भारतीय टेलिविज़न के मौजूदा स्वरूप को देखकर यह अंदाज़ा नही लगाया जा सकता है कि कभी धारावाहिकों और टीवी की दुनिया नाटकीयता (melodrama) और अतिश्योक्तिपूर्ण कथानक से अलग भी कुछ रही होगी। अस्सी के दशक के मध्य से नब्बे के दशक के आरम्भ तक भारतीय टेलिविज़न का एक ऐसा प्रयोगात्मक दौर चला था, जिसमें यथार्थवादी सिनेमा और साथ ही मुख्यधारा सिनेमा के दिग्गज निर्माता निर्देशकों ने टी वी के लिए अनेक कार्यक्रम बनाए थे। इन कार्यक्रमों में बायोपिक (किसी व्यक्ति की जीवनी पर आधारित धारावाहिक अथवा टेलीफ़िल्म), साहित्यिक रूपान्तरण और अनेक विषयों पर टेलीफ़िल्म आदि शामिल थे। इन सभी कार्यक्रमों की खास बात थी कि कथानक या फ़िर विषय वस्तु में, या फ़िर दोनों में ही ये यथार्थवाद से प्रेरित रहते थे। 1988 में मिर्ज़ा ग़ालिब के जीवन पर आधारित बना ग़ुलज़ार का सत्रह भागीय धारावाहिक भी इस प्रयोगात्मक दौर का ही एक अंग था जिसे आज भी अपने कलात्मक परन्तु यथार्थपूर्ण चित्रण के लिए जाना जाता है।
इससे पहले 1954 में मिर्ज़ा ग़ालिब पर सोहराब मोदी ने एक फ़िल्म बनाई थी, परन्तु जैसा कि गुलज़ार ने कहा है, इस फ़िल्म में ग़ालिब को एक अफ़साने के रूप में अधिक और एक ऐतिहासिक किरदार के रूप में कम दिखाया गया है।[1] गुलज़ार की इस धारावाहिक को बनाने की मंशा ही ग़ालिब के जीवन को ऐतिहासिक दृष्टिकोण से उचित और यथार्थपूर्ण बनाने की थी। पर यदि इस धारावाहिक का करीब से विश्लेषण करें तो पाएंगे कि गुलज़ार ने भी ग़ालिब की कहानी बयान करने में एक हद तक रचनात्मक स्वतंत्रता ली है। यह स्वतंत्रता कुछ खास मौकों पर अधिक उभर कर आती हैं। इन मौकों पर ऐतिहासिक तथ्यों में कुछ असंगतियां हैं जिन्हें समझने के लिए धारावाहिक में दिखाए गए कुछ खास प्रकरणों का इतिहास की रौशनी में विश्लेषण करना आवश्यक है। साथ ही धारावाहिक के अन्तिम कुछ क्षणों में एक अन्यथा यथार्थवादी निर्देशन को त्यागकर एक रूपकमय (allegorical) चित्रण का सहारा लिया गया है। इस निर्देशन और कथानक में हुई तब्दीली के कारणों की पड़ताल में स्वयं निर्देशक के जीवन से ही कई सुराग मिलते हैं।
एकसंक्षिप्तविवरण
इस धारावाहिक की विषयवस्तु को यथार्थपूर्ण रखते हुए भी गुलज़ार ने कथानक और चित्रण में कलात्मकता का ध्यान रखा है। यथार्थवाद के इस प्रारूप का मुख्यत: फ़्रांसिसी सिनेमा में उपयोग किया गया है और इसे अंग्रेज़ी में Poetic Realism यानि काव्यात्मक यथार्थवाद का नाम दिया गया है। कथानक की बात करें तो इस शैली के मुख्य स्तंभ हैं एक लोकप्रिय मुख्य किरदार, एक उदास माहौल, जिन्दगी में खुशियाँ ढूंढने का असफ़ल प्रयास और अन्तत: एक दु:खद अन्त। चित्रण के नज़रिए से जर्मन इम्प्रैशनिज़्म में प्रयोग