हिंसा और वीभत्सता से ओत-प्रोत आधुनिक पौराणिक उपन्यास
(लेखिका परिचय- अमिता चतुर्वेदी ने हिन्दी साहित्य में एम. फिल. की उपाधि प्राप्त की है। यह लेख मूलत: उनके ब्लॉग ‘अपना परिचय ‘ पर प्रकाशित हो चूका है। )
धर्म और साहित्य का सम्बन्ध आज एक नया रूप ले चुका है, जिसके फ़लस्वरूप पौराणिक कथाओं पर आधारित अनेक उपन्यास आजकल लोकप्रिय हो रहे हैं। इन उपन्यासों में पौराणिक पात्रों को नवीन परिवेश में रूपान्तरित कर, बड़ी कुशलता से आज देश में आक्रामक रूप से हिंसा का प्रश्रय लेती हुई, धार्मिकता का लाभ उठाने का प्रयास किया जा रहा है। साथ ही इनमें वर्णित ब्राह्णणवाद, जातिवाद, छूआछूत, असमानता और वर्गीय हिंसा तथा घृणा को विस्तृत रूप में व्यक्त किया जा रहा है, जिससे इन विषमताओं के प्रबल होने की संभावनाएँ हैं, जिसके कारण समाज के पुनः पुराने दौर में जाने का खतरा हो सकता है। ऐसे ही उपन्यासों में अमीश त्रिपाठी का ‘मेलुहा के मृत्युंजय’ और अशोक के बैंकर का ‘अयोध्या का राजकुमार’ समाहित हैं।
धर्म और साहित्य का सम्बन्ध आज एक नया रूप ले चुका है, जिसके फ़लस्वरूप पौराणिक कथाओं पर आधारित अनेक उपन्यास आजकल लोकप्रिय हो रहे हैं। इन उपन्यासों में पौराणिक पात्रों को नवीन परिवेश में रूपान्तरित कर, बड़ी कुशलता से आज देश में आक्रामक रूप से हिंसा का प्रश्रय लेती हुई, धार्मिकता का लाभ उठाने का प्रयास किया जा रहा है। साथ ही इनमें वर्णित ब्राह्णणवाद, जातिवाद, छूआछूत, असमानता और वर्गीय हिंसा तथा घृणा को विस्तृत रूप में व्यक्त किया जा रहा है, जिससे इन विषमताओं के प्रबल होने की संभावनाएँ हैं, जिसके कारण समाज के पुनः पुराने दौर में जाने का खतरा हो सकता है। ऐसे ही उपन्यासों में अमीश त्रिपाठी का ‘मेलुहा के मृत्युंजय’ और अशोक के बैंकर का ‘अयोध्या का राजकुमार’ समाहित हैं।
मेलुहा के मृत्युंजय
‘मेलुहा के मृत्युंजय’ शिव नामक एक पात्र के जीवन पर आधारित है जिसमें उसे एक साधारण मानव के साथ एक चमत्कारी रूप में भी चित्रित किया गया है। उपन्यास के एक विशेष प्रसंग में शिव के गाँव में बाहरी लोगों के घुस आने की घटना का विवरण है। ऐसे में सुरक्षा के लिए तैनात सैनिक के झपकी आ जाने पर शिव के मित्र भद्र द्वारा उन्हें ‘जोर से ठोकर’ मारकर जगाने पर, शिव प्रसन्न होकर कहते हैं, ‘कम से कम वह कुछ जिम्मेदारियों का निर्वाह करता है।’ किसी के भी साथ इस प्रकार का व्यवहार अमर्यादित है और इस पर शिव के प्रसन्न होने से अमीश त्रिपाठी गलत संदेश देते हैं। ऐसे ही अनेक प्रसंगों द्वारा उपन्यास जातिवाद, हिंसक युद्ध, विकर्म की अवधारणा के साथ शुद्धीकरण आदि का प्रेषक बनता है।
जातिगत भेदभाव
त्रिपाठी ने जातिगत भेदभाव को विस्तृत रूप में चित्रित किया है। ब्राह्मण, क्षत्रिय तथा सूर्यवंशियों को श्रेष्ठ और चन्द्रवंशी तथा नागाओं को निम्नतर बताया है। उपन्यास में किसी व्यक्ति की जाति स्पष्ट करने के लिए उसके शरीर पर प्रतीक चिन्ह बने होने का विवरण है। शिव के सन्दर्भ में लिखा गया है कि, सती ने ‘बिना जाति सूचक चिन्ह वाले विदेशी को आँखें तरेर कर देखा जिसे उसकी औकात का पता नहीं था’। इस प्रकार शिव जिन्हें उपन्यास में सबसे प्रमुख पात्र बनाया गया है, उसे भी जातिगत आधार पर पहचानने से बख्शा नहीं गया है।
