राजनीति, नीति और शासनविश्लेषण

उच्च माध्यमिक स्तर पर सामाजिक पाठ्य विषय: महत्व और वस्तुस्थिति।

प्रस्तावना: हिन्दुस्तान के कई शहरों में उच्च माध्यमिक स्तर पर सामाजिक पाठ्य विषयों का विकल्प छात्र-छात्राओं के लिए मौजूद नही है। पर इस स्थिति पर एक समग्र विश्लेषणात्मक शोध की भारी कमी है।विज्ञान, वाणिज्य, कला या अन्य विषय समूह से चुने गए विषय ही निर्धारित करते हैं कि विद्यार्थी आगे जा कर किस क्षेत्र में काम करेगा पर साथ ही यह भी कि उसका सामाजिक और राजनैतिक दृष्टिकोण क्या होगा। इसलिए सामाजिक पाठ्यक्रम को मिलने वाली चुनौतियों के मद्देनज़र उच्च माध्यमिक स्तर पर ध्यान देना अति आवश्यक है।

सामाजिक पाठ्य विषयों की मौजूदा स्थिति ठीक नही है। राजनैतिक दखलंदाज़ी हो या फ़िर इन विषयों के प्रति समाज और सरकारों की उदासीनता, सामाजिक पाठ्य विषयों पर तुरंत ध्यान देना बहुत ज़रूरी हो चुका है। प्राथमिक, माध्यमिक और उच्च माध्यमिक स्तर पर सामाजिक पाठ्य पुस्तकों में होने वाली गड़बड़ियाँ और योजनाबद्ध तरीके से शामिल की गईं असंगतियाँ इस समस्या का एक पहलू है जिस पर आम मीडिया-चर्चा के अतिरिक्त अमर्त्य सेन जैसे बुद्धिजीवियों ने भी प्रकाश डाला है। दूसरा पहलू जो समान रूप से महत्वपूर्ण है वह है सामाजिक विषयों की उच्च माध्यमिक स्तर पर बढ़ती अनुपलब्धता। जहाँ पाठ्य पुस्तकों में हुई गलतियों और असंगतियों पर फ़ौरी तौर पर ध्यान दिया जाता है वहीं अनुपलब्धता की यह समस्या संगठनात्मक और निरन्तर है जिसे सिर्फ़ एकबारगी के प्रयास से नही सुलझाया जा सकता है।

हिन्दुस्तान के कई शहरों में उच्च माध्यमिक स्तर पर सामाजिक पाठ्य विषयों का विकल्प छात्र-छात्राओं के लिए मौजूद नही है। पर इस स्थिति पर एक समग्र विश्लेषणात्मक शोध की भारी कमी है। कुछ अखबारों में समय समय पर इक्का दुक्का विद्यार्थियों की इस समस्या पर अखबारों में छपने वाली खबरों से स्थायी निदान की संभावना कम है।

दसवीं कक्षा तक विद्यार्थी सभी विषयों को पढ़ते हैं। अच्छे अंकों के लिए सभी में मेहनत करते हैं। ग्यारहवीं और बारहवीं कक्षा में इन छात्र छात्राओं के जीवन में पहली बार एक महत्वपूर्ण विकल्प का अवसर आता है। यह विकल्प इनके शैक्षिक जीवन ही नही बल्कि सामाजिक और आम जीवन की नींव भी रखता है। विज्ञान, वाणिज्य, कला या अन्य विषय समूह से चुने गए विषय ही निर्धारित करते हैं कि विद्यार्थी आगे जा कर किस क्षेत्र में काम करेगा/करेगी, पर साथ ही यह भी कि उसका सामाजिक और राजनैतिक दृष्टिकोण क्या होगा। इसलिए सामाजिक पाठ्यक्रम को मिलने वाली चुनौतियों के मद्देनज़र उच्च माध्यमिक स्तर पर ध्यान देना अति आवश्यक है।