होने वाली गहरी छायापूर्ण रौशनी का प्रयोग, पात्रों का प्रभावशाली परन्तु अनाटकीय अभिनय और स्टूडियो से बाहर या फ़िर असली लगने वाले सेट में फ़िल्मांकन, इस शैली की विशेषताएँ हैं। यथार्थवाद में इस कलात्मक सम्मिश्रण के कारण ही शायद सिनेमा इतिहास में गुलज़ार को कभी खालिस यथार्थवादी निर्देशकों में शामिल नही किया गया पर साथ ही उनकी कृतियों को मुख्यधारा की बाज़ारी सिनेमा मे भी शामिल करना असंभव था।
बीते समय की याद यानि नौस्टैल्जिया के चित्रण के लिए उपयुक्त काव्यात्मक यथार्थवाद को धारावाहिक में भी ग़ालिब की एक पीछे छूटे हुए समय के लिए छटपटाहट को दर्शाने के लिए इस्तेमाल में लाया गया है। इस छटपटाहट को दर्शाने के लिए इस शैली के अलावा फ़्लैशबैक का भी इस्तेमाल किया गया है। ग़ालिब की मौत से दो साल पहले, 1867 से शुरु हुए कथानक में इन्ही फ़्लैशबैक के ज़रिए ग़ालिब के बचपन, जवानी और फ़िर बुढ़ापे का सफ़र तय किया गया है। पुरे ही धारावाहिक में ग़ालिब की जीवन घटनाओं मात्र को ही नही अपितु उनकी संवेदनाओं, भावनाओं और इच्छाओं को धारावाहिक की कथावस्तु में पिरोया गया है। उनके निजी जीवन को उस समय के राजनैतिक एवं सामाजिक माहौल में स्थापित कर गुलज़ार ने इस धारावाहिक को काफ़ी हद तक ऐतिहासिक दृष्टिकोण से प्रासंगिक बनाया है।
लेखक की बायोपिक की चुनौती
किसी लेखक पर आधारित बायोपिक बनाने की सबसे बड़ी चुनौती होती है उसके ही लिखे हुए साहित्य से उसकी जीवनी को रचना। लेखक के समय की ऐतिहासिक घटनाओं का सही चित्रण और इन घटनाओं में उसी के लिखे साहित्य की प्रेरणा को ढूंढकर उसके साहित्य को उसके जीवनी का एक अभिन्न अंग बनाना ऐतिहासिक प्रामाणिकता में असंगतियों को जन्म दे सकता है। इस तरह की संभावनाएं उन साहित्यकारों के लिए कम हो जाती है जिनके साहित्य में मौजूदा राजनैतिक और सामाजिक विषय परिलक्षित होते हैं। पर ग़ालिब उन साहित्यकारों में से नही थे। उनके शेर और शायरी उनकी निजी जिन्दगी पर ज़्यादा आधारित रहते थे।
गुलज़ार ने भी ग़ालिब की निजी संवेदनाओं और अनुभूतियों को धारावाहिक में उनकी शायरी से जोड़कर बखूबी दिखाया है। इस धारावाहिक को देखकर पता चलता है कि ग़ालिब के जीवन की सबसे बड़ी चुनौतियों में से एक थी उनकी सात संतानों की पैदा होने के बाद एक एक कर बहुत छोटे में ही मौत हो जाना। इस निजी त्रासदी का सदमा उन्हें और उनकी जीवन संगीनी को पुरी ज़िन्दगी रहा। ग़ालिब नास्तिक तो नही थे, पर धर्म को लेकर उनकी आस्थाएँ बहुत संगीन नही थीं। वे शराब पीते थे, और उन्हें जुआ खेलने का भी शौक था। दोनों ही आदतें उन्हें पूरी ज़िन्दगी महंगी पड़ती रहीं। अपने पारिवारिक वज़ीफ़े के बंद हो जाने और तत्कालीन दिल्ली के शहंशाह बहादुर शाह ज़फ़र