने बिल्कुल भी निराश नहीं किया। चाहे लखनऊ से आए परिवार के सदस्यों की परेशानियों और कशमकश का चित्रण हो या फिर अपना हित साधने वाले धर्म के ठेकेदारों का लगातार बेचैनी और खौफ भरा माहौल बनाए रखने वाला आक्रोश या फिर शायर नासिर काज़मी के आस–पास रहने वाले अन्य किरदारों की अलग–अलग समय पर दिखने वाली बेपरवाही और फिक्र के भाव, इन बहुआयामी चरित्रों के मनोभावों को सभी कलाकारों ने दर्शकों के सामने कुशलता से उकेर दिया। पर एक कलाकार जिनके अभिनय ने संभवत: सभी दर्शकों को मंत्रमुग्ध कर दिया और अपने किरदार के पैथोस यानि संवेदना को उभार कर रख दिया वह थे दादी के किरदार को निभाने वाले आशीष राजपूत। उनके अभिनय ने नाटक में लाहौर में बची रह गईं उस बुज़ुर्ग महिला के माध्यम से उन सभी बदकिस्मत लोगों की कहानी बयान कर दी जो अपने ही वतन में रहते हुए भी सामाजिक और राजनीतिक दांवपेचों के कारण बेवतन सा होकर रह जाना महसूस करने पर मजबूर हो जाते हैं।
नाटक की समाप्ति में पूरी दर्शक–दीर्घा कई मिनटों तक खड़े रहकर तालियों की गड़गड़ाहट से पूरी टीम का धन्यवाद करने पर मजबूर हो गई। इस प्रस्तुति से एक बार फिर पता चला कि रंगलोक समूह का उद्देश्य सिर्फ आगरा शहर में नाटक को जीवित रखना मात्र नहीं है, बल्कि अर्थपूर्ण साहित्य की अभिव्यक्ति द्वारा समाज में एक महत्वपूर्ण संवाद स्थापित करना भी है। जैसे नाटक में नासिर काज़मी के किरदार द्वारा नाटक के पात्र जगत को सामाजिक–राजनीतिक यथार्थ का निरन्तर बोध कराया जाता रहा, उसी प्रकार रंगलोक समूह भी आगरा शहर में इसी प्रकार का बोध स्थापित करने का काम कर रहा है।
-सुमित