नाट्य अभिव्यक्ति को नए आयाम देती रंगलोक की साहसिक प्रस्तुति- ‘कोर्ट मार्शल’

कला के क्षेत्र में एक शब्द जिसका अकसर प्रयोग किया जाता है, वह है पैथोस। कलात्मक अभिव्यक्तियों के लिए इस शब्द का प्रयोग प्रस्तुति की ऐसी विशेषता का वर्णन करने के लिए होता है जिससे कला को ग्रहण करने वाले के मन की भावनाएँ उकेरी जा सकें। इन भावनाओं में प्रमुख स्थान होता है करुणा का। इस शनिवार को आगरा शहर के सबसे प्रमुख रंगमंचीय समूह, रंगलोक सांस्कृतिक संस्थान ने सूरसदन प्रेक्षागृह में अपनी प्रस्तुति कोर्ट मार्शलद्वारा आगरा के रंगप्रेमियों को पैथोस-युक्त अभिव्यक्ति का सबसे उप्युक्त उदाहरण दिया।

स्वदेश दीपक द्वारा लिखित यह नाटक ‘कोर्ट मार्शल, जैसा कि नाम से ज़ाहिर है, सेना में गठित एक अदालती कार्यवाही पर आधारित है, जिसके एक ओर है एक जवान रामचन्द्र जिसने अपने से सीनियर पद पर नियुक्त कैप्टन वर्मा का खून किया है और दूसरी ओर पर है कैप्टन बी डी कपूर जो ना सिर्फ इस खून के चश्मदीद गवाह हैं बल्कि साथ ही रामचन्द्र ने कैप्टन वर्मा के साथ-साथ इन पर भी जानलेवा हमला किया हुआ है। नाटक का सबसे महत्वपूर्ण सवाल है की यह खून क्यों किया गया? सेना की पदवियों की आड़ में एक महत्वपूर्ण जानकारी छिपी हुई है। यह वही जानकारी है जो हमारे भारतीय समाज के जीवन की सभी गतिविधियों और दिनचर्या में कई लेबलों के पीछे छिपी रहती है पर जो परोक्ष होकर भी हमारे समाज का सबसे बड़ा सत्य है और वह सत्य है हमरी जाति व्यवस्था।
 
जाति-व्यवस्था को हमारा समृद्ध वर्ग इतिहास की किसी अवशेष की तरह बताना चाहता है। इस वर्ग की मंशा रहती है कि उसके सदस्यों की सारी उपलब्धियों को उन्हें मिले जातिगत लाभों के मद्देनज़र ना देखा जाए। पर इसी जाति-व्यवस्था में इस वर्ग का अटूट विश्वास है जिसे वह अपने वर्तमान सत्य के रूप में जीता है। निम्न कहे जाने वाले जाति वर्ग से जो कोई भी उसकी बराबरी करता है उससे वे खिन्न हैं और शारीरिक, मानसिक और भावनात्मक हिंसा के माध्यम से निरन्तर उन्हें पीछे धकेलते रहना चाहते हैं। यह कहानी भी सेना की पृष्ठभूमि को लेकर इसी हकीकत को बयान करती है।
 
इस कहानी का विषय, भारत की सबसे पुरानी, अपमानजनक, असमानता से पटी हुई और अत्याचारी व्यवस्था पर तीखी और तेज़ रोशनी डालने के कारण, सामाजिक-राजनीतिक रूप से सबसे अधिक प्रासंगिक है। पर किसी भी रंगमंच प्रस्तुति की कहानी मात्र के प्रासंगिक होने से बात नहीं बनती। रंगमंच की प्रस्तुति जब तक प्रभावशाली ना हो और एक पैथोस को ना उकेरे तब तक उसका सम्पूर्ण प्रभाव पूर्ण रूप से सामने नहीं आ सकता। इस प्रभाव के लिए नाटक की एक-एक बारीकी, फिर चाहे वह निर्देशन हो या अभिनय, ध्वनि व्यवस्था हो या प्रकाश व्यवस्था, का आपस में तारतम्य बिठाना आवश्यक है। रंगलोक समूह की अनेकों प्रस्तुतियों में से सबसे उत्कृष्ट प्रस्तुतियों में से एक, इस नाटक ने इसी तारतम्य को खूबसूरती से बिठाया और दर्शकों को भावनाओं से उद्वेलित कर दिया।
 
अदालत के दृश्य में आधारित इस नाटक में सभी पात्रों ने इस तरह अभिनय अदा किया कि दर्शकों को सच ही में किसी अदालत में बैठी जनता का सा अनुभव होने लगा। सेना के अनुशासन का अभिनय तो सटीक था ही, पर वैयक्तिक भावनाओं को जिस प्रकार से सभी कलाकारों ने उभारा, उससे कुछ ऐसे क्षण उत्पन्न होते रहे जिनमें दर्शक भी असहज हुए, भावुक हुए, हतप्रभ हुए और आतंकित हुए। अहंकार, क्रोध, पीड़ा, करुणा और रोष जैसी कई भावनाओं को जैसे-जैसे किरदार मंच पर प्रस्तुत करते रहे उसी प्रकार वे भावनाएँ दर्शक दीर्घा में भी प्रतिबिम्बित होती रहीं।
 
पर साथ ही इस नाटक के विषय में न्याय, सत्य और कानून के मुद्दों को भी बारीकी से उठाया गया। क्या न्याय को कानून के घाट उतारा जाना चाहिए है या फिर क्या सत्य, न्याय की बलि चढ़ने के लिए विधित है या फिर क्या कानून कभी पूरा सत्य उजागर कर सकता है, इन्हीं सवालों के उहापोह से यह नाटक ओतप्रोत रहा। 

इस प्रस्तुति की एक बड़ी सफलता थी स्वयं इस नाटक का चयन और इसका निर्भीक मंचन। नाटक की विषय-वसतु में दो ऐसे विषय निहित थे जिनको लेकर हमारा समाज आज के समय में संभवत: कई मायनों में असहिष्णु हो गया है। जाति व्यवस्था पर तो हमारे समाज में आलोचनात्मक दृष्टि डालना वैसे ही बेहद कठिन रहा है। सवर्ण वर्ग को कटघरे में खड़ा करना और उसके जातिवाद पर प्रश्न उठाने का साहस तो मीडिया और यहाँ तक कि कई बुद्धिजीवी भी सम्पूर्णता से नहीं कर पाते। उस पर इस प्रश्न को सेना के परिदृश्य में उठाना और भी साहसिक है जिसके लिए रंगलोक समूह और डिम्पी मिश्रा सराहना के पात्र हैं।
 
अभिव्यक्ति अपने आप में कठिन नहीं है और ऐसा भी नहीं है कि अभिव्यक्ति की आज़ादी पर हमेशा ही खतरे के बादल मंडराते हैं। वह तो जब अभिव्यक्ति कठिन प्रश्न उठाती है, सदियों से स्थापित व्यवस्थाओं की अलोचना करती है, तब उसकी कठिनाइयाँ उजागर होती हैं। नाटक जैसी विधा को जीवित रखने का रंगलोक का प्रयास पर साथ ही ऐसे प्रासंगिक और समाज को चेताने वाले विषयों का चयन इन प्रस्तुतियों को कई गुना महत्वपूर्ण बना देता है।
 
-सुमित

 

 
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