के दरबार में जगह ना पाने से ये आदतें उन्हें और महंगी पड़ीं। इन निजी समस्याओं को कैसे ग़ालिब ने अपने खुशमिजाज़ रवैये और “फ़नूने-लतीफ़े”[2] की मदद से अपनी ज़िन्दगी पर हावी नही होने दिया और फ़िर भी बेहतरीन शायरी लिखते रहे, इसका चित्रण गुलज़ार ने बखूबी किया। इस प्रक्रिया में ग़ालिब की कुछ खास नज़्मों और शायरी को इस्तेमाल कर उन्होंने ग़ालिब के साहित्य को उनकी जीवन घटनाओं से जोड़ा।
पर समस्या तब उत्पन्न होती है जब गुलज़ार ग़ालिब की शायरी में एक राजनैतिक एवं सामाजिक टिप्पणी का स्त्रोत ढूँढते हैं। गोपीचंद नारंग, जिन्हें खुद गुलज़ार, ग़ालिब और उर्दू पर हिंदुस्तान में आज के वक्त में सबसे बड़ी ‘ऑथोरिटी’ मानते हैं[3], का कहना है कि ग़ालिब की बहुत कम ही ऐसी नज़्में हैं जिन्हें किसी सामाजिक या राजनैतिक उहापोह से जोड़कर देखा जा सकता है।[4]इस धारावाहिक में प्रस्तुत एक दृश्य में ग़ालिब (नसीरुद्दीन शाह द्वारा चरितार्थ) को ज़फ़र के दरबार से एक मुशायरे में जब नाकाम होकर लौटने पर उनकी बीवी (तन्वी आज़मी द्वारा चरितार्थ) वापस आगरा लौट चलने की सलाह देती हैं, तो ग़ालिब खिन्न होकर कहते हैं “हिंदु, मुसलमान, शिया–सुन्नी। यही बँटवारे क्या कम थे कि लोगों ने दिल्ली, लख़नऊ और आगरा की दीवारें भी खड़ी कर लीं। दुनिया मुझे छोटी लगती है बेगम … यह दुनिया …”। इसके बाद ग़ालिब को एक शेर पढ़ते दिखाया गया है “बाज़ीचाये अतफाल है दुनिया मेरे आगे। होता है शबओ रोज़ तमाशा मेरे आगे।“[5] इन पंक्तियों को अगर धारावाहिक की पटकथा के मद्देनज़र देखें तो ये ज़ाहिर होता है कि ग़ालिब दरबार में हुए मुशायरे में अपने साथी शायरों की बेरुखी से मायूस थे और इस लय में उन्होंने अपनी संवेदना प्रकट करते हुए यह शेर गढ़ा। पर जैसा कि नारंग ने भी कहा है ग़ालिब के शेरों में किसी राजनैतिक विषय जैसे कि सांप्रदायिक बंटवारे के ऊपर टिप्पणी ढूंढना शायद प्रासंगिक नही है। यह तर्क तब और पुख्ता होता है जब हम देखते हैं कि सांप्रदायिक कटुता होने के बावजूद ग़ालिब की जवानी के समय में धार्मिक आधार पर किसी बंटवारे की बड़ी घटना का कोई रिकॉर्ड नही है।
गुलज़ार का कहना है कि ग़ालिब एक बेहद आत्मवादी इंसान थे।[6] शायद इसीलिए उनकी नज़्मों में किसी भी विषय पर सिर्फ़ उनकी वैयक्तिक राय ही मिलती है। इस तरह के लेखक की कृतियों मात्र के द्वारा उसके समय के महत्वपूर्ण घटनाक्रमों को किसी बयोपिक में दर्शाना बेहद कठिन चुनौती है जिसके कारण इस तरह की असंगतियों की संभावनाएँ बढ़ जाती हैं।
ग़ालिब और 1857 का गदर