दूसरी ओर यदि इससे भी आगे उच्च शिक्षा के स्तर पर समस्या का मूल्यांकन किया जाए तो वहाँ भी विकल्प का अवसर सामने आता है। पर उच्च माध्यमिक स्तर के विपरीत इस स्तर पर अधिकाँश विद्यार्थियों के लिए पहले से ही यह निर्णय हो चुका होता है। और इससे भी अधिक महत्वपूर्ण बात यह है कि भारत में उच्च शिक्षा में दाखिल होने वाले विद्यार्थियों की संख्या उच्च माध्यमिक स्तर के मुकाबले बहुत ही कम होती है। इन दोनों वजहों के चलते भी सामाजिक पाठ्य विषयों की चुनौती पर उच्च माध्यमिक स्तर पर ध्यन देना ज़रूरी है।

संगठनात्मक रूप से इन विषयों की उच्च माध्यमिक स्तर पर अनुपल्बधता का राष्ट्रीय स्तर पर जायज़ा लेना एक विराट परियोजना है। पर अलग अलग शहरों के स्तर पर किए गए ऐसे शोध से इस समस्या के विभिन्न पहलूओं को समझा जा सकता है और सामाजिक पाठ्य विषयों के बारे में हमारी समग्र जानकारी और विश्लेषण में इज़ाफ़ा हो सकता है। इसी कड़ी में यह लेख आगरा शहर के उन उच्च माध्यमिक विद्यालयों पर नज़र केन्द्रित करने का प्रयास कर रहा है जो राष्ट्रीय शिक्षा बोर्ड यानि सी.बी.ऐस.सी और आई.ऐस.सी से मान्यता प्राप्त हैं।

इस प्रयास के तीन मुख्य उद्देश्य हैं। पहला यह जानना कि एक मध्यम आर्थिक विकास के शहर में सामाजिक पाठ्यिक विषयों की उच्च माध्यमिक शैक्षिक स्तर पर क्या स्थिति है। दूसरा यह अनुमान लगाना कि इस स्थिति के क्या सामाजिक और संगठनात्मक कारण हैं। और तीसरा यह कि इस वस्तुस्थिति का विद्यार्थियों के ऊपर क्या असर पड़ता है और समग्र सामाजिक तसवीर इससे कैसे प्रभावित होती है।

वस्तुस्थिति

आगरा शहर में कुल मिलाकर सी.बी.ऐस.ई और आई.ऐस.सी द्वारा स्वीकृत 55 उच्च माध्यमिक विद्यालय हैं। इनमें आई.ऐस.सी के नौ और सी.बी.ऐस.ई के 46 विद्यालय हैं। जैसा कि पहले कहा गया है उच्च माध्यमिक स्तर पर सामाजिक पाठ्यिक विषयों की स्थिति का जायज़ा उसमें भर्ती होने वाले विद्यार्थियों की बड़ी संख्या के कारण महत्वपूर्ण हो जाता है। वर्ष 2012 में शहर से अनुमानित 12000 छात्र-छात्राओं ने बारहवीं की परीक्षा दी थी।  

इन 55 विद्यालयों में से पाँच को छोड़कर सभी के बारे में जानकारी इक्कठा की गई।[i] सभी पचास विद्यालयों में बारहवीं कक्षा में विज्ञान विषय समूह के सभी विषय विद्यार्थियों के लिए उपलब्ध थे। 49 विद्यालयों में विज्ञान के साथ वाणिज्य के विषय भी उपलब्ध थे जबकि एक विद्यालय में वोकेशनल विषय समूह की उपलब्धता थी। जहाँ बात आती है कला विषय समूह की, जिसके अंतर्गत सामाजिक विषयों को भी पढ़ाया जाता है, तो सिर्फ़ चार ऐसे विद्यालय पाए गये जिनमें यह विषय उपल्ब्ध थे। सामाजिक पाठ्य विषय समूह के अंतर्गत पढ़ाए जाने वाले विषय हैं- राजनीति विज्ञान, अर्थ शास्त्र, समाज शास्त्र, भूगोलशास्त्र, मनोविज्ञान एवं इतिहास।

