रंगलोक नाट्य महोत्स्व 2019- ‘तानसेन’ की एक अद्भुत बहुआयामी प्रस्तुति
अभिव्यक्ति की कोई भी विधा हो, एक विषय जिस पर बहुत सी रचनाएँ रचित की जाती हैं वह है किसी चर्चित व्यक्तित्व का जीवन परिचय। शायद यह विषय इसलिए इतना लोकप्रिय होता है कि रचियता और रचना क उपभोग करने वाले उस व्यक्ति के जीवन की कहानी में अपने जीवन के आयाम ढूँढते हैं या फिर सामान्यत: जीवन के जटिल प्रश्नों का उत्तर या फिर दार्शनिक परिदृश्य से जुड़े कुछ फलसफे ही। इस मंगलवार सूरसदन में आयोजित किए गए रंगलोक नाट्य उत्सव के दूसरे दिन एक ऐसे जीवन परिचय पर आधारित प्रस्तुति का मंचन किया गया जिसमें यह सभी उद्देश्य साधे गए। यह प्रस्तुति थी 16वीं सदी के महान संगीतज्ञ एवं मुगल सम्राट अकबर के दरबार के नौ रत्नों में से एक तानसेन के जीवन पर आधारित नाटक ‘तानसेन’ की जिसे पेश किया दिल्ली के नाट्य समूह ट्राइलौग ने।
तानसेन के जन्म से लेकर उनके अंतिम क्षणों तक का सफर तय करती हुई यह प्रस्तुति 1973 में गिरीश चतुर्वेदी द्वारा रचित तानसेन के जीवन पर आधारित एक उपन्यास का नाट्य अनुरूपण थी। तानसेन के जीवन से जुड़ी कहानियाँ और मिथक तो इस नाटक का हिस्सा थे ही पर साथ ही इस प्रस्तुति में उनके आंतरिक संसार और मनोभाव की मौजूदगी भी थी। पर सबसे खास बात थी कि इस कहानी में कुछ ऐसे प्रसंग भी थे जो संभावनाओं पर आधारित थे। जैसा कि कला के सुप्रख्यात इतिहासकार वॉल्टर बेन्जमिन ने ‘एन्जिल ऑफ़ हिस्टरी’ (इतिहास के फरिशते) नामक तस्वीर पर आधारित अपने लेख में लिखा है, इतिहास को कहने का उद्देश्य है उन भग्नावशेषों और ध्वंसावशेष पर एक नज़र डालना जो समय और प्रगति के वेग में पीछे छूटे रह गए। इस प्रस्तुति में भी एक प्रयास था तानसेन के जीवन में हुई उपल्बधियों और सफलताओं के पीछे जो लोग कभी खड़े थे और इतिहास के कथन में पीछे छुट गए उन पर भी एक दृष्टि डालना और उनको उनका देय अदा कर पाना।
इतने बड़े जीवन वृत्तान्त को एक लगभग डेढ़ घंटे की प्रस्तुति में समेटना एक कठिन कार्य है और ऐसी कहानी भले ही ऐतिहासिक यथार्थ पर आधारित क्यों ना हो, उसको कुछ सूत्रों में पिरोना आवश्यक हो जाता है। इस नाटके में वे सूत्र थे जीवन के कुछ अबूझ प्रश्न और दर्शन। तानसेन की कहानी के माध्यम से इस नाटक में इश्क और इबादत के बीच के फर्क और साथ ही खुद और खुदी के बीच के फासले पर एक संवाद खड़ा करने का प्रयास किया गया। इस प्रकार इस नाटक में तानसेन के जीवन चित्र को बहु-आयामी स्वरूप में प्रस्तुत किया गया।
पर खास बात यह थी कि नाटक सिर्फ अपनी कथावस्तु के चलते बहुआयामी नही था। बल्कि इसकी प्रस्तुति और कथन ने भी इसे बहुआयामी बना दिया था। दास्तानगोई और पात्र अभिनय के मिश्रण के माध्यम से नाटक की कहानी भिन्न स्वरूपों में पेश की गई। पर शायद सबसे उल्लेखनीय बात थी कि यह एक संगीतात्मक प्रस्तुति थी जिसमें गीतों और नृत्य का समावेश था। मंच पर ही लाइव संगीत की व्यवस्था थी जिस में पखावज, सितार, सारंगी, हारमोनियम, तानपुरा और तबले का संगीत शामिल था। आज के समय में जब संगीतात्मक नाटकों का चलन कम होता जा रहा है, इस नाटक शास्त्रीय संगीत का प्रयोग इस प्रस्तुति के स्तर को कहीं ऊँचा ले जाता है। पर यह ऊँचाई संभव नहीं होती यदि सभी अदाकार अपने-अपने हुनर में पारंगत ना होते। चाहे बात गायन की हो या संगीत की या फिर नृत्य ही, सभी प्रस्तुतियाँ अपनी-अपनी कलाओं का उत्कृष्ट प्रतिनिधित्व करती रहीं। पर साथ ही अभिनय की बरीकियों पर दिया गया ध्यान इसे एक नाट्य संपूर्णता प्रदान करता रहा।