ऐसा नही था कि ग़ालिब पर अपने समय की महत्वपूर्ण घटनाओं का कोई असर नही पड़ा हो। उनके जीवनकाल की सबसे बड़ी और महत्वपूर्ण घटना रही 1857 का विद्रोह और उससे उपजी हिंसा और राजनैतिक तब्दीलियाँ। पर इस घटना को लेकर ग़ालिब की प्रतिक्रिया उनकी शायरी में नहीं बल्कि उनके लिखे रिपोर्ताज जिसका नाम था दस्ताम्बू और अपने कुछ करीबी लोगों को लिखे खतों में मिलती है। नारंग के विश्लेषण से यह पता चलता है कि इन दोनों ही स्त्रोतों में विद्रोह को लेकर उनके दो विपरीत प्रकार के विचार थे। एक तरफ़ जहाँ दस्ताम्बू में ग़ालिब ने अंग्रेज़ी साम्राज्य के प्रति खुलकर अपनी वफ़ादारी का परिचय दिया है, वहीं अपने खतों में उन्होंने अंग्रेज़ों द्वारा विद्रोहियों और अन्य निर्दोष लोगों के प्रति किए गए क्रूर सलूक पर बागियों के साथ अपनी संवेदना भी प्रकट की है।
ग़ालिब के लिए 1857 के विद्रोह के सम्बन्ध में एक स्पष्ट राय रखना और उसे बेबाकी से बयान करना दो वजहों से मुश्किल था। ग़ालिब का वज़ीफ़ा रुके होने से उनकी आर्थिक हालत बेहद खराब थी। ज़फ़र के दरबार में अपने समकालीन शायर जैसे ज़ौक और मोमिन के बीच जगह ना बना पाने के कारण ये बदहाली उनके लिए निरंतर समस्या बनी रही। 1857 तक आते आते, अंग्रेज़ों ने भारत की सत्ता पर मज़बूती से पकड़ बना ली थी और इसलिए अपनी आर्थिक स्थिति को सुधारने के लिए ग़ालिब को अंग्रेज़ी हुकूमत से बहुत आशाएँ थीं। जैसा कि नारंग ने लिखा है, अपने रिपोर्ताज दस्ताम्बू में ग़ालिब ने ना सिर्फ़ विद्रोह की कड़े शब्दों में भर्त्सना की है बल्कि अंग्रेज़ी आकाओं की दिल खोलकर तारीफ़ें भी की हैं। विद्रोह की घटनाओं का सटीक वर्णन करना ग़ालिब को महंगा पड़ता।
बागियों को लेकर उनकी चुप्पी की एक दूसरी वजह भी थी। अंग्रेज़ी सल्तनत द्वारा विद्रोह के बाद कई शहरों और खास कर दिल्ली में मुस्लिम आबादी को निशाना बनाया गया। विद्रोह के बाद भी काफ़ी समय तक मुस्लिमों को दिल्ली में वापस नही आने दिया गया। ग़ालिब के खुद के कई परिचित और नातेदारों को विद्रोह में अपनी जान से हाथ धोना पड़ा। बकौल ग़ालिब खुद वह भी बड़ी मुश्किल से अंग्रेज़ी हुकूमत से अपनी जान छुड़ा पाए। साथ ही इस दौर में अंग्रेज़ी शासन द्वारा पत्राचार पर कड़ी निगरानी रखी जा रही थी। ग़ालिब के कई खतों में उन्होंने अपने करीबियों से पत्र पढ़ने के बाद उसे नष्ट कर देने को कहा है। इस तरह के माहौल में ये खत ही थे जिनमें ग़ालिब ने बड़ा ज़ोखिम उठा कर गदर को लेकर अपनी असली भावनाओं का ज़िक्र किया है। इन पत्रों में ग़ालिब ने अपने कई दोस्त, नातेदार और करीबियों को खोने के दर्द का इज़हार किया है। इतनी मौतें, दहशत और बरबादी को अपने सामने देखने का ग़ालिब पर गहरा सदमा पड़ा था।
पर सवाल है कि ग़ालिब के इन अनुभवों को गुलज़ार ने किस प्रकार इस धारावाहिक में दर्शाया है और इससे कथानक में कौनसी असंगतियाँ उत्पन्न हुई हैं और क्यों?