यदि प्रतिशत में इस तस्वीर को देखें तो पाएँगे कि जहाँ शत प्रतिशत विद्यालयों में विज्ञान समूह के विषय उपलब्ध हैं, वहीं वाणिज्य समूह के विषय लगभग 98% विद्यालयों में उपलब्ध हैं। वहीं सामाजिक पाठ्य विषयों को सिर्फ़ आठ प्रतिशत विद्यालयों में बारहवीं कक्षा में चुना जा सकता है। खास बात यह है कि ये विषय किसी भी आई.ऐस.सी विद्यालय में उपलब्ध नही हैं। यह जानकारी तब और भी महत्वपूर्ण हो जाती है जब हम पाते हैं कि आई.ऐस.सी से स्वीकृत कुछ विद्यालय ब्रिटिश राज के समय से चले आ रहे हैं और फ़िर भी सामाजिक विषयों को उच्च माध्यमिक स्तर पर उपलब्धता प्रदान करने में नाकाम रहे हैं। ब्रिटिश काल की चली आ रही शैक्षिक नीति, (जिसमें सामाजिक विषयों को कम तरजीह दी जाती थी जिससे शासित समाज में सामाजिक मुद्दों पर विमर्श को बढ़ावा ना मिल सके) के असर के सबूत इन विद्यालयों की सामाजिक विषयों के प्रति उदासीनता में मिलते हैं।

वहीं सी.बी.ऐस.ई विद्यालयों के हालात भी कुछ खास बेहतर नही हैं। नौ प्रतिशत विद्यालयों में ही ये विषय उच्च माध्यमिक स्तर पर उपलब्ध हैं। यदि कुल 12000 के आंकड़े के अनुसार सामाजिक विषयों को चुनने वाले विद्यार्थियों का अनुमान लगाया जाए तो कुल मिलाकर सिर्फ़ 64 यानि 0.5 प्रतिशत विद्यार्थी ही इन विषयों को बारहवीं कक्षा में पढ़ते हैं। यह आंकड़ा इतना कम है कि यदि पाई चार्ट पर इसे देखा जाए तो यह सिर्फ़ एक महीन लकीर के अलावा कुछ नही दिखेगा।

यदि उन विद्यालयों पर नज़र डालें जो इन विषयों को उच्च माध्यमिक स्तर पर उपलब्ध कराते हैं, तो शहर में सबसे पहले इन विषयों को अपने पाठ्यक्रम में शामिल करने वाला स्कूल था केन्द्रीय विद्यालय जिसमें 1962 से ही तीनों विषय समूह यानि विज्ञान, वाणिज्य और कला उपलब्ध कराए जाते रहे हैं। इसके बाद लगभग तीस सालों के अंतराल के बाद ही अन्य विद्यालयों में ये विषय उपलब्ध कराए गए। हालांकि इससे यह निष्कर्ष नही निकाल लेना चाहिए कि सामाजिक विषयों की माँग में अचानक कोई इज़ाफ़ा हुआ क्योंकि इसी समय अंतराल में 41 विद्यालय ऐसे भी शुरु हुए जिनमें ये विषय उपलब्ध नही थे। इसलिए सूक्ष्मता से देखा जाए तो इस संदर्भ में यथास्थिति ही बनी रही।

अगर इन विद्यालयों पर संगठनात्मक तौर पर नज़र डालें तो पता चलता है कि इनमे से ज़्यादातर निजी शैक्षिक समूहों द्वारा संचालित हैं। ये निजी संगठन या तो शैक्षिक व्यापार से जुड़े समूह हैं या धार्मिक संगठन हैं या फ़िर सोसाइटी ऐक्ट के अंतर्गत रजिस्टर्ड शैक्षिक संगठन हैं। निजी संगठनों में से अधिकाँश आगरा शहर में ही स्थापित व्यापार समूह हैं। जबकि पंजीकृत सोसाइटी या फ़िर केन्द्रीय सरकारी संगठनों द्वारा स्थापित विद्यालय कई शहरों की इकाइयों में से एक हैं।

