धर्म, सत्ता और समाज के अंतर्संबंधों पर प्रकाश डालता नाटक ‘कबीरा खड़ा बाज़ार में’
आम तौर पर कबीरदास का परिचय 15वीं शताब्दी में चले भक्ति आंदोलन के एक प्रमुख कवि और रचनाकार के रूप में दिया जाता है। पर कबीरदास सामाजिक क्रांति के परिचायक के रूप में भी माने जाने चाहिए। समाज के प्रचलित मतों, प्रथाओं, विश्वासों आदि जो लोगों को आपस में बाँटते रहे हैं, के खिलाफ कबीरदास ने अपनी आवाज़ हमेशा ही उठाई जिसके कारण उन्हें धर्म के ठेकेदारों और बादशाहों के हाथों बहुत से कष्ट सहने पड़े। जहाँ कबीर की लेखनी में धार्मिक आडम्बरों और कुप्रथाओं और सामाजिक भेदभाव की रीतियों के खिलाफ प्रत्यक्ष विरोध और विद्रोह दिखाई देता है वहीं उनका यह विरोध अपने आप में उनका एक राजनीतिक पक्ष दिखाता है जो सत्ताधारियों के खिलाफ आवाज़ बुलन्द करने से गुर्रेज़ नहीं करता।
उनके इसी पक्ष को इस रविवार सूरसदन प्रेक्षागृह में रंगलोक सांस्कृतिक संस्थान ने अपने नाटक ‘कबीरा खड़ा बाज़ार में’ के माध्यम से उजागर करने का प्रयास किया। कबीर के जीवन पर आधारित यह नाटक धर्म और समाज के प्रति उनकी सोच के उद्गम से लेकर परिपक्वता के सफर को चित्रित करता है। बनारस जिसे कबीर की जन्मस्थली माना जाता है, में आधारित यह नाटक उनके वैयक्तिक और सामाजिक जीवन की कहानी के माध्यम से उनके विचार, काव्य और सोच को स्थापित करता है। नाटक की सबसे बड़ी विशेषता थी कि इसमें निरन्तर रूप से उनके लिखे दोहों को मंच पर लाइव संगीत के माध्यम से प्रस्तुत किया गया। संगीत की शैली खालिस पारंपरिक देसी थी जिसके कारण पूरे नाटक में लोक परंपरा की छाप मिलती रही।
कबीरदास की मुख्य भूमिका में थे आकाश जिन्होंने इससे पहले भी रंगलोक के नाटकों में प्रमुख भूमिकाएँ निभाई हैं पर मुख्य किरदार का भारी-भरकम दायित्व उन्हें पहली बार मिला। पर अपने सरल और सहज अभिनय के माध्यम से उन्होंने कबीर की सहजता और सरलता को उम्दा तरीके से उभारा। नाटक में निरन्तर अभिनय करते हुए कबीर के सभी दोहों को सही उच्चारण के साथ निभाते रहने का जटिल काम उन्होंने बखूबी निभाया। वहीं डिम्पी मिश्रा ने मंच के परे और मंच पर उपस्थित रहकर इस नाटक का निर्देशन तो किया ही पर साथ ही गायन की बागडोर पूरी तरह से संभाली जो कि इस प्रस्तुति की संगीतमयता का एक बेहद अनिवार्य अंग था।
मंच सज्जा के मद्देनज़र इस नाटक में बहुत कुछ खास था। बनारस के विश्वप्रसिद्ध घाटों का माहौल मंच पर जीवित करना मंच सज्जा की एक बड़ी उपलब्धि रही। साथ ही प्रकाश व्यवस्था में पीली रोशनी के उपयोग से एक ऐतिहासिक समय काल का भाव सफलतापूर्वक प्रकट किया गया। नेपथ्य में बहते पानी पर रोशनी के प्रतिबिम्ब को प्रदर्शित कर नाटक में तकनीक की सुदृढ़ता का परिचय भी मिला। सभी किरदारों की पोशाकें भी नाटक की प्रामाणिकता को स्पष्ट करते रहे।
आजकल जहाँ फिल्मों में ऐतिहासिक व्यक्तित्वों की जीवनियों पर आधारित कहानियाँ बताई जा रही हैं, वहाँ यह नाटक एक जीवनी पर आधारित होते हुए भी उन सब से अलग था। इसका पहला कारण थी इसकी गंभीरता जो आजकल की अधिकांश बायोपिक फिल्मों में निहित उथलेपन और बाजारवादी दृष्टिकोंण से इस बिल्कुल अलग खड़ा करती है। दूसरी बात थी इस नाटक की कबीर की कहानी कहने के साथ ही एक अधिक विस्तृत परिप्रेक्ष्य की बात कहने की कोशिश। यह बात थी धर्म, सत्ता और समाज के परस्पर संबंधों की। नाटक के कई दृश्यों में सत्ता के धर्म और आडम्बर के माध्यम से अपनी शक्ति बढ़ाने के चलन को उजागर किया गया। ऐसे में समाज में यदि इस चलन के विरुद्ध, मानुषिक मूल्यों की बात की जाती है तो किस प्रकार उसका दमन करने की चेष्ठा की जाती है, यह इस नाटक का एक प्रमुख केन्द्र-बिन्दु रहा। खास बात यह है कि यह बात हर समयकाल और हर सामाजिक संदर्भ में सही बैठती है।
जैसा कि डिम्पी मिश्रा ने बताया यह प्रस्तुति इस नाटक की 62वीं प्रस्तुति थी, पर कहा जा सकता है कि इस नाटक को जितनी भी बार लोगों के सामने पेश किया जाए कम है।