ग़ालिबऔरगुलज़ार
गुलज़ार ग़ालिब से अपने आप को संवेदनात्मक रूप से बेहद जुड़ा हुआ पाते हैं। गुलज़ार लिखते हैं “ग़ालिब का उधार लेना, उधार न चुका सकने के लिए पुरमज़ह बहाने तलाशना, फ़िर अपनी ख़फ़्त का इज़्हार करना, जज़बाती तौर पर (emotionally) मुझे ग़ालिब के करीब ले जाता है। काश मेरी हैसीयत होती और मैं ग़ालिब के सारे कर्ज़ चुका देता। अब हाल यह है कि मैं और मेरी नस्ल उसकी कर्ज़दार है”। [7]
ग़ालिब से एक भावनात्मक जुड़ाव रखने वाले गुलज़ार ने इस धारावाहिक में ग़ालिब के साथ ऐतिहासिक और संवेदनात्मक तौर पर पुरा न्याय करने की कोशिश की है। पर जहाँ बात आती है 1857 के अनुभवों की, जिनका ज़िक्र धारावाहिक के अंतिम भाग में किया गया है, वहाँ ग़ालिब के अनुभवों को एक तरफ़ा दिखाने के लिए गुलज़ार ज़िम्मेदार पाए जाते हैं। जैसा कि नारंग के विश्लेषण में हमने देखा ग़ालिब ने 1857 के गदर में अपने रिपोर्ताज में अंग्रेज़ी हुकूमत के खिलाफ़ कुछ भी लिखने की ज़ुर्रत नही की और गदर की घटनाओं से पहुँचे सदमे और आघातों का ज़िक्र केवल अपने खतों में ही किया। पर इस धारावाहिक में हम देखते हैं कि ग़ालिब के अंग्रेज़ी सरकार की तारीफ़ में लिखी गई बातों का कहीं कोई ज़िक्र नही दिखाई पड़ता।
धारावाहिक के आखिरी दृष्य में ग़ालिब के गदर को लेकर पूरे अनुभव को समेटने की कोशिश की गई है। रूपकमयता पर पूरी तरह आधारित इस चित्रण में पिछले पूरे धारावाहिक में चले आ रहे यथार्थवादी दृष्टिकोण को त्याग दिया गया है। दृष्य की शुरुआत पिछले दृष्य के अंत से होती है। दो दिल्ली के बाशिंदे सुबह के समय में आपस में विद्रोह के बाद अंग्रेज़ी हुकूमत की बरबरताओं की चर्चा कर रहे हैं। एक दूसरे से कहता है “… दरख्तों पर लाशें लटकी हुई हैं। बया के घोसलों की तरह”। और इसके ठीक बाद दृष्य अचानक बदल जाता है और दर्शक को इस संवाद के यथाशब्द चित्रण के सामने लाकर खड़ा कर दिया जाता है। कैमरा समतल घूमता है और एक बाग़ में कई पेड़ों पर लाशें फाँसी पर लटकती हुई दिखाई देती हैं (दृश्य १)। कैमरा घूमना बंद कर ग़ालिब को इन लाशों के बीच खड़ा दिखाकर रुक जाता है और उन पर ज़ूम करता है। ग़ालिब अविश्वास और सदमे में अपना सिर हिला रहे हैं (दृश्य २)।
इसके बाद लौटते हुए ग़ालिब के थके मांदे चेहरे पर कैमरा केन्द्रित किया जाता है (दृश्य ३) और पीछे से उनकी नज़्म जगजीत सिंह की आवाज़ में सुनाई पड़ती है- “ना था कुछ तो खुदा था, कुछ ना होता तो खुदा होता। डुबोया मुझ को होने ने, ना होता मैं तो क्या होता”।