ब्राह्मणों की श्रेष्ठता अमीश त्रिपाठी ने इस प्रकार भी सम्पादित की है कि ब्रह्मा ने ‘त्रुटिहीन चरित्र’ वाले किशोरों को सोमरस देकर ब्राह्मण बनाया तथा उन्हें एक अतिरिक्त जीवन दिया। इसलिए उन्हें ‘द्विज अर्थात दो बार जन्म लेने वाला कहा गया’। इन ब्राह्मणों ने अपना जीवन ‘बिना किसी द्रव्य के लाभ की आशा किए समाज की अच्छाई के लिए अर्पित कर दिया।’ आगे उपन्यास में वर्णित है कि ब्राह्मणों का यह समूह ‘सम्पूर्ण इतिहास में सबसे शक्तिशाली समूह’ बन गया।
चन्द्रवंशियों द्वारा ब्राह्मणों पर अत्याचार का चित्रण करते हुए त्रिपाठी ने लिखा है कि, ‘अंग–भंग किए हुए ब्राह्मणों के शरीर मंदिर के आस–पास बिखरे पड़े थे। उन्हें एक साथ इकट्ठा कर उनकी हत्या कर दी गई थी’ तथा ‘पूरा का पूरा मंदिर नष्ट कर दिया गया है और सारे ब्राह्मणों की हत्या कर दी गई’। पौराणिक कहानियों में इतिहास की भाँति साक्ष्य नहीं होते, इसलिए लेखक अपनी इच्छानुसार उनमें परिवर्तन कर सकता है, जिसका लाभ अमीश त्रिपाठी ने भरपूर उठाया है।
उपन्यास में मुख्यतः भेद सूर्यवंशी और चन्द्रवंशियों के मध्य है। कहानी के अनुसार चन्द्रवंशी ‘अविश्वासी लोग’ हैं, जिनसे बात करना ‘अपनी आत्मा को गंदा करना’ जैसा है। वे आतंकी हमले करते हैं जिनमें उन्होंने ‘शापयुक्त नागाओं’ का प्रयोग किया है। वो युद्ध के नियम के बिना ‘कायरों की तरह युद्ध करते हैं’। उपन्यास में आगे वर्णित है कि स्वद्वीप के लोगों को उनके ‘चन्द्रवंशी शासक’ और उनकी जीवनशैली’ ने बुरा बना दिया। चन्द्रवंशी ‘कुटिल, अविश्वसनीय और आलसी लोग है जिनके पास कोई विधि नैतिकता और सम्मान नहीं है’ जो ‘मानवता के ऊपर एक धब्बा’ हैं।
त्रिपाठी ने सूर्यवंशियों को स्वयं के लिए गर्व के साथ ही उन्हें, चन्द्रवंशियों के प्रति हीन भावना से ओत–प्रोत दिखाया है। इसका उदाहरण देखने को मिलता है जब एक प्रसंग में सूर्यवंशी राजा, चंद्रवंशी राजा को इस प्रकार का उपदेश देते हुए मिलते हैं– ‘हम आपको ऊँचा उठाकर हमारी श्रेष्ठ जीवन–शैली तक लाना चाहते हैं,…हम आप में सुधार लाएंगे’। इस प्रसंग में जातीय–श्रेष्ठता का भाव निहित है। इसी प्रकार एक और उदाहरण में त्रिपाठी ने चन्द्रवंशियों के संदर्भ में लिखा है कि ‘उनके दुखी एवं अर्थहीन अस्तित्व से उनकी रक्षा और उन्हें उत्कृष्ट सूर्यवंशियों के जीवन के उत्तम ढंग के लाभ देकर हम ऐसा कर सकते हैं’।
इस काम को उन्होंने ‘राम का अधूरा कार्य’ बताया है। उपन्यास के अन्त में भी शिव के अयोध्या जाने का उल्लेख है। अयोध्या को स्वद्वीप की राजधानी बताया गया है, जहाँ चन्द्रवंशियों का शासन है। चन्द्रवंशियों के शासन को उत्तरदायी ठहराते हुए वहाँ अतिक्रमण, मलिन बस्तियों, बेघर लोग, सड़कों में गड्ढे आदि जैसी आधुनिक समस्याओं का चित्रण किया गया है। इस प्रकार एक पौराणिक कहानी में आज के परिप्रेक्ष्य के सभी बिन्दुओं का समावेश किया गया है।
