लोक संस्कृति का जाल- शादी के गीत।

प्रस्तावना: यह कोई बहुत उत्कृष्ट या असाधारण लेख नही है। अपनी ही ज़िन्दगी में हुए कुछ अनुभवों से गुज़रकर कैसे लोक संस्कृति के एक अभिन्न अंग, लोक गीतों, से मेरा साक्षातकार हुआ, और कैसे मैंने समाज को समझने का एक नया नज़रिया पाया, यह लेख सिर्फ़ उस यात्रा का एक साधारण सा वृतान्त है। आशा है आप इससे अपने आपको, समर्थन या विरोध में, चाहे जैसे भी जोड़ कर देख पाएंगे।

बचपन और बड़े होने में सब कुछ बदल जाता है। खेल बदल जाते हैं। दोस्त बदल जाते हैं। और नज़रिये भी बदल जाते हैं। पर कुछ मौके जो हमेशा हमारी ज़िन्दगी में किसी इंटरनेट साइट पर पॉप अप की तरह टपकते रहते हैं, वे हैं रिश्तेदारों के यहाँ शादियाँ। बचपन में ऐसी शादियों में जाने का मज़ा ही अलग होता है। आप किसी जंगल के आज़ाद जानवर की तरह स्वच्छंदता से हर जगह घूमते रहते हैं। आपके मां बाप को आपकी खबर तक नही रहती। आप किसी के साथ भी खेलने लग जाते हैं, कुछ भी खाते पीते रहते हैं, और कोई रोकने टोकने वाला नही होता। फ़िर जब थक हारकर आप रिसेप्शन हौल में किसी सोफ़े पर गिर कर सो जाते हैं तो आपके अभिभावक आपको उठा कर ले जाते हैं और सारी मस्ती, शोरगुल आपके दिमाग में किसी खुशनुमा सपने की तरह दर्ज हो जाता है। पर जब आप बड़े हो जाते हैं तो ये सभी चीज़ें बदल जाती हैं। आप ना तो दौड़ भाग करते हुए अच्छे लगेंगे, ना ही आप जो मन चाहे खा पी सकते हैं (अगर आपको अपनी सेहत का रत्तीभर भी ख्याल है तो), ना ही आप किसी भी अनजान व्यक्ति से दोस्ती कर सकते हैं। और अगर आप थक कर कहीं सो गए तो हो सकता है कि पूरा परिवार आपको बीमार समझकर किसी डॉक्टर को फ़ोन कर बुला ले। ऊपर से हर रिश्तेदार से मिलने की औपचारिकताएँ, उनका अभिवादन, उनके आपकी ज़िन्दगी से जुड़े सवालों के जवाब, ये सभी वजह मिलकर बचपन के उन खुशनुमा सपनों को जवानी के डरावने ख्वाबों में तब्दील कर सकते हैं।
इसलिए पिछ्ले कुछ सालों में जब भी मेरे सामने किसी शादी समारोह का मौका आया, मैंने अपने आप को इन सभी दुविधाओं से बचने के उपाय ढूंढने कि लिए समर्पित कर दिया। और ये पाया कि बजाय इस सब से भागने के चाहूँ तो शादी से जुड़ी छोटी छोटी रस्मों, रवायतों में से किसी भी एक को चुन कर उनकी चीर फ़ाड़ कर सकता हूँ। ये बहुत संरचनात्मक उपाय भले ही ना हो, पर इससे ना सिर्फ़ आपका टाइम पास होता है, बल्कि सालों से चले आ रहे इन अजीबो गरीब रिवाजों के उद्गम, उनके चले आने की वजहों और उनके सामाजिक प्रभावों को समझने का रास्ता भी मिलता है। तो पिछले कुछ समय से इन सभी वैवाहिक मौकों पर मैंने अपना ध्यान लगाया, शादी ब्याह में गाये जाने वाले, सदियों से चले आ रहे लोक गीतों पर। क्योंकि आप माने या ना माने, ना सिर्फ़ फ़िल्मी जगत बल्कि आज का सुप्रसिद्ध पॉप कल्चर भी लोक संस्कृति को ना सिर्फ़ बढ़ावा देने में बल्कि उसका भरपूर फ़ायदा उठाने में लगा हुआ है। इसलिए यह समझना ज़रूरी है कि जिन चीज़ों को सांस्कृतिक धरोहर कहकर ना सिर्फ़ आम जनता बल्कि बुद्धिजीवियों को परोसा जा रहा है, वे आखिर क्या कह रही हैं।