निर्देशन की बात करें तो यहाँ भी नाटक में कई आयाम समाहित थे जिसे यदि एक शब्द में वर्णित करना हो तो वह होगा तरलता। पूरे ही नाटक के कथन में एक तरलता थी फिर चाहे वह कलाकारों के पात्रों को धारण करना हो जहाँ कलाकार निरन्तर विभिन्न पात्रों को धारण करते रहे जिसमें लिंग भेद के अंतरों को भी मिटा दिया गया या फिर पात्रों के बाह्य और आंतरिक संसार की अभिव्यक्ति हो या फिर विभिन्न समयकाल का प्रस्तुतिकरण या फिर मंचीय स्पेस की हदों का खंडन और निर्माण या फिर विभिन्न बोलियों और भाषाओं का सहज समावेश। पर यह तरलता इसलिए संभव हो सकी कि सभी कलाकार अपने-अपने हुनर में तटस्थ थे। किसी भी अभिव्यक्ति में एक बहाव तभी आ सकता है जब आदाकारों में एक ठहराव हो। इस बात को सभी कलाकारों ने बखूबी साबित किया।
नाटक मंत्रमुग्ध करने वाला था पर ब्रेख्टियन अंदाज़ में इस नाटक में कुछ खास मौकों पर एक लघु-विराम लगाया जाता रहा जहाँ कभी कलाकार अपने पात्र को छोड़ अभिनेता के असली व्यक्तित्व में प्रकट हुए तो कभी दर्शकों से सीधे-सीधे रूबरू हो गए। शायद ब्रेख्टियन सिद्धांत के अनुसार नाटक नहीं चाहता था कि आप नाटक की अनुभूति में खो जाएँ और उसमें निहित दर्शन और विवेचना को ग्रहण ना कर सकें। इन प्रयोगों के चलते यह प्रस्तुति सच में ही अत्यंत प्रयोगात्मक बन गई, जिस प्रकार का मंचन आगरा में शायद ही पहले कभी इस स्तर पर हुआ हो।
नाटक में प्रकाश और ध्वनि व्यवस्था की भी एक अहम भूमिका थी। इस मंचन के समय, स्थान और काल के अंतरों को स्पष्ट करना इसलिए और महत्वपूर्ण हो जाता था कि इसका कथन गतिशील था जिसमें कुछ खास बारीकियों के खो जाने का डर था पर प्रकाश और मंच परे की ध्वनि व्यवस्था ने ऐसा होने नहीं दिया।
कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि तानसेन, जिन्होंने आगरा शहर में ही सफलता के चरम को छुआ था, के जीवन पर आधारित इस प्रस्तुति का आगरा में मंचन यहाँ के दर्शकों के लिए एक अद्भुत अनुभव था जिसके लिए रंगलोक नाट्य उत्सव जैसा आयोजन अनेक बधाइयों का पात्र है।
सभी कलाओं की प्रस्तुति इतनी उत्कृष्ट होने के कारण किसी एक का विशेषत: नाम लेना तर्कसंगत नहीं लगता। अत: प्रस्तुत है सभी कलाकारों का एक लघु-परिचय:
अभिनय, नृत्य एवं गायन- मोहम्मद फहीम, रिधिमा बग्गा एवं सुधीर रिखारी
निर्देशन- सुधीर रिखारी
लेखन- मोहम्मद फ़हीम एवं सुधीर रिखारी
नृत्य निर्देशन एवं वस्त्र व्यवस्था- रिधिमा बग्गा
संगीत निर्देशन- सुधीर रिखारी
सारंगी एवं हारमोनियम पर अनिल कुमार मिश्रा
पखावज पर रोमन दास
सितार पर रश्मी दत्त
तानपुरा और तबले पर सुदीप चौधरी
मंच व्यवस्था- संजय मखीजा
सहायक- दीपक राणा
ध्वनि व्यवस्था- वरुण गुप्ता
प्रकाश व्यवस्था- राहुल चौहान