सामाजिक पाठ्य विषयों को उपलब्ध कराने वाले चार विद्यालयों में से एक निजी समूह द्वारा संचालित है, जबकि बाकी तीन: केन्द्रीय विद्यालय संगठन, दिल्ली पब्लिक स्कूल सोसाइटी एवं आर्मी वेलफ़ेयर ऐज्युकेशन सोसाइटी जैसे बहु-नगरीय संस्थाओं द्वारा संचालित हैं। इससे पता चलता है कि जब बात आती है कम लोकप्रिय विषयों की तो बहु-नगरीय ढाँचे से चलने वाले विद्यालय संगठन अलग अलग शहरों में चलने वाली अपनी इकाइयों में पाठ्यक्रम में समानता के उद्देश्य से उच्च माध्यमिक स्तर पर सभी विषयों को पाठ्यक्रम में स्थान देते हैं। हालांकि शिक्षा विशेषज्ञों का यह मानना है कि अस्थानीय ढांचे के चलते अलग अलह शहरों में चल रही शैक्षिक इकाइयों के पाठ्यक्रमों में क्षेत्रीय संस्कृति को पर्याप्त प्रतिनिधित्व नही मिलता है। पर जैसा कि देखा जा सकता है क्षेत्रीय निजी संस्थाओं के शैक्षिक एजेंडे पर ना तो सामाजिक पाठ्यक्रम और ना ही उससे जुड़े सांस्कृतिक विषयों को कोई तरजीह मिलती है। स्थानीय विद्यालय मुख्यधारा की मानसिकता, (जिसमें मेडीकल और इंजीनियरिंग के मद्देनज़र महत्वपूर्ण माने जाने वाले विषयों को चयन में प्राथमिकता दी जाती है), को ही अपनाते हुए पाए जाते हैं।

अब यदि नज़र डालें विभिन्न विषय समूहों को चुनने वाले छात्र/छात्राओं की संख्या पर तो हम पाते हैं कि पिछले शैक्षिक सत्र में कुल 64 विद्यार्थियों ने ग्यारहवीं और बारहवीं कक्षा में सामाजिक विषयों का चयन किया था। जैसा कि पहले ही देखा जा चुका है पूरे शहर के बारहवीं के विद्यार्थियों की संख्या का यह एक बहुत ही छोटा हिस्सा है। पर यदि इन चार विद्यालयों में पढ़ने वाले ही विद्यार्थियों की संख्या को देखें तो हम पाते हैं कि इन चार विद्यालयों में कुल 645 विद्यार्थी सभी विषय समूहों में भर्ती थे, जिसका नौ प्रतिशत हिस्सा सामाजिक विषयों को पढ़ने वालों का है। जबकि विज्ञान के विषयों को पढ़ने वालों का प्रतिशत है 50.7% और वाणिज्य के विषयों के विद्यार्थियों के लिए 39.3%।

इसके अलावा चारों ही विद्यालयों में सामाजिक विषयों को चुनने वाले विद्यार्थियों का मीडियन प्रतिशत 11% रहा। यानि अधिकाँश विद्यालयों में कम से कम 11% विद्यार्थियों ने सामाजिक विषयों को अपनी पढ़ाई के लिए चुना है। इससे पता चलता है कि ऐसा नही है कि विद्यार्थियों की इन विषयों में रुचि बिल्कुल ही नही है। यदि यह विषय उपलब्ध हों तो शहर में सामाजिक पाठ्यक्रम को चुनने वाले विद्यार्थियों के औसत प्रतिशत में भारी इजाफ़ा संभव है।

राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान और विकास परिषद द्वारा बनाए गए राष्ट्रीय पाठ्यक्रम ढांचे (2005) में आम तौर पर विद्यालयों में अनुपलब्ध विषयों की समस्या के निदान के लिए यह सुझाया गया है कि यदि स्थानीय स्तर पर विद्यालय चाहें तो आपस में मिलकर इन विषयों के लिए शिक्षक और अन्य प्रावधानों का इंतज़ाम कर सकते हैं। पर आम तौर पर यह पाया गया कि ना सिर्फ़ इस सुझाव पर कोई अमल नही किया गया है, अधिकाँश विद्यालयों को इस सुझाव के बारे में कोई जानकारी तक नही है। इस ढांचे में विद्यालयों द्वारा विभिन्न विषयों को समूहों में बाँटने की प्रवृति पर भी आपत्ति उठाई गई है क्योंकि इससे विद्यार्थियों के विकल्पों का दायरा संकीर्ण हो जाता है। पर जैसा कि इस शोध में पाया गया सभी 50 विद्यालयों में विषयों को विज्ञान, वाणिज्य या कला स्ट्रीम यानि समूहों में बाँटा गया था। यह प्रवृत्ति तब और चिंताजनक हो जाती है जब हम देखते हैं कि कई विद्यालय विषयों को इंजीनियरिंग और मेडीकल नामक समूहों में बाँट देते हैं। इस प्रकार आर्थिक रूप से अधिक लाभदायक माने जाने वाले करीयर के अनुसार विषय विकल्पों को निर्धारित करना शिक्षा में बढ़ते बाज़ारीकरण का स्पष्ट उदाहरण है। साथ ही इसका खामियाज़ा उन विद्यार्थियों को उठाना पड़ता है जो विषय विकल्पों में विविधता चाहते हैं।