चन्द्रवंशियों के अतिरिक्त अमीश त्रिपाठी ने नागाओं को भी अत्यन्त बुरा चित्रित किया है। उनको शापित कहने के अतिरिक्त ‘जन्म से ही अपंग और विद्रूप’ और ’पूर्व जन्मों के पापों के कारण’ तरह–तरह के रोगों से ग्रस्त भी बताया है। उनको अपना ‘चेहरा देखाने में भी शर्मिंदगी महसूस‘ होने के साथ ही उनके ‘अतिरिक्त हाथ या अतिरिक्त भयानक चेहरे’ होने का विवरण भी किया गया है। उनके बारे में ‘कुछ बोलना भी दुर्भाग्य को लाता है’ और नागा का मात्र नाम ही ‘आतंक का पर्याय’ है, इस प्रकार की टिप्पणियों के माध्यम से नागाओं का निरन्तर अपमानजनक चित्रण किय गया है। उपन्यास में मुख्य पात्र–शिव नागाओं को ‘अब ये गधे नागा लोग कौन हैं’ तक कहते हुए दिखाए गए हैं। इतिहास और वर्तमान काल में चन्द्रवंशी तथा नागाओं के वास्तविक अस्तित्व में होते हुए भी उनका इस प्रकार का आपत्तिजनक चित्रण करना कहाँ तक उचित है?
जातिवाद का इस प्रकार का चित्रण, जिसमें कुछ जाति या जनजाति विशेष के बारे में आपत्तिजनक विवरण देखने को मिलता है, ब्राह्मणवाद की मानसिकता का परिचायक है। उसके बाद उनके प्रतीक चिन्हों को महत्व देना जातिवाद को और गहराई से व्यक्त करता है। आज की हिन्दुत्ववादी सोच से प्रेरित वातावरण में यह चिन्ह जातिगत भेदभाव से ग्रसित जन–समुदाय को प्रभावित करने के लिए पर्याप्त हैं। इन प्रतीक चिन्हों के चित्र भी अंकित किए गए हैं अर्थात इनके अनुसरण की भी पूरी व्यवस्था की गई है।
चमत्कारिक एवं रीतिगत मान्यताएँ
मुख्य पात्र शिव के साधारण होते हुए भी उनके चमत्कारिक वर्णन द्वारा पाठकों की चमत्कार–प्रियता का लाभ उठाने का प्रयास किया गया है। साथ ही समाज में रीतिगत मान्यताओं को उपन्यास में प्रमुख स्थान देने का एक उदाहरण उपन्यास में वर्णित ‘विकर्म’ की अवधारणा से मिलता है। त्रिपाठी ने विकर्म के प्रसंग द्वारा सामाजिक भेदभाव के एक प्रकार का तर्क देने का प्रयास किया है। उपन्यास के अनुसार विकर्म वह है ‘जिन्हें अपने पूर्व जन्म के पाप के लिए इस जन्म में दण्ड मिला है।’ उदाहरणत: यदि किसी स्त्री ने मृत बच्चे को जन्म दिया या कोई शारीरिक रूप से अपाहिज है तो उसे विकर्म कहा जाएगा। ऐसा उसके साथ पूर्व जन्मों के पापों के फ़लस्वरूप हुआ। शिव की पत्नी, सती ऐसी ही एक विकर्म स्त्री है जिसने एक मृत बच्चे को जन्म दिया।
विकर्म की अवधारणा को उपन्यास में इस प्रकार उचित ठहराया गया है कि ‘यदि आप किसी व्यक्ति को यह विश्वास दिला देते हैं कि इस जन्म में उसका दुर्भाग्य उसके पूर्व जन्म के पापों के कारण ही है, तो वह खुद को भाग्य के भरोसे आत्म–समर्पण कर देगा और समाज के ऊपर अपना गुस्सा नहीं निकालेगा।‘ उपन्यास में विकर्म व्यक्ति को छू लेने पर शुद्धीकरण के चलन की बात भी कही गई है।
युद्ध और हिंसक चित्रण
