‘सिटीज़ ऑफ़ स्लीप’ (2015): नींद का सामाजिक-आर्थिक गणित
गरीबी को कई चश्मों से देखा जाता रहा है। पहले इसे भौतिक वस्तुओं के अभाव में देखा जाता था। अमर्त्य सेन और जॉन द्रे जैसे समाज-शास्त्रियों ने जब से आर्थिक-विकास के बजाय मानव-विकास को तरजीह देना शुरु किया तब से इसे मानव क्षमताओं के अभाव के रूप में देखा जाने लगा। इन क्षमताओं को भी इस आधार पर आँका जाता है कि क्या इनके द्वारा हर मनुष्य अपने मन चाहे रूप में अपना पूर्ण विकास कर सकता है या नहीं। इस नए बदलाव से गरीबी की और व्यापक परिभाषा लोगों के समक्ष प्रस्तुत हुई है जिससे खास कर विकासशील और अविकसित कहे जाने वाले और कई मायनों में विकसित देशों में भी गरीबी को कई नए रूपों में समझा जाने लगा है।
खास बात यह है कि किसी भी नए बदलाव से पुरानी सोच में तो परिवर्तन आता ही है, पर साथ ही नित नई परिभाषाओं को गढ़ने और महत्वपूर्ण सामाजिक-राजनैतिक विषयों को और भी नए रूपों में देख पाने की संभावनाएँ भी बढ़ जाती हैं। ऐसी ही गरीबी की एक नई संभावना और परिभाषा को तलाशती हुई डॉक्यूमेंट्री है ‘सिटीज़ ऑफ़ स्लीप’/ ‘नींद शहर’। शौनक सेन द्वारा निर्देशित यह फिल्म 2015 में बनी और देश-विदेश में कई जगहों पर दिखाई और सराही गई।
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