इस शोध के दौरान भी जिन विद्यालयों से संपर्क किया गया उनमें से किसी में भी एक विषय समूह के विद्यार्थियों ने दूसरे विषय समूह के विकल्पों को नही चुना था। ऐसे में सिर्फ़ वही विषय अलग अलग स्ट्रीम के विद्यार्थी पढ़ सके जो विभिन्न विषय समूहों में समान थे। यदि सामाजिक विषयों की बात करें तो सिर्फ़ अर्थशास्त्र ही अकेला विषय था जो वाणिज्य और कला दोनों ही स्ट्रीम में उपलब्ध था। इस प्रकार यह एक मात्र सामाजिक पाठ्य विषय है जिससे कई विद्यार्थियों का साक्षातकार उच्च माध्यमिक स्तर पर होता है। पर वाणिज्य विषय समूह के अंतर्गत पढ़ाए जाने का इस विषय के पाठ्यक्रम और पाठन प्रणाली यानि टीचिंग स्टाइल पर क्या असर पड़ता है और इसमें सामाजिक सरोकार की कितनी संभावनाएँ रहती हैं, यह भी अलग से एक शोध का विषय है।

इसके अलावा इतिहास दूसरा सबसे पढ़ा जाने वाला विषय बन कर सामने आया जिसे चारों ही विद्यालयों में उपलब्ध कराया जाता है जबकि भूगोल और राजनीति विज्ञान दो दो विद्यालयों में उपलब्ध दर्ज किये गए। समाजशास्त्र और मनोविज्ञान किसी भी विद्यालय में उपलब्ध विकल्पों में से नही थे।

यदि नज़र डालें इन विषयों में पढ़ने वाले विद्यार्थियों के नतीजों पर तो ये पाया जाता है कि बारहवीं कक्षा में सबसे अधिक अंक 96.2% दर्ज किए गए। सभी विद्यालयों के उच्चतम अंक प्रतिशत का मीडियन औसत 88.1% रहा। खास बात यह है कि जिस विद्यालय में सबसे कम उच्चतम नतीजा दर्ज किया गया वहाँ विषयों की संख्या और इनको पढ़ाने वाले शिक्षकों की संख्या भी सबसे कम पाई गई। यानि जिन विद्यालयों में सामाजिक पाठ्य विषयों के लिए बेहतर प्रावधान थे वहाँ बेहतर नतीजे देखे गए।

सामाजिक परिदृश्य

किसी भी और सामाजिक प्रक्रिया की तरह सामाजिक विषयों के आगरा शहर के विद्यालयों में अभाव की वस्तुस्थिति का भी एक सामाजिक आधार है। यहाँ सवाल यह उठता है कि क्या सामाजिक पाठ्य विषयों की माँग में कमी के कारण कम विद्यालय इन्हें उच्च माध्यमिक पाठ्यक्रम में जोड़ते हैं या फ़िर ठीक इसके उलट अधिकांश विद्यालयों में इन विषयों की कमी के कारण विद्यार्थी इन्हें पढ़ने में असमर्थ रहते हैं? चार विद्यालयों के आंकड़ों के अनुसार 11% विद्यार्थियों की रुचि सामाजिक विषयों में देखी गई है। यह औसत पूरे शहर के औसत से कहीं अधिक है। इस तथ्य के आधार पर यह संभावना आंकी जा सकती है कि यदि और भी विद्यालयों में यह विषय उपलब्ध कराए जाएँ तो यह औसत अपने वर्तमान स्थिति से कहीं ऊपर जा सकता है। पर क्योंकि 81% विद्यालयों में इन विषयों का स्थान ही नही है इसलिए सामाजिक पाठ्य विषयों की स्थिति बाकी विषयों के मुकाबले बहुत कमज़ोर है।