उपन्यास में युद्ध का वीभत्स वर्णन हैं, जिसमें नृशंसता की पराकाष्ठा है। युद्ध को धार्मिक आयोजन से जोड़ कर महिमामंडित किया गया है। युद्ध के दौरान नगाड़ों के साथ संस्कृत के श्लोक बोले जाते हैं। शिव भी मेलुहा के लिए लड़े गए युद्ध को उचित ठहराते हुए ‘धर्मयुद्ध’ और ‘पवित्र युद्ध’ कहते हैं और युद्ध का अर्थ बुराईयों को समाप्त करना बताते हैं।
उपन्यास में हिंसक युद्ध के अनेक प्रसंग हैं। एक प्रसंग में मुख्य नायक शिव की पत्नी सती ने ‘अपने दाहिने हाथ को निर्दयता से तारक के सीने की ओर चला दिया। चाकू तारक के फ़ेफ़ड़े तक घुस गया। ……चाकू को और अन्दर चाकू की मूठ तक घोंपती गई।…… उसने चाकू को घुमाते हुए बाहर निकाल लिया ताकि घाव अत्यधिक घातक हो जाए।’ हिंसा के इस वर्णन को उपन्यास में आगे इन पंक्तियों के माध्यम से उचित ठहराया गया है– ‘बुराईयों के विनाशक शिव सिंहासन पर बैठे हुए एक मधुर मुस्कान से उसे देख रहे थे…यदि वरुणदेव ने भी इस द्वन्द युद्ध की पटकथा लिखी होती तो वह भी इतना आदर्श नहीं होता।’
इसी प्रकार शिव के सहायक पात्र भद्र के युद्ध लड़ने का इस प्रकार चित्रण किया गया है– ‘अपने दाएँ हाथ को हवा में लहराकर दूसरे सैनिक के चेहरे को बीचोंबीच काटते हुए वार किया, जिसके कारण उसकी आँख बाहर निकल आई’। आगे उपन्यास में वर्णित है– ‘चीखते हुए शिव झुका और उस नागा के मृत शरीर को काटता चला गया जब तक कि उसके छोटे–छोटे टुकड़े नहीं हो गए।’ युद्ध की विभीषिका को जानते हुए भी युद्ध के पक्ष में लिखना और उसका वीभत्स चित्रण हिंसा को और प्रश्रय देना है।
अयोध्या का राजकुमार
अयोध्या का राजकुमार, अशोक के बैंकर द्वारा लिखित राम की कहानी पर आधारित पौराणिक उपन्यास है। अशोक के बैंकर ने भी आज के हिंसक वातावरण के अनुकूल पौराणिक उपन्यास के माध्यम से पाठकों को प्रभावित करने का प्रयास किया है जिसमें उन्होंने हिंसा के लिए उद्द्यत आज के समाज के लिए युद्ध का वीभत्स वर्णन किया है।
उपन्यास का आरम्भ ही भयानक और भड़काऊ बातों से होता है। उदाहरण स्वरूप– ‘तुम्हारी महिलाओं का बलात्कार हुआ, तुम्हारे बच्चों को दास बना लिया, तुम्हारे नगर को लूटा और जला कर राख कर दिया … तुम्हें जन्म देने वाली माँ को इतना क्षत–विक्षत कर देंगे कि उन्हें पहचान नहीं सकोगे। तुम्हारे कुल की माताओं और बहनों को मेरे राक्षस गर्भवती कर देंगे, तुम्हारे पिता और भ्राताओं को जीवित खा लिया जाएगा।’ एक पौराणिक कहानी में ऐसी बातें अत्यन्त अप्रासंगिक हैं। लेखक ने आजकल के वातावरण की प्रतिछाया को उपन्यास में प्रस्तुत कर दिया है, जिससे पाठकों की मानसिकता के बिगड़ने की सम्भावना है।
हिंसा और वीभत्सता
कहानी में अनावश्यक रूप से हिंसा और वीभत्सता उत्पन्न की गई है। कहानी के अनुसार अयोध्या के महल के तलघर में अपराधियों को बन्दी बनाया जाता था, जहाँ ‘हर तरफ़ गहरे दाग और निशान थे’। लेखक ने कारागार में बन्दियों के कटे हुए हाथों को हथकड़ियों में जकड़े होने का अत्यन्त वीभत्स चित्रण किया है, ‘जिनसे एक गन्ध आ रही थी…जो सदियों तक यहाँ बन्द किए गए थे।’
