स्मरण प्रेमचंद- 17 संगोष्ठी, आगरा: पत्रकारिता की विरासत और प्रेमचंद

 

साभार: प्रेमचंद जयंती आयोजन समिति

प्रेमचंद की जयंती के उपलक्ष में उनकी जन्म वर्षगांठ 31 जुलाई को आरम्भ हुए एक माह तक चलने वाले, ‘प्रेमचंद की ज़रूरतनामक आयोजन के अंतर्गत इस गुरुवार को डॉ भीम राव अम्बेडकर विश्वविद्यालय, आगरा के इतिहास विभाग में संगोष्ठी का आयोजन हुआ। संगोष्ठी का विषय थापत्रकारिता की विरासत और प्रेमचन्द अब तक इस आयोजन के तहत हो चुके कार्यक्रमों में प्रेमचन्द के साहित्यिक जीवन के कई पहलुओं पर ध्यान दिया जा चुका है, जिसमें शामिल हैं, उनका हिंदी कहानियों को योगदान, उनके साहित्य में लोक संस्कृति के आयाम, उर्दु साहित्य से उनका संबंध एवं प्रमुख शख्सियतों को लिखे उनके पत्रों पर आधारित कार्यक्रम।

पत्रकारिता से प्रेमचन्द के संबंध पर ध्यान आकर्षित करते इस कार्यक्रम में आमंत्रित वक्ता मुख्यत: पत्रकारिता की दुनिया से ही ताल्लुक रखते हैं। इस कार्यक्रम की अध्यक्षता कर रहे थे पूर्व में आज तक चैनल की स्थापना में भुमिका अदा कर चुके कमर वहीद नकवी। मीडिया जगत से अन्य मेहमानों में शामिल थे मीडिया पर नज़र रखने वाली इंटरनेट साइटमीडिया विजिलके संपादक पंकज श्रीवास्तव और हिंदुस्तान अखबार के आगरा के स्थानीय संपादक अजय शुक्ल। साथ ही हिंदी साहित्य के जानकार डॉ. कु. वीर सिंह मार्तण्ड ने भी इस संगोष्ठी में शिरकत की।
 
प्रेमचन्द को एक महान साहित्यकार के रूप में तो सभी जानते हैं। सामाजिक यथार्थवाद से उनके साहित्य का क्या संबंध रहा है, यह शायद ही कोई साहित्य जानने वाला व्यक्ति ना जानता हो। पर सामाजिक यथार्थ को प्रस्तुत करने में उन्होंने सिर्फ काल्पनिक रचनाओं का सहारा ही नहीं लिया बल्कि पत्रकारिता के माध्यम से सामाजिक यथार्थ पर तीखी टिप्पणी भी की। जागरण और हंस के संपादक रह चुके प्रेमचंद की पत्रकारिता के माध्यम से की गईं टिप्पणियाँ और साथ ही पत्रकारिता पर की गईं टिप्पणियों से इस संगोष्ठी के वक्ताओं ने श्रोताओं का बेहतरीन परिचय कराया।
 
खास बात थी कि लगभग पूरे ही आयोजन में प्रेमचन्द की तत्कालीन पत्रकारिता और सामयिक दशादिशा को आज की पत्रकारिता और दशादिशा से निरन्तर जोड़ा जाता रहा। सबसे पहले पंकज श्रीवस्तव ने प्रेमचंद के पत्रकारिता को लेकर फिलॉसफी यानि सोच को उजागर किया। पत्रकारिता में अमूमन जिन सिद्धांतों को दोहराया जाता है वे हैं वस्तुपरकता, निष्पक्षता और ऑब्जेक्टिविटी। पर जैसा कि पंकज ने इंगित किया प्रेमचंद इस निष्पक्षता में विश्वास नहीं करते थे। उनका मानना था कि पत्रकार को पक्षधरता में विश्वास करना चाहिए और वह पक्षधरता होनी चाहिए शासितों के लिए। प्रेमचंद के हिसाब से पत्रकार को शासितों के वकील के रूप में काम करना चाहिए।
 