इसके लिए काफ़ी हद तक ज़िम्मेदार राष्ट्रीय शैक्षिक बोर्ड हैं। जैसा कि देखा गया है आई.ऐस.सी बोर्ड ने सामाजिक पाठ्य विषयों से पूरी तरह से पल्ला झाड़ लिया है। सी.बी.ऐस.ई बोर्ड का भी इस स्थिति में खासा अच्छा योगदान नही है। राष्ट्रीय पाठ्यक्रम ढांचे (2005) के सुझावों की अनदेखी विद्यालयों ने तो की ही है, पर साथ ही इन बोर्ड ने भी इस स्थिति के सुधार में कोई योगदान नही किया है। विद्यालयों को मान्यता प्रदान करना ही इन शैक्षिक बोर्ड की एकमात्र ज़िम्मेदारी नही है। इन विद्यालयों में शिक्षा का स्तर और गुणवत्ता का ध्यान रखना भी इन बोर्ड का कर्तव्य है। और इस गुणवत्ता को बनाए रखने के लिए विषयों में विविधता का ध्यान रखना एक अहम कदम है, जिस पर वस्तुत: अभी तक इन बोर्ड ने ध्यान नही दिया है।

यदि सामाजिक पूर्वाग्रहों की बात करें तो एक आम राय जो सामने आई, यहाँ तक कि सामाजिक विषयों को पढ़ाने वाले शिक्षकों की तरफ़ से भी, तो वह थी कि इन विषयों को अधिकाँशत: पढ़ाई में कमज़ोर विद्यार्थी चुनते हैं। पर जैसा कि देखा गया है यह राय वस्तुस्थिति से कोसों दूर है। उच्चतम अंकों के मामले में इन विषयों के विद्यार्थी दूसरे विषयों के विद्यार्थियों से कम नही हैं। ना सिर्फ़ टॉप करने वाले विद्यार्थी के अंक बाकी स्ट्रीम के टॉपर्स के अंकों के बराबर हैं, बल्कि सभी चार विद्यालयों में दर्ज किए गए उच्चतम अंकों का औसत 88% के करीब था जिसे किसी भी सूरत में कम नही आंका जा सकता है।

इसके अलावा जो मनोवृत्ति इन विषयों के खिलाफ़ काम करती है वह है विज्ञान और वाणिज्य के विषयों को आर्थिक और जीविकोपार्जन के नज़रिये से अधिक लाभदायी समझना। इस सोच को भुनाने के लिए विद्यालय अब भावी मेडिकल और इंजीनियरिंग विद्यार्थी बनाने के कारखाने बनते जा रहे हैं। इस झुकाव को दुरुस्त करने के लिए ना सिर्फ़ विद्यालयों को अपना रवैया बदलना होगा बल्कि शैक्षिक बोर्ड को कम या अनुपलब्ध विषयों की उपलब्धता बढ़ाने के लिए कड़े कदम उठाने होंगे। इनमें से एक महत्वपूर्ण कदम यह हो सकता है कि विद्यालयों को मान्यता प्रदान करने की शर्तों में उच्च माध्यमिक स्तर पर विषयों में विविधता बढ़ाना शामिल किया जाए।