ऐसे गानों के लिए मेरा सोर्स रही मां की वो डायरी जिसमें उन्होने ऐसे सभी गीत लिख रखे थे जो शादी में विभिन्न अवसरों पर गाए जाते हैं। हम में से कई लोग इन गानों को नज़र अंदाज़ कर देते हैं। पर जब मैंने इन्हें पढ़ा तो दो बातें मेरे समझ में आईं। एक तो वह जिसका उल्लेख मैं पहले ही कर चुका हूँ कि हिन्दी फ़िल्मों ने शुरुआत से ही या तो इन गानों को पूर्ण रूप से अपना कर या फ़िर इन से प्रेरित होकर कई प्रसिद्ध गाने दिए हैं । पचास के दशक में “बन्दिनी” का सुप्रसिद्ध गाना “अब के बरस” जेल में बैठी महिला कैदियों की अपने घर से जुड़ी पुरानी यादों को और उनकी व्यथाओं को तो दर्शाता ही है, पर यह गाना उत्तर भारत में शादी के बाद ससुराल से होने वाली पहली विदा के गानों का भी स्वरूप है। चार दशक बाद भी “हम आपके हैं कौन” में ऐसे कई गाने थे जो शादी की अलग अलग रस्मों को समर्पित थे। फ़िर कुछ ही साल पहले जब ए आर रहमान ने “ससुराल गेंदा फ़ूल” को आधुनिक रूप देकर प्रस्तुत किया तो वह भी सुपर हिट रहा। इन्डी पॉप और इन्डी रॉक बैन्ड्स ने भी हाल ही में कई लोक गीतों का इस्तेमाल करना शुरु कर दिया है, जिनमें कई सारे गीत शादी, विदाई या दांपत्य जीवन पर आधारित होते हैं।
दूसरी बात है इन गानों की विषय वस्तु। विचारधारा की कभी मौत नही होती। ये गाने सिर्फ़ मामूली लोक गीत भर नही हैं। सदियों से चली आ रही सामाजिक व्यवस्था को चलाने में और उससे भी महत्वपूर्ण, समाज में आदमी और औरत को देखने के अलग अलग नज़रिए को जारी रखने में या बदलने में इन गीतों की अहम भुमिका है। हम बस इस सबसे अनजान हैं क्योंकि शायद हमने अपने गाँवों और छोटे शहरों से तलाक ले लिया है।
अपने इस विश्लेषण के लिए मैनें बहुत बड़ा जाल नही फ़ैलाया है। शादी के पर्व पर लोक गीतों का भंडार है। मैं यहाँ सिर्फ़ उन गीतों की चर्चा करूँगा जो होने वाली दुल्हन के यहाँ गाए जाते हैं। यदि एक प्रस्तावना दूँ, तो अधिकाँश गाने लड़की के ससुराल में उसके आने वाले जीवन पर आधारित होते हैं। आज भी जहाँ बड़े छोटे शहरों में मध्यम वर्ग की महिलाओं के बाहर काम करने पर पारिवारिक ज़िम्मेदारियों के नाम पर प्रतिबंध लगाने की प्रथा है, वहाँ इन घरेलू जीवन के गानों का महत्व सिर्फ़ संकेतात्मक नही है, अपितु यथार्थ में भी है।
1981 की यह डायरी जिसकी सिलाई उधड़ चुकी है, और कोनों से मुड़े तुड़े पन्ने अलग अलग दिशाओं में दौड़ते से नज़र आते हैं, मेरे लिए समाज में एक अलग दृष्टिकोण से घुसने का ज़रिया बने। कुछ खास बातों पर आपका ध्यान आकर्षित करना चाहूँगा।
पितृसत्ता के प्रहरी
 “सास घर जाइयो लाड़ो मेरी।
सो लाड़ो मेरी सासु की सेवा करियो,
सवेरे उठ जाइयो लाड़ो मेरी
सो लाड़ो मेरी दौर जिठानी मिल रहियो,
लड़ाई मत करियो लाड़ो मेरी
सो लाड़ो मेरी ननदी के ताने सुनियो,
जबाब मत दीजो लाड़ो मेरी
सो लाड़ो मेरी इन्ही दिनों के लिए पाली,
बुराई मत लीजो लाड़ो मेरी”
