आलोचना और पूर्वाग्रह
साहित्य और समाज: ‘हिन्दी के चर्चित उपन्यासकार’ मिश्र की उपन्यासों और उपन्यासकारों की आलोचना का एक ही पुस्तक में समेटने का बृहद प्रयास है। परन्तु इसमें उनकी पूर्वाग्रहग्रस्त सोच अनेक जगह दृष्टिगत होती है। इस लेख में इन्हीं कुछ लक्षणों को इंगित करने का प्रयास किया गया है।
(लेखिका परिचय- अमिता चतुर्वेदी ने हिन्दी साहित्य में एम. फिल. की उपाधि प्राप्त की है। वह ‘अपना परिचय ‘ नामक ब्लॉग पर लिखती हैं। )
(लेखिका परिचय- अमिता चतुर्वेदी ने हिन्दी साहित्य में एम. फिल. की उपाधि प्राप्त की है। वह ‘अपना परिचय ‘ नामक ब्लॉग पर लिखती हैं। )
साहित्य की किसी भी विधा की आलोचना में उसके गुण-दोषों की समीक्षा होती है। आलोचना विचारधारा निहित होती है और साहित्य की दिशा निर्धारित करती है। परन्तु इसके लिये आवश्यक है कि आलोचना पूर्वाग्रह रहित तथा निष्पक्ष हो, जिसको आलोचक की व्यक्तिगत रुचि प्रभावित न करे।
सभी विधाओं में उपन्यास सर्वाधिक लोकप्रिय रहे हैं तथा उनकी साहित्यकारों द्वारा आलोचनाएँ भी होती रही हैं। इन्हीं साहित्यकारों में एक भगवतीशरण मिश्र हैं, जिन्होंने “हिन्दी के चर्चित उपन्यासकार” पुस्तक में उपन्यासों और उपन्यासकारों की आलोचना की है।
मिश्र ने ‘अग्नि पुरूष’ (बल्लभाचार्य के जीवन पर आधारित), ‘का के लागूँ पाँव’ (गुरु गोविन्द सिंह और उनके पिता के जीवन पर आधारित), ‘पवनपुत्र’ (हनुमान के देवत्व की पुनर्स्थापना करता उपन्यास), ‘प्रथम पुरूष’(कृष्ण के जीवन पर आधारित), ‘गुहावासिनी’(वैष्णो देवी पर आधारित), ‘पीताम्बरा’(मीरा के जीवन पर आधारित) आदि, जैसी रचनाओं का लेखन किया है। इनको देखकर प्रतीत होता है कि मिश्र को जीवनियों, पौराणिक पात्रों के साथ ऐतिहासिक रचनाओं में रुचि है।
‘हिन्दी के चर्चित उपन्यासकार’ मिश्र की उपन्यासों और उपन्यासकारों की आलोचना का एक ही पुस्तक में समेटने का बृहद प्रयास है। परन्तु इसमें उनकी पूर्वाग्रहग्रस्त सोच अनेक जगह दृष्टिगत होती है। इस लेख में इन्हीं कुछ लक्षणों को इंगित करने का प्रयास किया गया है।
मांसल प्रेम सेक्स सम्बन्धी चित्रण होने पर उन्हें विशेष आपत्ति प्रतीत होती है। उनके अनुसार प्रेम पर आधारित उपन्यास यदि मांसल प्रेम और वासना से दूर हों तभी आदर्शवादी हो सकते हैं। हिन्दी के आरम्भिक दौर के उपन्यासकार देवकीनंदन खत्री के उपन्यासों का विश्लेषण करते हुए मिश्र उन्हें “आदर्शवादी रचनाकारों की श्रेणी” में मानते हैं क्योंकि उनमें “प्रेम मांसल” नहीं है।[1] अज्ञेय की, उनके उपन्यास‘नदी के द्वीप’ के लिए, “निर्भीक चिन्तक एवं लेखक” के रूप में प्रशंसा करते हुए भी वह उनके चित्रण को “वासना जनित कुंठा” कहकर उनकी निजता पर प्रहार करने से नहीं चूकते।[2]
मिश्र की आलोचना मूल्य, संस्कार और मर्यादा आदि की दृष्टि से अत्यन्त प्रभावित होती है और उस आधार पर वह उपन्यासकार द्वारा स्थापित विषय की अवहेलना करने लगते हैं। वासना और मांसल चित्रण के अतिरिक्त भी मोहन राकेश के उपन्यासों में “स्त्री–पुरूष की दूरी और तनाव” से भी उनको समस्या है।[3] कृष्णा सोबती के ‘सूरजमुखी अंधेरे के’ की बात जब आती है तो मिश्र कहते है कि इसमें “काम की प्रधानता” जैसे“व्यापक संकट” की ओर ध्यान दिया गया है। उनके अनुसार भले ही वह “मूल्यों के संगोपाषक” लोगों के ‘’गले नहीं उतरे”।[4] यहाँ उनकी अपरोक्ष रूप से आपत्ति का आभास होता है। लेखक ने समाज की बुराईयों के भी कई भेद बना लिये हैं और उनकी दृष्टि में बहुत ही सीमित समस्याएँ हैं जिनका उपन्यासों में उल्लेख किया जाना चाहिये।