समग्र सामाजिक स्थिति

इतना सब लिखने का कोई फ़ायदा नही है अगर हम इस सवाल का जवाब ना दे सकें कि सामाजिक पाठ्य विषयों को पढ़ने का औचित्य क्या है? क्योंकि मानें या ना मानें आज की इस दुनिया में जब तक फ़ायदा नुकसान ना तोल लें तब तक हम मोबाइल तक रीचार्ज नही कराते तो पढ़ाई के विषय चुनना तो दूर की बात है। इस बाबत सबसे पहले इस गलतफ़हमी को दूर करना आवश्यक है कि सामाजिक विषयों को पढ़ने वालों का कोई भविष्य नही है या फिर ये आर्थिक रूप से उतने लाभदायक नही हैं जितने विज्ञान या वाणिज्य के विषय हैं। वैसे आर्थिक रूप से चीज़ों की गुणवत्ता नापना ही एक गलत नज़रिया है पर अगर इस कसौटी पर भी इन विषयों को परखा जाए तो हम पाएंगे कि आज के समय में सामाजिक क्षेत्र में भी नौकरी के अनेकों मौके हैं। सिर्फ़ पढ़ाई ही नही बल्कि सरकारी और गैर सरकारी राष्ट्रीय और अंतराष्ट्रीय स्तर पर सामाजिक क्षेत्र में शोध, प्लैनिंग और मैनेजमेंट में अनेकों ऐसे अवसर हैं जिन्हें आम विद्यार्थी जानते ही नही हैं। और क्योंकि इन बातों को जानने का मौका विद्यार्थियों को अपने स्कूलों में भी नही मिलता इसलिए वह इनसे हमेशा अनभिज्ञ रहते हैं।

पर इससे कहीं अधिक महत्वपूर्ण मुद्दा जो इन विषयों से जुड़ा है वह है नागरिकता की समझ से। यानि एक नागरिक के रूप में ना सिर्फ़ यह पता होना कि हमारे क्या कर्तव्य और अधिकार हैं बल्कि यह भी कि हमारा राजनैतिक और सामाजिक दृष्टिकोण क्या है। इस नज़रिये से देखें तो हम पाते हैं कि सामाजिक पाठ्य विषय बाकि सभी विषयों की तुलना में हमारे सामाजिक और निजी जीवन को कहीं अधिक प्रभावित करते हैं। दूसरे शिक्षा आयोग (1952) के सुझाव अनुसार आदर्श नागरिक को किसी भी प्रकार के पूर्वाग्रह से मुक्त, झूठ और सच में अन्तर बताने योग्य और कट्टरपंथी मानसिकता को नकारने के काबिल होना चाहिए। इस उद्देश्य के लिए सामाजिक जीव के लिए एक ऐसा फ़्रेम ऑफ़ रेफ़्रेंस यानि संवाद संदर्भ ज़रूरी है जिसमें इन सब विशेषताओं के लिए उपयुक्त सिद्धांत और समझ होनी चाहिए। जितनी बातें किन्हीं दो लोगों के संवाद संदर्भ में समान होंगी उतना ही वे एक दूसरे की बात हो समझ सकेंगे। और जितने ये संदर्भ एक दूसरे से जुदा होंगे उतना ही संवाद में व्यवधान पड़ेगा और किसी भी सामाजिक मुद्दे पर सम्मति बन पाना मुश्किल होगा।

जिन लोगों को औपचारिक शिक्षा के तहत उच्च माध्यमिक स्तर पर सामाजिक विज्ञान के विषयों के तहत सामाजिक चिंतन के सिद्धांत एवं विचारधाराओं के बारे में पढ़ाया जाएगा उनके लिए किसी भी सामाजिक परिस्थिति पर बहुआयामी दृष्टिकोण बनाना और किसी एक विचारधारा के बहाव में न बह पाना संभव होगा। यदि सामाजिक चर्चा के लिए जानकारी मात्र समाचार पत्र या फिर आम चर्चाओं से एकत्रित की जाए तो यह मुश्किल है कि किसी भी मुद्दे पर समग्र और वैज्ञानिक रूप से शिक्षित दृष्टिकोण तैयार किया जा सके। ऐसे में अधिकांश विद्यार्थियों को औपचारिक सामाजिक शिक्षा से महरूम रख कर हम एक ऐसे समाज की संरचना में जुटे हैं जो भले ही आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर और ज़िम्मेदार हो पर जिसकी सामाजिक चेतना वह खुद तैयार ना करे बल्कि पहले से ही तैयार सामाजिक एजेंडे से उठाए गए मुद्दों के बल पर अपनी राय बनाए।