पितृ सत्ता भारत के गाँव, शहरों में कैसे जीवित रखी जाती है, उसका इससे स्पष्ट उदाहरण शायद ही आपको कहीं मिलेगा। पितृ सत्ता विचारधारा के अनुसार किसी भी लड़की के पास स्वायत्ता का अधिकार नही होता। जीवन भर उसके विवेक और समर्पण पर किसी पुरुष का अधिकार होता है और उसका अस्तित्व बिना किसी पुरुष के संरक्षण के अधूरा है। जैसा कि इस गीत की आखिरी दो पंक्तियों में लिखा है, लड़की को सिर्फ़ शादी के दिन के लिए बड़ा किया जाता है और अपने ससुराल जाकर उसे ऐसा आचरण करना है कि वह अपनी परवरिश पर कोई दाग ना लगने दे। लड़की की स्वायत्ता तो पहले ही उससे छीन ली गई थी और फ़िर जब उसे दूसरे घर में भेजा गया तो उससे उसका विरोध का स्वर भी छीन लिया गया। इस प्रकार, वह दी गई सीख के विरोध में कभी कुछ कहने का दुस्साहस नही कर सकती क्योंकि उस का विरोध उसके लिए बदनामी लाता है। ऐसी शिक्षा को सामाजिक स्वीकृति देने के लिए यह लोक गीत ज़िम्मेदार हैं।
कभी अंग्रेज़ी नारीवादी चिंतक मैरी वोलस्टोन क्राफ़्ट ने सत्रहवीं सदी में अपनी किताब “ विन्डीकेशन औफ़ राइट्स औफ़ अ वुमन” में कहा था कि किसी युवती की घरेलू ट्रेनिंग मिलिट्री की ट्रेनिंग से अलग नहीं होती है। दोनों में ही अपना विवेक त्याग कर अन्धश्रद्धा से किसी एक ध्येय को अपना जीवन समर्पित करना होता है। जहाँ सेना का ध्येय होता है देश की रक्षा, वहीं यहाँ लक्ष्य है पितृसत्तात्मक समाज की रक्षा करना।
विवाह ही आखिरी रास्ता
लड़कियों की नीयति में इस देश में आज भी विवाह किसी भी और बात से ज़्यादा महत्वपूर्ण है। खास बात तो यह है कि कई पढ़े लिखे संभ्रांत घरों में आज के समय में भी माँ बाप अपनी काबिल, शिक्षित लड़कियों का जीवन शादी बिना अधूरा मानते हैं। अब जहाँ शहरों की स्वतंत्र लड़कियाँ इस आफ़त से बचती फ़िरती हों, वहाँ आपको बहुत आश्चर्य नही होगा अगर मैं आपको कहूँ कि मेरे घर के पास जो दूध वाला है उसने अपनी तीन बेटियों की शादी 15 साल से कम की उम्र में ही करा दी है।
पर जहाँ गाँव, कस्बों और छोटे शहरों में मां बाप इन रूढ़ियों के चलते अपनी लड़कियों के भविष्य और जीवन को ताक पर रख देते हैं, वहीं क्या वजह है कि ये लड़कियाँ आज के समय में भी इस अन्याय को चुपचाप स्वीकार कर लेती हैं? एक स्पष्ट कारण है शिक्षा का अभाव। पर अगर इस लोक गीत की कुछ पंक्तियों पर गौर करें तो आप समझेंगे कि कैसे विवाह को किसी भी लड़की के लिए अंतिम गंतव्य बनाने में ये सांस्कृतिक धरोहर काम आती हैं।
मेरी बन्नी की बढ़नी बेल, साँवले वर छोटे,
बन्नी के बाबा यों उठ बोले वर दैहों लौटाए,
मंडप में से बरनी बोली, मरूँगी जहर विष खाय,
भँवरियाँ मेरी जाई से पड़ै…”
इस गीत में एक ऐसे बेमेल विवाह का ज़िक्र है जिसमें लड़के को लड़की से कम आँका गया है और जिसके चलते लड़की के पिता चाहते हैं कि ये रिश्ता तोड़ दिया जाए। पर रिश्ता लौटा देने की संभावना से लड़की इतना घबरा जाती है कि ज़हर खा के मरने की धमकी दे देती है। सामाजिक रूढ़ियों से विवाह को इस कदर लड़की के जीवन का फ़लसफ़ा बना दिया जाता है कि लोक गीतों में भी किसी लड़की का बेमेल विवाह उसके अविवाहित रहने से बेहतर कहा जाता है। यदि किसी भी तरह की आधुनिक शिक्षा के बजाय आपको भी बचपन से इस प्रकार की लोक संस्कृति के द्वारा ब्रेन वॉश किया जाए तो बेशक आपको भी इस व्यवस्था में कोई अन्याय नही महसूस होगा।