इस दृष्य की, कथानक और फ़िल्माँकन के, दोनों ही दृष्टिकोण से अत्यंत महत्ता है। दृष्य की शुरुआत में कहे गए संवाद का यथाशब्द चित्रण प्रतीकात्मकता के बजाय रुपकमयता का उपयोग करता है। किसी प्रतीक का उपयोग किसी विशेष भावना या संदेश को व्यक्त करने के लिए किया जाता है। जबकि रूपकमय चित्रण का प्रयोग यानि allegorical depiction किसी एक वाकये के माध्यम से किसी दूसरी घटना या फ़िर उस जैसी सभी घटनाओं के भाव उकेरने के लिए किया जाता है। सिनेमा में इस चित्रण में किसी प्रतीकात्मक संवाद या फिर मुहावरे या कहावत को यथाशब्द दर्शाना, दर्शकों को उस घटना से अचानक रूबरू करा देता है। बया के घोंसलों की तरह लटकती हुई लाशों को बिल्कुल उसी तरह दर्शाना एक भयावह स्थिति पैदा करता है, जिससे हम किसी व्यापक नरसंहार की डरावनी स्थिति को प्रत्यक्ष रूप से ही नही परन्तु संवेदनात्मक रूप से भी महसूस कर पाते हैं।
ग़ुलज़ार ने इसी घटना पर धारावाहिक का अंत किया है। लौटते हुए ग़ालिब की नज़्म से उनके सदमे और अवसाद का ज्ञान दर्शक को कराया जाता है। हालांकि ग़ालिब 1857 के दस बारह वर्ष बाद तक जीवित रहे, पर गुलज़ार ने उस समय को इस धारावाहिक में नही दिखाया। बल्कि एक तार्किक असंगति का शिकार होते हुए गुलज़ार ने इस अंतिम दृष्य में ही अपनी ही आवाज़ में सूत्रधार के रूप में दर्शकों को बताया कि इसके दो साल बाद 1869 में ग़ालिब का देहांत हो गया। 1857 में दिखाई गई घटना के दृष्य में ही दस साल का सफ़र पूरा कर लेना इसी असंगति का प्रमाण है, क्योंकि यह मानना कि यह दृष्य ग़ालिब के देहांत के आसपास का है, हमें यह मानने पर भी मजबूर करता है कि विद्रोह के लगभग दस साल बाद भी अंग्रेज़ी हुकूमत ने बागियों के खिलाफ़ बरबरता जारी रखी, जो ऐतिहासिक रूप से सही नही है।
असंगतियों के कारणों का विश्लेषण
गुलज़ार ने धारावाहिक के अंत में ग़ालिब के जीवन को 1857 की घटना पर लाकर ही समाप्त कर दिया। इसमें भी उनकी अंग्रेज़ी हुकूमत के प्रति बरती गई वफ़ादारी का ज़िक्र नही किया गया है। संभवत: गुलज़ार दर्शकों को धारावाहिक के अंत में एक सदमे की हकीकत के साथ छोड़कर जाना चाहते थे। यह सच है कि ग़ालिब के विद्रोह की प्रतिक्रियाएँ विरोधाभासी थीं, पर गुलज़ार के लिए उनके 1857 से जुड़ी दुखद यादों को दर्शाना ज़्यादा आवश्यक था। ऐसा शायद इसलिए है कि वह अपने प्रिय शायर की भावनात्मक मनोस्थिति के साथ इंसाफ़ करना चाहते थे। इतिहास की दुर्घटनाओं की गाज कुछ लोगों पर सदमे की अमिट छाप छोड़ जाती है। चाहे उसके बाद सदमे की चपेट में आए व्यक्ति का जीवन इससे उबर भी जाए पर अपने नियंत्रण से बाहर पड़ने वाली परिस्थितियों के कारण हुई दुर्घटनाओं और उससे हुई क्षति का हिसाब मनुष्य सदा ही समय से माँगता है पर समय हमेशा की तरह आगे बढ़ता जाता है।[8]