ऐसे में नौजवान पीढ़ी कई महत्वपूर्ण सामाजिक मुद्दों के बारे में पूरी तरह से अचेतन रह जाएगी या फिर अवैज्ञानिक तरह से सोची गई अवधारणाओं और सिद्धांतों को अपनाते हुए सामाजिक परिदृश्य में शिरकत करेगी। इसका सबसे बुरा प्रभाव पड़ता है हाशिए पर सिमटे उन सामाजिक समूहों पर जिनका प्रतिनिधित्व मुख्यधारा में या तो ना के बराबर है या फिर ठीक ढंग से नही किया जा रहा है जैसे कि अल्पसंख्यक, गरीब, महिलाएं, मजदूर, अनुसूचित जाति, जनजाति आदि।

सुझाव

इन सब समस्याओं को देखते हुए कुछ उपाय जो किये जा सकते हैं, उनमें से सबसे महत्वपूर्ण यह है कि उच्च माध्यमिक स्तर पर विषयों को उनके आर्थिक फ़ायदे- नुकसान के नज़रिए से देखा जाना बंद करना चाहिए। इस प्रकार विषयों को एक दूसरे के विरुद्ध खड़ा कर हम न सिर्फ शिक्षा की विविधता के बुनियादी सिद्धांत की अनदेखी कर रहे हैं, बल्कि विषयों की अपनी गुणवत्ता और सामाजिक योगदान को ना समझने की भूल कर रहे हैं। आज के समय में जब समाज के भले के लिए अच्छे बुरे की हमारी समझ पर आर्थिक दृष्टिकोण हावी है, समग्र मानव विकास के लिए सामाजिक शिक्षा का अभाव बेहद खतरनाक है। जैसा कि इस शोध में देखा गया है इसके लिए शैक्षिक बोर्ड और विद्यालयों को संगठनात्मक तौर पर दुरुस्त करना आवश्यक है। पर साथ ही सामाजिक और पारिवारिक स्तर पर विद्यार्थियों को सामाजिक क्षेत्र में भविष्य के लिए मौकों के बारे में शिक्षित करना चाहिए और साथ ही यदि इन विद्यार्थियों का झुकाव सामाजिक शिक्षा के प्रति हो तो उन पर इसके विरुद्ध दबाव न बनाकर उन्हें अपने पसंद के विकल्पों को चुनने के लिए प्रेरित करना चाहिए। जब तक सामाजिक शिक्षा के प्रति पूरे समाज की समग्र उदासीनता को लेकर सख्त कदम नही उठाए जाएंगे यह वस्तुस्थिति इसी प्रकार बनी रहेगी।

6 thoughts on “उच्च माध्यमिक स्तर पर सामाजिक पाठ्य विषय: महत्व और वस्तुस्थिति।

  • राजनैतिक, सामाजिक ,आर्थिक ,वैज्ञानिक किसी भी विषय पर बात करने से पहले हमें अपने समाज से जुड़ना आवश्यक है। समाज से जुड़ने के लिए सामाजिक विषयों का ज्ञान होना भी जरूरी है। उच्च माध्यमिक विद्यालयों में सामाजिक विषय इस सन्दर्भ में आवश्यक है यही इस लेख से प्रदर्शित होता है। आज घर -बाहर ,रास्ते-चौराहों टेलीविजन अखबारों में अधूरे ज्ञान के साथ परिचर्चाएँ होती रहती हैं उन्हें इससे सही राह मिलेगी।

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  • लेख का अभिप्राय समझने के लिए शुक्रिया। यह सारांश लेख की प्रस्तावना बनने के लायक है। 🙂

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  • राजनैतिक, सामाजिक ,आर्थिक ,वैज्ञानिक किसी भी विषय पर बात करने से पहले हमें अपने समाज से जुड़ना आवश्यक है। समाज से जुड़ने के लिए सामाजिक विषयों का ज्ञान होना भी जरूरी है। उच्च माध्यमिक विद्यालयों में सामाजिक विषय इस सन्दर्भ में आवश्यक है यही इस लेख से प्रदर्शित होता है। आज घर -बाहर ,रास्ते-चौराहों टेलीविजन अखबारों में अधूरे ज्ञान के साथ परिचर्चाएँ होती रहती हैं उन्हें इससे सही राह मिलेगी।

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  • लेख का अभिप्राय समझने के लिए शुक्रिया। यह सारांश लेख की प्रस्तावना बनने के लायक है। 🙂

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