मध्यमवर्गीय सिनेमा की हिन्दी सिनेमा पर अमिट छाप: ‘चुपके चुपके’ पर एक टिप्पणी
साठ के दशक के उत्तरार्ध में हिन्दी सिनेमा में बहुत से नए परिवर्तन देखने को मिल रहे थे। भारतीय सिनेमा में यथार्थवाद अभूतपूर्व तरीके से आगमन कर रहा था। हिन्दी सिनेमा में इस यथार्थवाद की संवाहक दो विशिष्ट रूप की सिनेमा थीं- एक जिसे भारत (हिन्दी) की नई सिनेमा कहा गया और दूसरी मध्यमवर्गीय सिनेमा। नई सिनेमा, जिसे न्यू वेव सिनेमा भी कहा गया, भारतीय सरकार के अनुदान से पोषित एक परियोजना के तहत आरम्भ हुई जिसमें मुख्यधारा सिनेमा के विपरीत यथार्थवादी दृष्टिकोंण, सामाजिक-राजनैतिक सरोकार और आम लोगों के जीवन से जुड़ी कहानियों का समावेश देखने को मिलता था। बाकी देशों की सिनेमा के न्यू वेव चलन की तरह हिन्दी न्यू वेव में बहुत अधिक प्रयोगात्मकतावाद नहीं था पर क्योंकि हिन्दी सिनेमा में इतने दशकों तक मुख्यत: मेलोड्रामा और अतिनाटकीयता हावी थे इसलिए विशुद्ध यथार्थवादी सिनेमा को भी न्यू वेव का दर्जा दिया गया। इसी यथार्थवाद से प्रेरित न्यू वेव के सामानांतर एक और सिनेमा का उदय हो रहा था जो कि आने वाले दशकों में हिन्दी सिनेमा की एक विशिष्ट सिनेमा श्रेणी के रूप में उभर कर स्थापित हुई। यह सिनेमा थी मध्यमवर्गीय सिनेमा। न्यू वेव की तरह यह सिनेमा भी यथार्थवादी दृष्टिकोंण और आम लोगों के जीवन से जुड़ी हुई थी पर इसमें नई सिनेमा की तरह सामाजिक-राजनैतिक सरोकार उस तरह से व्याप्त नहीं था अपितु केवल एक संदर्भ मात्र के रूप में उपस्थित था।
मध्यमवर्गीय सिनेमा का मुख्य उद्देश्य था एक नए उभरते मध्यमवर्ग के दर्शक वर्ग को मध्यमवर्ग के जीवन की कहानियों से रूबरू कराना। इन फिल्मों में मुख्य केन्द्र में थे मध्यमवर्ग के जीवन के दैनिक विषय, परेशानियाँ, खुशियाँ, मूल्य और नीतिबोध। न्यू वेव सिनेमा की तरह ही मध्यमवर्गीय सिनेमा के साथ भी कुछ विशेष फ़िल्मकार और कलाकार जुड़े हुए थे। इनमें से एक प्रमुख नाम था ॠषिकेश मुखर्जी का। हालांकि ॠषिकेष मुखर्जी बहुत पहले से ही फिल्में बनाते आ रहे थे और उनकी अधिकांश फिल्में पहले भी मध्यमवर्ग या उच्च मध्यमवर्ग का प्रतिनिधित्व करती थीं पर मध्यमवर्गीय सिनेमा के चलन की शुरुआत के साथ उन्हें एक ऐसा दर्शक वर्ग तैयार मिला जो कि उनकी फिल्मों के लिए बिल्कुल उपयुक्त था। उनकी एक ऐसी ही फिल्म थी 1975 में आई चुपके चुपके ।
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