शाय्द गुलज़ार ग़ालिब की इसी मनोस्थिति से दर्शकों को अवगत कराना चाहते थे और इसी अनुभव के साथ उन्हें सोचता हुआ छोड़ना चाहते थे। जैसा कि मौहम्मद हमीदउल्लाह भट ने इस धारावाहिक के मुद्रित स्क्रीनप्ले के अवशिष्ट में लिखा है “गुलज़ार ने अपने गर्दोपेश की फ़िज़ा को अपनी ही आँखों से देखा है और अपने माहौल की नहमवारियों को दर्दमंद दिल के साथ महसूस किया है। तकसीमे वतन के दर्द की शिद्दत और हिजरत के कर्ब को झेला है और ये नॉस्टेल्जिया की सूरत में उनके गीतों, नज़्मों और अफ़सानों में उजागर हुआ है। ग़ालिब से मोहब्बत भी इसी नॉस्टेल्जिया और फ़िर्दोसे गुमशुदा की बाज़याफ़त की कोशिश है”।
हमीदउल्लाह जिस दर्द की बात कर रहे हैं वह है 1947 के भारत पाकिस्तान के विभाजन से जुड़ा दर्द। इस विभाजन में गुलज़ार ने सिर्फ़ अपने मुल्क को ही नही खोया पर अपने कई परिचितों और दोस्तों को भी खो दिया। इस क्षति का अनुभव गुलज़ार को ग़ालिब से जोड़ता है। दोनों ही एक ही समयकाल के दो सिरों पर अपने को खड़ा हुआ पाते हैं। जहाँ ग़ालिब ने मुगल काल को अंग्रेज़ी हुकूमत के हाथों खत्म होते हुए देखा वहीं लगभग सौ साल के बाद गुलज़ार ने उसी अंग्रेज़ी हुकूमत को, दो नए वतन के बनने के साथ ही, खत्म होते हुए देखा। दोनों ही घटनाओं के साथ जुड़ी थी व्यापक हिंसा, नरसंहार और तबाही। अपनी ज़िन्दगी की पूरी शक्ल को अपने ही सामने बदलते हुए देखना और कुछ ना कर पाना दोनों की ही किस्मत का हिस्सा रहा। शायद यही वजह थी कि गुलज़ार के लिए इस धारावाहिक में ग़ालिब के सदमे की पीड़ा का उल्लेख इतना आवश्यक था कि इसे इस दर्द के अनुभव पर खत्म करने की चाह ने उनके कथानक को यथार्थवाद और यथार्थ से दूर कर दिया। जहाँ अन्यत्र एक यथार्थवादी चित्रण को छोड़कर रूपकमय चित्रण का सहारा लिया गया वहीं कुछ ऐतिहासिक असंगतियों के आ जाने से कथानक यथार्थ से कुछ दूर हो गया। पर इन दोनों ही परिवर्तनों के पीछे कारण था संवेदना और भावनात्मकता पर गुलज़ार का ज़ोर देना।
गुलज़ारनेअपनेएकसाक्षातकारमेंकहाथाकिविभाजनकेबीससेपच्चीससालबादतकभी उसकी यादें उन्हें परेशान करती रहीं। जहाँ एक तरफ़ लोगों ने विश्व युद्ध से जुड़ी बुरी यादों को उसके बारे में बात कर के अपने ज़ेहन से निकाल लिया वहीं विभाजन के बारे में बात ना कर के लोगों ने उसे अभी भी अपने अंदर जीवित रखा है और अपने घावों को भरने का मौका नही दिया है। गुलज़ार का कहना है कि इसके पीछे एक वजह थी हिन्दी फ़िल्म इंडस्ट्री को इस विषय पर चुप्पी बनाए रखने की हिदायत, क्योंकि यह मुद्दा राजनैतिक और भावनात्मक रूप से संवेदनशील माना गया। 2007 के इस साक्षातकार में गुलज़ार की यह राय है कि अब वक्त आ चुका है कि लोग विभाजन की उन यादों को अपने ज़ेहन से निकाल दें और ज़िन्दगी में आगे बढ़ें। पर इस घटना को भूलना खुद उनके लिए भी आसान नही रहा है।
