फिल्मों के विदाई के गीतों में महिलाओं की असहायता का महिमामंडन
एक लड़की के विवाह से ही ‘विदा’ शब्द जुड़ा होता है क्योंकि उसके जीवन में अपने घर से जिस तरह का निष्कासन होता है, वह और किसी के साथ नहीं होता। एक लड़की के अतिरिक्त घर का कोई भी सदस्य विदाई के बाद वापस अपने घर एक मेहमान के रूप में नहीं आता। विदा के समय घर के दरवाजे से कदम निकालते ही उसे आभास कराया जाता है कि यह घर अब उसका नहीं है। उसे अपने घर से परायेपन की अनुभूति होने लगती है। ‘पराया’ का सीधा अर्थ लगाया जा सकता है कि अब लड़की के सुख-दुख से उसके घर वालों का कोई सम्बन्ध नहीं है और विदा के समय निकले पहले कदम के साथ ही उसका सम्बन्ध उस घर से सदा के लिए समाप्त हो जाता है; उस घर से, जहाँ उसके बचपन, किशोरावस्था और यौवन की यादें उसके मन में सदा समायी रहती हैं ।
यही परम्परा और प्रथा पुराने समय से लेकर आज तक चली आ रही है। एक लड़की के पराये होने के सामजिक बोध के इस कटु सत्य पर आधारित, फ़िल्मों में कितने ही गाने बनाए गए हैं, जिनमें वह अपने घर-आँगन की याद कर रही होती है। ये गाने लड़की के पराये होने के बोध को व्यक्त करने के साथ ,समाज की इस सोच को और पुष्ट करते हैं। प्रस्तुत है ऐसे ही कुछ गीतों का विश्लेषण-
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1960 में प्रदर्शित फिल्म ‘बम्बई का बाबू’ के गाने ‘चल री सजनी अब क्या सोचे’ का फिल्मांकन देखा जाए तो विदा होने वाली लड़की, उसकी माँ, पिता एवं अन्य सभी लोग रो रहे हैं। विदा की प्रथा को, लड़की का घर से सम्बन्ध खत्म होने का संकेत देकर अत्यन्त निष्ठुर बना दिया गया है। इस गाने में लड़की के साथ सबको रोते दिखाया गया और पिता पछता रहा है। गाने में ‘काहे दिया परदेस टुकड़े को दिल के’ कहकर पिता को तो पूरी सहानुभूति मिली है जबकि परायापन लड़की के हिस्से आता है। वह निराश होकर सोचती है कि ‘कोई नहीं अपना ये कैसी घड़ी है’। उसकी माँ, गुड़िया, सहेलियाँ, घर, गली, आँगन सभी कुछ छूट रहा है। वह किस-किस को भूल सकेगी?
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बन्दिनी (1963) फिल्म का अत्यन्त लोकप्रिय गाना ‘अब के बरस भेजो भईया को बाबुल, सावन में लीजो बुलाय रे’ में नायिका अपने पिता और भाई से प्रार्थना करती नज़र आती है कि उसे सावन में घर बुला लें। इस गाने में लड़की को अत्यन्त दयनीय बना दिया गया है। वह अपने बचपन की याद करके पिता से पूछती है कि उन्होंने उसे पराया क्यों कर दिया और प्रार्थना कर रही है कि उसे उसका भाई घर ले जाये। इस गीत में उस प्रथा का विवरण है जिसमें लड़की के मायके से जब उसकी विदा के लिए कोई पत्र आता था या उसे कोई लेने आता था, तभी उसके ससुराल वाले उसे उसके मायके भेजते थे। यानि वह अपनी इच्छा से अपने घर भी नहीं जा सकती है। निरुपाय होकर अपने आत्मसम्मान को समाप्त कर नायिका इस गीत में कह रही है, ‘बीते रे जुग कोई चिठिया ना पाती, ना कोई नैहर से आये रे’।
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नीलकमल फिल्म 1968 में प्रदर्शित हुई थी, जिसके गाने ‘बाबुल की दुआएं लेती जा, जा तुझको सुखी संसार मिले’ में पिता बेटी की खुशहाली के लिए दुआ कर रहे हैं। यानि पिता को स्वयं ही संशय है कि जिस घर में वह अपनी लड़की को भेज रहे हैं, वहाँ वह सुखी रहेगी कि नहीं। पर वह बेटी को इतना तो आश्वासन दे सकते हैं कि यदि वह दुखी रहेगी तो वह उसके साथ रहेंगे। बेटी का अनिश्चित भविष्य होने पर भी, सबसे पहले उनकी कामना है कि उसे मायके की याद ना आये। पिता के अनुसार यह लड़की के भाग्य पर निर्भर है कि उसके ‘जीवन की घड़ियाँ आराम की ठंडी छाँव में’ बीतें या नहीं।