युद्ध का चित्रण हिंसक है। उपन्यास में वर्णित, राम–लक्षमण ‘अपनी तलवार उसी प्रकार घुमा रहे थे, जैसे कोई किसान अपनी फ़सल काटता है। अन्तर यही था कि उनकी तलवार से रक्त की पैदावार निकल रही थी। शरीर के अंगों, मांस–पेशियों, रोएँ, पूँछ और ऐसे अंग कट कर हवा में उड़ रहे थे जिन्हें उन्होंने पहले कभी नहीं देखा था।’ वहीं राक्षसों के संदर्भ में वह लिखते हैं कि ‘राक्षस मानव सैनिकों के पेट फ़ाड़ रहे थे, तथा भाप छोड़ती अंतड़ियों को अपने भूखे मुख से चूस रहे थे।‘
स्त्री पात्रों का अस्वाभाविक एवं पूर्वाग्रही चित्रण
बैंकर ने उपन्यास में जिन स्त्री पात्रों का चरित्र बुरा दिखाया है उनका बहुत अस्वाभाविक और विचित्र चित्रण किया है। मन्थरा तन्त्र–मन्त्र करती, भयानक सोच वाली एक स्त्री के रूप में चित्रित है। उपन्यास के एक प्रसंग में मन्थरा, कैकेई को पान में एक ब्राह्मण बालक का रक्त डाल कर देते हुए उससे कहती है, ‘हाँ, मेरी प्यारी बच्ची। एक छोटे ब्राह्मण बालक का रक्त। वह जिसकी बलि लंका के नरेश ने मेरे पिछले यज्ञ में दी थी’।
ताड़का के चरित्र–चित्रण में तो पराकाष्ठा है, जिसके बारे में लेखक ने लिखा है कि ‘उसने अपनी सेना का सृजन… वन के जानवरों और अपने राक्षस पुत्रों के संभोग’ द्वारा किया है। युद्ध के दौरान शूपनखा का उपन्यास में अधिकांशतः जानवर के रूप में विचित्र और घिनौना चित्रण किया गया है। उदाहरण स्वरूप– ‘शूपनखा ने अपने आप को चाटकर साफ़ किया। मनुष्यों के रक्त का स्वाद नमकीन और अमलीय था…गला काटने और पेट फ़ाड़ने के दौरान यह स्वाद मुँह में चला जाता था’। किसी चरित्र को बुरा दिखाने का यह तात्पर्य नहीं होना चाहिए कि उसकी गतिविधियों का इस प्रकार चित्रण किया जाए।
वहीं स्त्रियों के लिए टिप्पणी की गई है– ‘सोम, जुआ और ॠण के साथ ही, स्त्रियाँ योद्धाओं की दुश्मन होती हैं’ क्योंकि पुरूष इनके पीछे ‘हताशा की सीमा तक’ पागल हो जाते हैं। यह वर्णन आमतौर पर स्त्रियों के प्रति पूर्वाग्रही सोच को प्रस्तुत करता है।
निष्कर्ष
आज समाज में जिस तरह की जातिवाद और धार्मिक कट्टरता की भावना बढ़ती जा रही है उसी के अनुरूप इन पौराणिक उपन्यासों को आधुनिक परिवेश में ढाल कर लोकप्रिय बनाने का प्रयास किया जा रहा है, भले ही समाज में इसका संदेश गलत रूप में प्रस्तुत क्यों ना हो। एक प्रकार से ऐसे साहित्य में सम्पूर्णतः पुनरुत्थान की भावना निहित है, जो आज के समय में अपने कदम बढ़ा रहा है और समय को पीछे धकेल रहा है।
‘मेलुहा के मृत्युंजय’ उपन्यास, पौराणिक कम जातिवाद की व्याख्या का संवाहक है। वहीं पहले से ही समाज में व्याप्त छूआछूत, ऊँच–नीच तथा हिंसा के वातावरण को और प्रोत्साहित किया गया है। इसी प्रकार अशोक के बैंकर के उपन्यास में हिंसक युद्ध का वीभत्स वर्णन तथा बुरे चरित्र के पात्रों का अनावश्यक अमानवीय चित्रण प्रस्तुत किया गया है। युद्ध की इस प्रकार की हिंसक तथा वीभत्स प्रस्तुति से समाज अशान्त होकर विनाश को ही प्राप्त हो सकता है। दोनों ही उपन्यासों में जातिभेद, वर्गभेद, चमत्कारिता, अवैज्ञानिक सोच, हिंसा, वीभत्सता आदि मूल्यों को एक प्रकार से पोषित किया गया है।