आर्थिक निर्भरता और गलत प्राथमिकताएँ
एक और दोष जो इन लोक गीतों पर वाजिब है, वह है कि ये महिलाओं की आर्थिक निर्भरता को बढ़ावा देते हैं। और जैसा कि हमेशा होता है, आर्थिक निर्भरता को तभी तक जीवित रखा जा सकता है जब तक निर्भर व्यक्ति की प्राथमिकताएँ गलत हों जिसके चलते वह अपनी आत्मनिर्भरता को छोटे मोटे, मामूली प्रलोभनों की भेंट चढ़ा दे। सदियों से भारतीय महिलाओं को गहनों और ऐसी ही सजावटी चीज़ों का शौकीन बताया गया है। भारतीय हिंदी साहित्य में तो रीतिकालीन काव्य में श्रंगार वर्णन की कविताएं सुप्रसिद्ध हैं जिनमें नयिकओं के सौन्दर्य वर्णन को उनके अस्तित्व का आधार बना दिया गया है। शादी में गाए जाने वाले ऐसे ही अनेक गीत लड़कियों के जीवन का सार, श्रंगार सज्जा में ही परिभाषित करते हैं।  
तेरा अनोखा श्रंगार री बन्नी अलबेली,
मांग सिंदूर सोहे भाल सोहे बिंदिया
मद भरे नैनन में भरी मानो निंदिया
रूप बसंत बहार री बन्नी अलबेली
यदि इस गीत की गहराई में ना भी जाएं तो भी इतना तो समझ आता ही है कि किसी भी लड़की के लिए उसके सजने संवरने की प्राथमिकता उसके विवाह से ही निर्धारित कर दी जाती है। ऐसे गीतों से उसके इसी अवतार का उत्सव मनाया जाता है। और विवाह के बाद भी उसे इन्हीं आडम्बर की वस्तुओं में घेरे रहने की तैयारी कर दी जाती है।
बनवईयो गरे खौं ऐसो हार सईयाँ,
पैन मोसों लगै कोउ हैई नईयाँ
दिखावटी प्रलोभनों में फ़ंसाया जाना जैसे काफ़ी ना हो, तो इन गीतों में इस बात का ख्याल भी रखा गया है कि इन ज़रूरतों के माध्यम से महिलाएँ सदा अपने पति पर आर्थिक और संवेदनात्मक रूप से निर्भर रहें। शादी के गीतों में एक बराबरी के रिश्ते की व्याख्या क्यों अनुपस्थित है? क्यों इन गीतों में महिलाओं को ग्राह्यता का पात्र बना दिया जाता है? बात फ़िर घूम फ़िर कर पितृसत्ता की ओर इशारा करती है। ये गीत भले ही औरतों की दुनिया में कायम हों पर इस दुनिया की संरचना पुरुष समाज की ही करनी लगती है।
विरोध की संभावना
क्या लोक गीतों में विरोध की भी कोई प्रेरणा छुपी हो सकती है? क्या सभी शादी के गीत औरतों को निष्क्रिय ग्राह्य पात्र के रूप में ढालते हैं, या फ़िर क्या इन गीतों में स्त्री को कर्ता के रूप में भी कल्पित किया गया है, जिसमें स्वयं निर्णय लेने की क्षमता हो? इन प्रश्नों का उत्तर ढूंढते हुए जब इन सभी गीतों का विश्लेषण कर रहा था, तब इस एक गाने से मेरा परिचय हुआ।
“रेल गाड़ी में बैठा फ़िरंगी,
मैं बदला कर लेती।
सुन ननदी री,
मोटा होता बदल लेती,
दुबला पतला न बदला जाए”
गीत खड़ी बोली में है, इसलिए समझना आसान है, पर इसका सारांश बता दूँ तो अपनी बात कहने में आसानी होगी। ये पंक्तियां दुल्हन के द्वारा अपने ससुराल में अपनी नन्द (पति की बहन) को कही जा रही हैं। इनमें वह कह रही है कि रेल में उसे एक विदेशी मिला था। वह इतना आकर्षक था, कि यदि उसके पति में कोई कमी होती तो वह उसे बदल देती और विदेशी को अपना साथी बना लेती।