पंकज ने प्रेमचंद के उस विचार की कसौटी पर आज की पत्रकारिता को भी कसा और पाया कि आज का मीडिया और खास कर टेलिविजन मीडिया इस पर विफल हुआ है। उन्होंने कहा कि आज मीडिया शासितों के मुद्दों को उठाने के बजाय सनसनीखेज़ मुद्दों पर अधिक ध्यान दे रहा है। ये सनसनीखेज़ मुद्दे प्राय: अंधविश्वास और धर्मांधता से जुड़े होते हैं और पंकज का तथ्यात्मक आरोप था कि मीडिया और खास कर इलेक्ट्रॉनिक मीडिया इन बातों को बढ़ावा देता है। यहाँ उन्होंने इस समस्या को समाज के परिप्रेक्ष्य में भी उठाया जहाँ वैज्ञानिकता के बजाय आज भी धार्मिकमिथकीय विश्वासों पर लोगों की आस्था अधिक है।
 
पंकज के अनुसार आधुनिक तकनीक का प्रयोग भले ही मीडिया को प्रस्तुतीकरण के मद्देनज़र और बेहतर बनाने में किया जा रहा हो पर जैसा कि उन्होंने कहाआज सब अधिक दिखना चाहते हैं, क्या दिखाना चाहते हैं इस पर किसी का ध्यान नहीं जाता वह इस बात से चिंतित थे कि मीडिया का नियंत्रण अधिक से अधिक अब कॉरपोरेट जगत के हाथों में आता जा रहा है। बड़ी बेबाकी से उन्होंने अंबानी समूह पर निशाना साधा जो आधिकारिक नियंत्रण द्वारा, नहीं तो शेयरों द्वारा या फिर विज्ञापनों द्वारा कई मीडिया इकाइयों पर काबिज़ होता जा रहा है। साथ ही उन्होंने रिपब्लिक टीवी के मुख्य संपादक और प्रस्तुतकर्ता अर्णब गोस्वामी की कार्यप्रणाली को समाज में जानबूझकर उन्माद उत्पन्न करने के लिए ज़िम्मेदार ठहराया।
 
पंकज ने कहा कि पत्रकारिता में शीर्षस्थ रहने के लिए दो तरीके हैं, कि या तो आम जनता की ईमानदारी से नब्ज़ पकड़कर उनके मुद्दों को उठाते रहो और दर्शकों के लिए कोई और विकल्प छोड़ो ही नही या फिर आम जनता को मनोरंजित करने वाले और बहलाने वाले मुद्दों को उठाते रहो जिनमें कोई सामाजिक सरोकार भले ही मौजूद ना हो। प्रेमचंद की पत्रकारिता की समझ और निडरता की इस मौजूदा परिस्थिति से तुलना करते हुए उन्होंने उस समय की याद दिलाई जब 1932 के पूना पैक्ट के बाद जब अंबेडकर को गाँधी के अंशन के आगे मजबूर होना पड़ा था और देश में उनके खिलाफ एक व्यापक राय बन गई थी। ऐसे समय में बिना किसी की परवाह किए प्रेमचंद ने अंबेडकर को हंस पत्रिका के मुखपृष्ट पर जगह देकर उनके सामाजिक न्याय की लड़ाई को, प्रचलित राय के विरुद्ध खड़ा होकर बल दिया।
 
दूसरे वक्ता थे डॉ मार्तण्ड जो कोलकाता से इस कार्यक्रम में शिरकत करने आए थे। हिन्दी साहित्य से कई वर्षों से जुड़े रहे मार्तण्ड ने प्रेमचंद के साहित्यिक इतिहास और पत्रकारिता के इतिहास पर गौर किया। उन्होंने इस बात पर ज़ोर दिया कि जहाँ प्रेमचंद के साहित्य पर अकादमिक और गैरअकादमिक ध्यान दिया जाता रहा है, वहीं उनकी पत्रकारिता पर इस तरह का ध्यान नहीं दिया गया है। इस तरफ उन्होंने शोध की दुनिया का ध्यान आकर्षित करने का प्रयास किया। उन्होंने इस बात पर भी ध्यान दिया कि क्योंकि प्रेमचंद अपने साहित्य में सामाजिक यथार्थवाद पर ज़ोर देते थे पर क्योंकि साहित्य की कुछ सीमाएँ होती हैं, इसलिए यथार्थ पर और खुलकर लिखने के लिए उन्होंने पत्रकारिता को चुना।
 