मिश्र के अनुसार रेणु के “उपन्यास में प्रेमिकाओं और वासना – विलासिता” तथा “औरतों के शारीरिक शोषण” आदि “कुत्सित पक्ष” की प्रधानता है। उनको इस प्रकार के “कुत्सित पक्ष को उजागर करने से अतिशयोक्ति की गन्ध आती है”, जिनसे “मूल्यों का विघटन” होता है और जो “प्रबुद्ध पाठक के मन में जुगुप्सा अधिक पैदा करता है”।[5] यहाँ कहा जा सकता है कि उपरोक्त “कुत्सित पक्ष” भी सामाजिक संदर्भ ही हैं। इनके उजागर होने से ही समाज का विश्लेषण होता है। आंचलिक रचनाकार के रूप में रेणु की लोकप्रियता का कारण भी मिश्र को हिन्दी साहित्य में आंचलिक उपन्यासों का अभाव होना ही लगता है।
वहीं प्रभा खेतान के ‘अपने–अपने चेहरे’ के विषय में लिखते हुए मिश्र की उक्ति है– “ऐसे भी मारवाड़ी–परिवार की औरतें सौंदर्य में अन्य औरतों से आगे ही रहतीं हैं’’।[6] उनके इस विचार को पढ़कर यह मालूम होता है कि एक पुरुष आलोचक को पूरी छूट है कि वह औरतों के विषय में सार्वजनिक टिप्प्णी कर सकता है क्योंकि पुरूष के लिए मर्यादा में बँधना आवश्यक नहीं है।
परन्तु नारी के लिए मर्यादाओं के महत्व को स्थापित करने में मिश्र कहीं नहीं चूकते। यह स्पष्ट होता है उनके द्वारा मृदुला गर्ग के उपन्यास ‘चितकोबरा’ की आलोचना को पढ़कर जहाँ वह नारी के संदर्भ में उन्हीं मूल्यों, संस्कारों और मर्यादाओं की बात करने लगते हैं। यदि उपन्यास में सम्बन्ध“मानसिक स्तर से बढ़कर दैहिक स्तर पर उतर आते हैं” तो उनके अनुसार यह लेखिका द्वारा ‘’स्थापित मूल्यों, संस्कारों एवं मर्यादाओं पर प्रश्नचिंह लगाना’’ हो जाता है। वह कहते हैं कि ‘’यही आधुनिक पढ़ी–लिखी नारी का जीवन सत्य हो सकता है, इसे स्वीकार करने के लिये पाठकीय साहस भी अपेक्षित है।”[7] मिश्र शायद नहीं चाहते कि स्त्रियों को पढ़ना–लिखना चाहिये क्योंकि उनके लिए यह आधुनिक स्त्री पर कटाक्ष करने का एक विषय है और पढ़ी-लिखी नारी के जीवन सत्य को पढ़ने के लिये पाठक में साहस की आवश्यकता है।
मन्नू भन्डारी की प्रसिद्धि को कोई प्रशंसनीय उपल्ब्धि नहीं मानते हुए वह उन्हें “राष्ट्र की अस्मिता एवं उसकी समृद्ध संस्कृति तथा दीर्घ परम्परा पर प्रहार” करने का दोषी मानते हैं।[8] ऐसा लगता है मिश्र एक ऐसे संस्कृति से ओतप्रोत समाज में रहे हैं, जहाँ सारा देश सुखी, सम्पन्न व भय रहित है। मिश्र समाज की समस्त बुराईयों से आँखें मूँदे मूल्य, परम्परा, संस्कृति के बन्धन में बँधे रहते हैं और इसी दृष्टि से उन्होंने अनेक उपन्यासकारों की भर्त्सना की है।