किसी भी भारतीय गीत में, फ़िर चाहे वह फ़िल्मी गीत ही क्यों न हों, शायद ही आपको इस तरह की घृष्टता का परिचय मिले। यहां स्त्री पात्र निष्क्रिय नही है। अपने जीवन साथी को न सिर्फ़ चुनने की बल्कि उसे संतोषजनक ना पाने पर उसे छोड़ देने की उद्दंडता का साहस दिखाने वाली, इस गीत की गायिका किसी भी रूप में आदर्श भारतीय नारी का प्रतिरूप नही है। वह ना तो गांधारी है जो बेमेल विवाह को निभाने के लिए अपने आप को कष्ट दे, और ना ही कोई पतिव्रता सावित्री है जो हर हाल में अपने पति का साथ निभाए। वह जानती है उसे क्या चाहिए और असंतुष्टि की किसी भी स्थिति में समाज की रूढ़ियों को तोड़ने का साहस उसमें है। इस तरह की स्वतंत्रता को हमेशा से पाने वाले पुरूष शायद ऐसी महिला को समाज में ना रहने दें और समाज में शायद ही ऐसी दुस्साहसी स्त्री से आपका परिचय हो, पर ऐसी कल्पना का लोक गीत के परंपरा वादी ढांचे में होना विरोध के स्वर की संभावना को दर्शाता है। पर अफ़सोस, अपने सीमित शोध में यह एक ही गीत मेरे समक्ष आया जिसमें किसी स्त्री द्वारा ना सिर्फ़ पुरुष स्वरूप का, बल्कि उससे जुड़ी पूरी व्यवस्था का उपहास किया गया है।
कुछ अंतिम शब्द
लोक गीतों को कभी इतनी करीब से मैंने नही देखा था। किसी भी शादी में ऐसे गीतों को हम आराम से नंज़र अंदाज़ कर लेते हैं। पर ये गाने हमारी सांस्कृतिक धरोहर की मासूम कड़िया भर नही है जिन्हें समय समय पर पॉप कल्चर, फ़िल्मी संगीत या फ़िर सामुदायिक परंपरावादी कुछ अलग और नया तलाशने की जुगत में श्रद्धांजली देते रहते हैं। ये गीत परंपराओं और सामाजिक रूढ़ियों को ढोने वाले वाहन हैं जो सदियों से पीढ़ी दर पीढ़ी चले आ रहे हैं और हर नए युग में जहाँ पुरुष का नित नई आधुनिकता से साक्षातकार कराया जाता है, वहीं ये गीत और ऐसी ही समस्त परंपराएं स्त्रियों के सर पर लाद दी जाती हैं।
इस दोहरे मापदंड से हर समाज वाकिफ़ है। सूसन मोलर ओकिन, प्रख्यात अमरीकी नारीवादी चिंतक ने परंपरा के संदर्भ में सवाल किया था, कि आखिर ये परंपराएं समाज के किस वर्ग की धरोहर हैं। अपनी खोज में उन्होंने पाया कि पश्चिमी सभ्यता की परंपराएँ भी औरत और पुरूष को अलग अलग सांचों में बाँटने का काम करती हैं और इन्हें बिना कोई सवाल पूछे निभाना स्त्री समाज के साथ अन्यायपूर्ण है।
मेरी बोरियत के समाधान के रूप में उभरी इस खोज ने मुझे समझाया कि मासूम से लगने वाले, सदियों से चले आ रहे रस्म, रिवाज इतने भी मासूम नही हैं। जब अर्थ व्य्वस्था की बात आती है तो हम आसानी से याद कर लेते हैं कि भारत की सिर्फ़ 25% प्रतिशत जनता शहरों में रहती है, पर जब सामाजिक रीतियों, नीतियों पर हम गौर करते हैं तो शायद यही तथ्य आसानी से भूल जाते हैं। जहाँ समाज कि अधिकांश महिला आबादी को उनकी अपरिवर्तनीय स्तिथि में रखने के लिए इतने मनमोहक गीतों का प्रावधान हो, वहां उपेक्षा को पहचानना और दुरुस्त करना और भी कठिन पर और भी वांछनीय हो जाता है।   