हिंदुस्तान के स्थानीय संपादक अजय शुक्ल ने वर्तमान पत्रकारिता पर अपनी राय और साथ ही साथ अपना पक्ष रखा। जहाँ उनकी राय थी कि मौजूदा मीडिया कई मायनों में शासितों की अवाज़ उठाने में विफल रहा है वहीं मीडियाकर्मियों की कई ऐसी मजबूरियाँ हैं जिनके कारण वे अपने इस दायित्व को उठाने में विफल हो जाते हैं। प्रेमचन्द के संदर्भ में उनकी राय थी कि प्रेमचंद पत्रकार से अधिक पत्रकारों के लिए मार्गदर्शक रहे हैं।
 
अंतिम टिप्पणी थी कार्यक्रम की अध्यक्षता कर रहे कमर वहीद नकवी की। कमर ने भी बेबाकी का परिचय दिया। उनके भाषण के तीन मुख्य बिंदु थे, सांप्रदायिकता, राष्ट्रीयता और अखबार। इन तीनों ही मुद्दों को आपस में जोड़कर उन्होंने इन पर स्वाधीनता संग्राम से लेकर जनता पार्टी की1977 की सरकार और फिर बाबरी मस्जिद ध्वंस और मौजूदा समय के विभिन्न कालखंडो का संदर्भ सामने रखा। उनका कहना था कि इन सभी विषयों पर जिन समस्याओं से मौजूदा समाज जूझ रहा है, उनसे समाज हमेशा से जूझता रहा है। इसके लिए उन्होंने भगत सिंह की उस टिप्पणी का उल्लेख किया जिसमें उन्होंने सांप्रदायिकता के लिए अखबारों को उस समय में भी ज़िम्मेदार ठहराया।
 
प्रेमचंद के संदर्भ में उन्होंने सांप्रदायिकता, राष्ट्रीयता और अखबारों को लेकर उनके आलेखों में प्रस्तुत किए गए उनके विचारों को सामने रखा। उन्होंने दिखाया कि प्रेमचंद ने, इन मुद्दों के दुरुपयोग को लेकर अपने समय से ही आवाम को आगाह किया था। पर आज का मीडिया और समाज आज उन्हीं समस्याओं में घिरा हुआ है। इस बात की ओर इशारा कर कमर ने मीडिया की समाज का नरेटिव यानि कथानक निर्धारित करने की भूमिका पर ध्यान आकर्षित किया। उन्होंने उदाहरण देते हुए बताया कि कैसे मीडिया सांप्रदायिकता और राष्ट्रीयता का एजेंडा निर्धारित करता है और समय के साथ अपने हितों या राजनीतिक समीकरणों के चलते इसे बदलता जाता है।
पूरी गोष्ठी की खास बात थी, जैसा कि पंकज ने कहा, कि यह आयोजन प्रेमचंद पर आधारित पूरी हिन्दी पट्टी में एक मात्र आयोजन है जिसके लिए उन्होंने पूरी समिति को बधाई दी। पर साथ ही उन्होंने इस बात का भी उल्लेख किया कि यदि आज के समय में भी प्रेमचंद प्रासंगिक हैं तो यह अच्छी बात नहीं है क्योंकि यह दिखाता है कि अपने लेखन के माध्यम से जिन विषयों को प्रेमचंद ने तब उठाया था और जिन समस्याओं से वे अपने साहित्य और पत्रकारिता में तब जूझ रहे थे, यदि वे समस्याएँ आज भी मौजूद हैं तो यह समाज के लिए दुर्भाग्यपूर्ण बात है।  
 
-सुमित 

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