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पाकीजा (1972) के गाने ‘प्यारे बाबुल तुम्हारी दुहाई, आज मैं हो रही हूँ पराई’ में, (जो फिल्म में दर्शाया नहीं गया था), लड़की स्वयं पिता को अपने पराये होने का उत्तरदायी बता रही है। उसे दुख है कि उसके भाई, बहन और सहेलियाँ छूट रहे हैं पर साथ ही समाज की पितृसत्तात्मक सच्चाई को व्यक्त करती हुई वह भाई से कहती है कि ‘मेरी जामुन ना अँवुआ है मेरा, मेरे भईया ये सब कुछ है तेरा’। वह कह रही है, ‘दो ही दिन का था मेरा बसेरा, चार दिन भी मैं रहने ना पाई’। इस गाने में लड़की का अपने घर वालों के प्रति विषाद और अपने घर पर उसके अधिकार खत्म होने की भावना से उत्पन्न व्यग्रता के भाव दिख रहे हैं।
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दाता फिल्म (1989) के गाने ‘बाबुल का घर बहना कुछ दिन का ठिकाना है’ में लड़की का भाई अपनी बहन से यह नहीं कहता कि यह घर उसका भी है अपितु उसे वहाँ उसके अल्पकालिक अस्तित्व का बोध कराता है। इस गाने में लड़की पिता से कहती है ‘मैं तो तेरे आँगन की कली हूँ’, माँ से कहती है ‘मैं तो तेरे आँचल की गुड़िया हूँ’। वह माँ और भाई से कहती है ‘मैं तेरे बाग की चिड़िया हूँ’ और पूछती है कि उसे इस घर से क्यों जाना पड़ रहा है? लड़की को यही उत्तर मिलता है कि ये दुनिया का दस्तूर है। क्या समाज के सभी दस्तूरों का इतनी कड़ाई से पालन होता है, जितना लड़की को पराया करने के दस्तूर का होता है?
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2018 में प्रदर्शित फिल्म राज़ी का गाना, विदा के समय एक लड़की के अपने घर से छूटने की व्यथा व्यक्त कर रहा है, जिसमें उसे पिता को याद दिलाना पड़ रहा है ’उँगली पकड़ के तूने, चलना सिखाया था ना’ और अब विदा के समय घर छूटने के, दर्द की दहलीज को भी उन्हें ही पार कराना है। पिता से, ’टुकड़ा हूं तेरे दिल का’ कहकर उसे सहानुभूति की भीख माँगनी पड़ रही है।आज की सदी में भी लड़कियों को पराया समझने की मानसिकता पर जोर दिया जा रहा है। इस गाने की कुछ पंक्तियों में उल्लेख है “फसलें जो काटी जायें, उगती नही हैं, बेटियाँ जो ब्याही जाएँ, मुड़ती नहीं हैं”। लड़की कोई फसल नहीं होती जिसे काट दिया जाए। यह लड़की का अत्यंत वस्तुवादी चित्रण है। इसके बजाय, रीतिगत रुढ़ियों का अधिक सटीक वर्णन होता कि लड़की का भाग्य एक पौधे के समान होता है जिसे उखाड़ कर दूसरे स्थान पर ले जाया जाता है। अनुकूल परिस्थिति मिलने पर पौधा पनप सकता है अन्यथा वह मुरझा जाता है।
लड़की के विवाह के साथ एक परायेपन की अनुभूति बहुत पीड़ादायक है। विवाह के बाद लड़की को अपने माता-पिता के घर में, पहले जैसी आत्मीयता का अभाव लगता है। वही आँगन , दहलीज, छत, पेड़-पौधे होते हुए भी, वह उस घर की मेहमान बन जाती है जहाँ वह एक सीमित अवधि तक रह सकती है। पीढ़ी-दर-पीढ़ी यह परम्परा चलती रहती है। पहले के समय की कहावत प्रचलित है जिसमें कहा जाता है ‘जिस घर में तेरी डोली गई है वहाँ से तेरी अर्थी ही निकलेगी।‘ इस कहावत में समाज की निर्ममता प्रदर्शित होती है।
समाज की संरचना अत्यन्त कुटिल है जिसमें एक स्त्री, आधे से अधिक जीवन अपने घर से अलग बिताती है। अपने जन्मस्थल के लिए एक बार परायी हो जाने पर, उसे फिर जीवन भर पहले वाला अपनापन नहीं मिलता। इतनी निष्ठुरता होने पर भी वह उस घर की और घर वालों की याद में क्यों रोती है?
फिल्मों के निर्माता भी अपनी फिल्मों को लोकप्रिय बनाने के लिए, समाज में प्रचलित रुचियों, मान्यताओं, प्रथाओं और परम्पराओं के अनुरूप अपनी फिल्मों का निर्माण करते हैं। इसी सन्दर्भ में विवाह और विदा के गाने भी, पुराने समय से आज तक अनेक फिल्मों में प्रदर्शित किये गये हैं। स्त्री की अपने घर और घर वालों के प्रति इसी एकतरफा लगाव की मानसिकता इन गानों में झलकती है, जो चलन 1960 से लेकर 2018 तक भी निरनतर चला आ रहा है।
अमिता चतुर्वेदी एक स्वतंत्र लेखिका हैं और अपना परिचय नामक ब्लॉग पर लिखती हैं।