16 thoughts on “लोक संस्कृति का जाल- शादी के गीत।

  • December 12, 2012 at 8:23 pm
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    Very interesting read! I must say you have given intense thought to it. Especially the economic dependence on account of consumerism is quite original and not that common an observation. Though I would not rate the song treated as an example of an independent voice as a good example of it, but I must say reading the article was a pure delight. And I myself was surprised at the different impact it had on being written in such good hindi! You should sent the Hindi version also for publication! 🙂

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  • December 12, 2012 at 8:53 pm
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    Very interesting read! I must say you have given intense thought to it. Especially the economic dependence on account of consumerism is quite original and not that common an observation. Though I would not rate the song treated as an example of an independent voice as a good example of it, but I must say reading the article was a pure delight. And I myself was surprised at the different impact it had on being written in such good hindi! You should sent the Hindi version also for publication! 🙂

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  • December 13, 2012 at 4:01 am
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    Thanks for the wonderful feedback. 🙂 Regarding the voice of protest example, I agree with you. But since there was such a dearth of unconventional songs, only this one barely made the cut for me. But the search is on for a more appropriate song to fit this category 🙂

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  • December 13, 2012 at 4:31 am
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    Thanks for the wonderful feedback. 🙂 Regarding the voice of protest example, I agree with you. But since there was such a dearth of unconventional songs, only this one barely made the cut for me. But the search is on for a more appropriate song to fit this category 🙂

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  • December 18, 2012 at 8:22 pm
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    सब से पहले तो आपके लिखने के अंदाज़ की तारीफ करुगी,, जिस तरह पुराने लोक गीत के माध्यम से समाज में जो चल रहा उस पे टिपण्णी करने का तरीका लाजवाब लगा ,, मेरी हिंदी इतनी अच्छी नहीं है ,, गलती हो तो IGNORE करना,, 🙂

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  • December 18, 2012 at 8:52 pm
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    सब से पहले तो आपके लिखने के अंदाज़ की तारीफ करुगी,, जिस तरह पुराने लोक गीत के माध्यम से समाज में जो चल रहा उस पे टिपण्णी करने का तरीका लाजवाब लगा ,, मेरी हिंदी इतनी अच्छी नहीं है ,, गलती हो तो IGNORE करना,, 🙂

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  • December 19, 2012 at 8:43 am
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    महिलाएं अनजाने में सन्स्कृतिक परम्पराओं को निभाती हुई समझ नहीं पाती हैं, कि वे इनके जाल में फ़ंसती हुई अपनी उन्नति और प्रगती का मार्ग अवरुद्ध कर देती हैं । इस लेख के माध्यम से महिलाओं को इस भ्रामक स्थिति से निकलने को कुशलता से इंगित किया गया है। शादी­­-विवाह और अन्य रस्मों के गीतों को इस लेख की दृष्टि से देखना आवश्यक है।

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  • December 19, 2012 at 9:13 am
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    महिलाएं अनजाने में सन्स्कृतिक परम्पराओं को निभाती हुई समझ नहीं पाती हैं, कि वे इनके जाल में फ़ंसती हुई अपनी उन्नति और प्रगती का मार्ग अवरुद्ध कर देती हैं । इस लेख के माध्यम से महिलाओं को इस भ्रामक स्थिति से निकलने को कुशलता से इंगित किया गया है। शादी­­-विवाह और अन्य रस्मों के गीतों को इस लेख की दृष्टि से देखना आवश्यक है।

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