भारतीय मूल्यों के प्रति अत्यधिक आस्था के कारण ही निर्मल वर्मा पर टिप्पणी करते हुए वह कहते हैं कि “उन्हें भारतीय मूल्यों की कोई विशेष चिन्ता नहीं” एवं उनकी कृतियों में “अवसाद, निराशा, ऐकान्तिक कष्ट तथा पार्थक्य–बोध” मिश्र के लिये चिंता के विषय हैं क्योंकि ये “पाश्चात्य मूल्य” हैं।[9] मिश्र जिन विषयों की चर्चा कर रहे हैं, ये जीवन के महत्वपूर्ण विषय हैं जो समाज के एकाकी, नैराश्य एवं तनावग्रस्त स्वरूप में मनुष्य को अत्यधिक प्रभावित करते हैं। अतः इनका चित्रण उपन्यासों में होना उचित एवं आवश्यक है।
धार्मिक आस्था में कट्टरता उन्हें आलोचना में निरपेक्ष नहीं रहने देती। मिश्र स्वयं कहते हैं कि प्रसाद ने ‘कंकाल’ उपन्यास में “धर्म का आडम्बर करने वाले व्यक्तियों और धर्म की रक्षा – हेतु स्थापित संस्थाओं की कारगुजारियों” को उजागर किया है। इस काम में उन्होंने तीर्थ स्थलों के नाम भी लिये हैं। यह मिश्र के लिये बहुत आपत्तिजनक बात है। साथ ही प्रसाद द्वारा इन संस्थाओं की “आर्थिक हेराफ़ेरी को प्रायः उपेक्षित करते हुए वासनाओं के नग्न नृत्य” पर ध्यान देने पर वह आपत्ति व्यक्त करते हैं। उनकी कटुता तब बेहद प्रत्यक्ष हो जाती है जब वह इस उपन्यास को “प्रबुद्ध पाठक” के लिए “सिर पीटने” वाला अनुभव बताने लगते हैं।[10]यह उल्लेखनीय है कि धार्मिक आडंबर एवं भ्रष्टाचार आज के समय में भी प्रासंगिक मुद्दे हैं। इसी प्रकार यशपाल शर्मा की मार्क्सवादी और प्रगतिशील विचारधारा की भी उन्होंने निन्दा की है क्योंकि“उनकी प्रगतिशीलता धर्म और ईश्वर को हाशिये पर रख देती है।”[11]
व्यक्तिवादी धारा को समाज से नहीं जुड़ा हुआ मानकर वह इससे जनित साहित्य को निरर्थक एवं उद्देश्यहीन मानते हैं। मिश्र की दृष्टि में प्रमुख व्यक्तिवादी उपन्यासकार ‘’जैनेन्द्र के पात्र और पुरूष अपने जिस समाज से आते हैं उसका प्रतिनिधित्व करने मे सक्षम नहीं होते”, अतः उनके उपन्यासों की साहित्यिक उपयोगिता पर ही वह प्रश्नचिन्ह लगाते हैं।[12] वैयक्तिक अभिव्यक्ति के संदर्भ में प्रमुख आलोचक बच्चन सिंह का कहना उचित ही लगता है कि “रूढ़ सामाजिक संस्कार व्यक्ति– स्वातंत्र्य को खुलकर सामने नहीं आने देते।” इसी प्रवृत्ति के कारण ही व्यक्तिवादी धारा को गलत ठहराने के अनेक उपाय ढूँढे जाते हैं।[13]व्यक्तिवादी उपन्यास व्यक्ति की मनोदशा को समझने में सहायक होते हैं। समाज व्यक्ति से बनता है, अतः व्यक्ति की वैयक्तिक समस्याओं को समझना समाज को समझने के लिये भी आवश्यक है।
इनके अतिरिक्त मिश्र दलित चर्चा को भी पसंद नहीं करते। निराला के उपन्यास ‘अप्सरा’ के विषय में लेखक ने उल्लेख किया है “इस उपन्यास में दलित चेतना उभर कर आई है जिसकी चर्चा आज का शौक बन गया है।”[14] मिश्र का दलित चर्चा को एक शौक मानना दलित चेतना पर अधारित उपन्यासों से भी उनकी आपत्ति दिखाता है।
उपरोक्त सम्पूर्ण विवरण देखने से यही लगता है कि मिश्र के लिए धार्मिक, हिन्दूवादी मूल्य, परम्परा, संस्कृति का पोषण, पितृसत्तात्मक सोच महत्वपूर्ण हैं। प्राय: मूल्य परम्परा, संस्कृति की रक्षा, धार्मिक व्रत –उपवास, पूजापाठ आदि का निर्वाह स्त्रियों को ही करना पड़ता है। मिश्र की आलोचना में ये पूर्वाग्रह स्पष्ट रूप से दिखाई देते हैं।