2003 में छपे उनके बहुचर्चित नाटक– खराशें, के परिशिष्ट में उन्होंने लिखा है “1947 में इतनी लाशें गिरती देखीं और इतने फ़सादात भड़कते देखे कि उनकी छाप अब तक आँखों से उतरी नहीं। आसमान पर उड़ती चीलें भी देखूँ तो गिद्ध लगती हैं- कहीं कोई सफ़ा खुल जाता है, कोई बेकफ़न लाश नज़र आ जाती है- कोई बेकफ़न दिन जो अब तक दफ़नाया नहीं गया। सलीम आरिफ़ बहुत सालों से मे साथ हैं… – ये मौजूँ जो बार-बार मेरी नज़्मों और अफ़सानों में उभर आता था, उससे वो बेचैन रहते थे- यह उन्हीं की कोशिश है, और उन्हीं का इन्तख़ाब, कि उन नज़्मों, अफ़सानों को एक कोलाज की सूरत देकर स्टेज पर खड़ा कर दिया… – ताकि इन उड़ती चीलों की बला हमारे आसमाँ से उतर जाए”। शायद मिर्ज़ा ग़ालिब पर बना धारावाहिक भी उनकी इन्हीं कृतियों में से एक था जिनमें फ़सादात और मौतों का यह “मौजूँ” उभर आया था। शायद ग़ालिब केसदमे के चित्रण की प्रेरणा उन्हें अपनी ही स्मृति में मौजूद विभाजन की हिंसा और तबाही के मंज़र से मिली होगी और शायद इनको इस धारावाहिक के रूप में ढाल देना उनके लिए अपनी यादों को अपने ज़ेहन से निकाल लेने का एक प्रयास रहा होगा।
[1] यथार्थवाद पर ‘द हिन्दू’ अखबार में लिखे गए लेख में गुलज़ार के शामिल किए गए विचारों में से। अधिक जानकारी के लिए पढ़ें “Where is reality”, The Hindu. 20 जुलाई 2001।
[2] “फ़नूने- लतीफ़ा”धारावाहिक के छपे स्क्रीनप्ले के परिशिष्ट में गोपीचंद नारंग के द्वारा ग़ालिब की शायरी के वर्णन के लिए प्रयुक्त किया गया है।
[3] छपेहुएस्क्रीनप्लेमेंमुकद्दमेसे। पिछले और इस संदर्भ पर अधिक पढ़ने के लिए देखें “मिर्ज़ा ग़ालिब: एक स्वानही मंज़रनामा”, (गुलज़ार, 2008)। नई दिल्ली: रूपा प्रकाशन।
[4] साहित्यअकादमीकेशोधपत्र मेंसे।“Ghalib and the Rebellion of 1857”, (Narang, 1972). पृ: 5-20।
[5] बाज़ीचाये अतफ़ाल: बच्चों के खेलने का मैदान (अर्थ का स्त्रोत: धारावाहिक में से)
[6] ‘टाइम्स ऑफ़ इन्डीया’ में छपे पी.टी.आई. को दिए गए 24 दिसम्बर 2010 के साक्षातकार में से।शीर्षक: “Ghalib was a great egotist: Gulzar”.
Just finished watching the show on you tube.. mission accomplished again !!
“Why didn’t I watch it earlier?” was my first thought.
Read the article again and now I want to dive deeper and find out more about Mirza Ghalib.
Thanks for writing this piece.
Very well written … tempts me to go a step further and watch “Mirza Ghalib”
Very well written … tempts me to go a step further and watch “Mirza Ghalib”
aah!!! mission accomplished 😀
aah!!! mission accomplished 😀
Just finished watching the show on you tube.. mission accomplished again !!
“Why didn’t I watch it earlier?” was my first thought.
Read the article again and now I want to dive deeper and find out more about Mirza Ghalib.
Thanks for writing this piece.
So glad that it came full circle like this 😊