महाभारत पर आधारित नाटक 'पांसा' से रंगलोक नाट्य महोत्सव का समापन
महाभारत एक ऐसी कृति है जिसकी अनेक व्याख्याएँ संभव हैं। पात्रों के बीच के जटिल अंतर्संबंधों के कारण अनेक ऐसे समीकरण बन के उभरते हैं कि किन्हीं भी दो मुख्य पात्रों के बीच के संबंधों पर अलग से कई रचनाएँ बनाई जा सकती हैं। शायद इसीलिए कई दिग्गज साहित्यकारों ने महाभारत की इन संभावनाओं का प्रयोग कर कई महान रचनाओं को जन्म दिया है। रंगलोक नाट्य महोत्सव की अंतिम संध्या को सूरसदन प्रेक्षागृह में महाभारत के ऐसे ही अनगिनत किस्सों में से एक किस्से पर मुंबई के एस्से कम्युनिकेशन समूह द्वारा प्रस्तुति का मंचन किया गया। यह मंचन था गुलज़ार द्वारा किया गया, पवन के वर्मा की अंग्रेज़ी कविता का नाट्य रूपांतरण, पांसा।
पांसा कहानी है महाभारत के प्रमुख कड़ियों में से एक यक्ष प्रश्न के किस्से की। पर इस मंचन में यक्ष प्रश्न के उन पहलुओं पर ध्यान नहीं दिया गया था, जिन पर सामान्यत: दिया जाता है। यहाँ किस्सा था उस क्षण का जब युधिष्ठिर को छोड़ बाकी सभी पांडव तालाब का पानी पी मृत हो चुके हैं और युधिष्ठिर के साथ उस तालाब के पास मौजूद है सिर्फ द्रौपदी। नाटक के केंद्र में यह एक लंबा क्षण है जब ऐसा दुर्लभ अवसर प्रकट होता है जिसमें युधिष्ठिर और द्रौपदी अकेले हैं। इस क्षण में दोंनो बेबाक हैं और अतीत में घटी सभी घटनाओं पर दोनों के बीच संवाद छिड़ चुका है।
इस संवाद में एक तरफ हैं द्रौपदी की उल्हानाएँ, शिकायतें और युधिष्ठिर के हाथों मिले द्रौपदी के अनेक कष्ट, दर्द और यातनाएँ, और दूसरी तरफ हैं युधिष्ठिर की सफाई। यहाँ पांसा का संदर्भ है चौसर का वह भयानक खेल जिसमें जहाँ पांडवों ने अपना राज–पाठ खो दिया, वहीं द्रौपदी ने खोया अपना आत्म–सम्मान और अपने मन की शांति।
इस संवाद के मंचन को म्युज़िकल थिएटर के रूप में प्रस्तुत किया गया जिसमें संवाद के साथ थे गीत और नृत्य। खास बात थी कि ना सिर्फ कलाकारों द्वारा गीत वास्तविकता में यानि लाइव गाए जा रहे थे, संगीत व्यवस्था भी मंच पर ही लाइव मौजूद थी। जहाँ मुख्यधारा के रंगमंच में म्युज़िकल थिएटर में आम तौर पर हल्की–फुल्की कहानियों का मंचन होता है, वहीं इस तरह के संजीदा और क्लिष्ट विषय का चयन अपनेआप में खास था।
इस मंचन की संजीदगी को बनाए रखने में संगीत का बड़ा हाथ था। खास मौकों पर संगीत का क्रिसेन्डो यानि चरम सीमा पर जाना नाटक के महत्वपूर्ण क्षणों को खूबसूरती से रेखांकित करते रहे और साथ ही दर्शकों के पैथोस यानि मनोभाव को भी बेहतरीन तरीके से उभारते रहे। इसमें खास भूमिका थी कलाकारों के गायन की भी जो कोरस में गाते हुए ना सिर्फ अपनी लय और तान संभाले रहे बल्कि कहानी की भावनाओं को समुचित रूप से व्यक्त करने का कठिन कार्य भी करते रहे।
इस नाटक का म्युज़िकल थिएटर के प्रारूप में ढल पाना शायद इसलिए भी संभव था कि इसे गुलज़ार ने काव्यात्मक शैली में लिखा है। इसके संवाद एवं कथा–वाचन दोनों ही बेहतरीन शायरी में पिरोए गये थे। उर्दू भाषा के प्रयोग ने इस प्रस्तुति में एक तह और जोड़ दी थी। मुख्य कलाकार, लुबना सलीम, अमित बेहल और बकुल ठक्कर जो कि द्रौपदी, युधिष्ठिर और यक्ष की भूमिका निभा रहे थे, ने इन संवादों और साथ ही कहानी के साथ पूरा न्याय किया और इन पात्रों की पेचदिगियों को भी बखूबी निभाया।
इतनी सारी खासियतों के साथ जो एक और खासीयत थी, वह थी कि कथावाचकों की पूरी टोली में रंगलोक सांस्कृतिक संस्थान के ही कलाकार छाए हुए थे। पूरे नाटक में इन कथावाचकों की बेहद महत्वपुर्ण भूमिका थी, फिर चाहे वह गीतों द्वारा मुख्य पात्रों की मनोस्थिति को रेखांकित करना हो या फिर कहानी को संगीत और नृत्य द्वारा आगे बढ़ाना हो। आगरा में आयोजित रंगलोक नाट्य महोत्सव में आगरा के ही इतने सारे कलाकारों को दिग्गज निर्देशक और कलाकारों के साथ मंच साझा करने का अवसर मिला, महोत्सव का इससे अच्छा अंजाम शायद ही कुछ और होता।
चार दिन के एक महोत्सव में आगरा के रंगप्रेमियों को हास्य, म्युज़िकल, मेलोड्रामा और वैयक्तिक मजमून पर आधारित उत्कृष्ट कृतियों का इतना बेहतरीन संगम देखनो को मिलेगा, शायद ही किसी ने कभी सोचा होगा। इसके पीछे रंगलोक सांस्कृतिक संस्थान के संयोजक डिम्पी मिश्रा और उनकी पूरी टीम की कई महिनों की कड़ी मेहनत छिपी हुई है। चाहे देश भर के चुनिंदा कलाकार और रंगमंच समूहों को आगरा के दर्शकों से मुखातिब कराना हो या फिर यहाँ के कलाकारों को पेशेवर रंग–कलाकारों के साथ और उनके बीच अपना हुनर दिखाने का मौका देना हो, इस महोत्सव ने आगरा को रंगमंचीय मानचित्र पर अवश्य ही ला खड़ा किया है।