मैत्रेयी पुष्पा कहती हैं कि “संपादन के लिये महिला का चयन करना अभी पुरूष सत्ता में सामान्य नहीं है।” क्योंकि पुरूषों का स्वभाव “व्यूह रचना” का होता है जिसमें “चुन –चुनकर अहम पदों पर उन लोगों को बैठाना चाहते हैं जो हर सही गलत में उनका साथ दे।” साथ ही उनका कहना है कि “आलोचना का क्षेत्र तो पूरी तरह से मर्दों ने अपने हाथ में ले रखा है क्योंकि इसमें बहुत लोगों को अपने इर्द–गिर्द घुमाया जा सकता है।”[15] इसी पितृसत्तात्मक सोच के कारण आलोचना के क्षेत्र में पुरूष अधिक दिखाई देते हैं और साहित्य आलोचना में उनका दबदबा रहता है।
मिश्र के अनुसार ऐतिहासिक उपन्यासों को छोड़कर सभी प्रकार के उपन्यास लिखना बहुत आसान है। जैसा कि वो कहते हैं, “गाँवों में व्याप्त अन्धविश्वास, अशिक्षा, रोग, जातिगत विद्देष, छूआछूत की भावना आदि ऐसे शाश्वत विषय थे जिनपर पर लेखनी चलाकर कोई भी सहज ही उपन्यासकार बन सकता था।”[16] प्रेमचन्द के लिये मिश्र लिखते हैं, “प्रेमचद ने गाँवों के जीवन पर ही लिखकर अमरत्व प्राप्त कर लिया।”[17] साथ ही मिश्र कहते हैं “जो हो प्रेमचन्द युगीन ग्रामीण उपन्यास हों अथवा प्रेमचन्द के बाद के, किसी में वह परिश्रम नहीं करना पड़ता जो एक ऐतिहासिक उपन्यासकार को करना पड़ता है।”[18]
मिश्र के साहित्य एवं आलोचना में ऐतिहासिक चित्रण की प्राथमिकता स्पष्ट दिखाई देती है। बच्चन सिंह का कहना है कि “अतीतोन्मुखी इतिहासकार अथवा साहित्यकार पुनरुत्थान्वादी होकर जड़ हो जाता है।”[19] सिंह के इस कथन के संदर्भ में मिश्र के साहित्य एवं आलोचना में ऐतिहासिक रुझान को टटोलना आवश्यक हो जाता है। ऐतिहासिक रूझान तथा धार्मिक कट्टरता सम्पन्न आलोचना, जो मूल्यों, मर्यादाओं, तथा संस्कारों की पोषक है तथा जिसमें दलित चर्चा की अवहेलना है, एक प्रभुत्व वर्ग का ही प्रतिनिधित्व कर सकती है।
मिश्र की इस आपात्ति का कोई औचित्य नहीं लगता है क्योंकि लेखक अपने लेखन के विषय का चयन करने के लिये स्वतंत्र होता है। ऐसी आलोचना से प्रगतिशील विचारधारा में अवरोध उत्पन्न होने की सम्भावना है। आलोचना निष्पक्ष तथा सभी वर्ग समुदाय के अनुसार हो तभी साहित्य के लिये उसकी सार्थकता सिद्ध हो सकती है।
आलोचना सामाजिक संदर्भ में भी आवश्यक है क्योंकि साहित्य और समाज का पारस्परिक सम्बन्ध है। आलोचना साहित्य के दोषों को इंगित कर गुणवत्ता की संभावना प्रदान करती है। विचारशीलता युक्त साहित्य का समाज के बौद्धिक उत्कर्ष में महत्वपूर्ण स्थान है और उचित आलोचना इस विचारशीलता को निरंतर परिष्कृत करने का दायित्व निभा सकती है।
[1] डा भगवतीशरण मिश्र, ‘हिन्दी के चर्चित उपन्यासकार’, (राजपाल एण्ड सन्ज,दिल्ली 2010), पृ 14
[2] वही, 415
[3] वही, 361
[4] वही, 231
[5] वही,190
[6] वही, 396
[7] वही, 391
[8] वही, 379
[9] वही, 437
[10] वही, 53,55
[11] वही, 107
[12] वही, 130
[13] बच्चन सिंह, ‘आधुनिक हिन्दी साहित्य का इतिहास’ (लोकभारती प्रकाशन इलाहाबाद,2012), पृ 324
[14] डा भगवती शरण मिश्र, ‘हिन्दी के चर्चित उपन्यासकार’ (राजपाल एन्ड सन्ज,दिल्ली) पृ 408
[15] मैत्रेयी पुष्पा, ‘जुनून है अच्छी बने रहने का’, दैनिक जागरण, 15 अगस्त 2015
[16] डा भगवती शरण मिश्र, ‘हिन्दी के चर्चित उपन्यासकार’ (राजपाल एन्ड सन्ज,दिल्ली), पृ 472
[17] वही
[18] वही, 473
[19] बच्चन सिंह, ‘आधुनिक हिन्दी साहित्य का इतिहास’ निवेदन (लोक भारती प्रकाशन, इलाहाबाद)