निबंधराजनीति, नीति और शासन

भाजपा की अंबेडकर-स्तुति में वर्ण व्यवस्था का विरोधाभास

2016 में बाबा साहब अंबेडकर की 125वीं वर्षगांठ बहुत ज़ोर-शोर से मनाई गई। इस उत्साह और उत्सव में कई राजनीतिक दलों ने भी भाग लिया। इन दलों में, केन्द्र में सत्तारुढ़, भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) भी शामिल थी। प्रधान मंत्री नरेन्द्र मोदी के साथ ही इस दल के कई नेताओं ने अंबेडकर के विचारों की और उनके समाज के लिए उठाए कदमों की दिल खोल कर प्रशंसा की और उन्हें श्रद्धांजलि भी दी।

भाजपा का अंबेडकर के विचारों से कोई बहुत पुराना रिश्ता नहीं रहा है। अपने उदय के समय से अब तक, भाजपा जिन नेताओं के समर्थन में मुखर रही है, उनमें सरदार वल्लभभाई पटेल, श्यामा प्रसाद मुखर्जी, दीनदयाल शर्मा आदि प्रमुख रहे हैं। ऐसे में अंबेडकर के नाम पर हाल ही में उभरे इस जोश को भाजपा की परंपरागत सोच से अलग ही देखा जा सकता है।
प्रश्न यह है कि क्या भाजपा अंबेडकर की राजनैतिक-सामाजिक सोच और आदर्शों में सच में विश्वास करने लगी है? इस प्रश्न का उत्तर यदि भाजपा से आएगा तो निश्चित ही हाँ होगा। पर असली दुनिया में इन दलों और उनके नेताओं के द्वारा उठाए गए कदम अलग ही साक्ष्य प्रस्तुत करते हैं।
आगरा में अंतराष्ट्रीय वैश्य सम्मेलन
आगरा में एक और दो जुलाई को अंतराष्ट्रीय वैश्य सम्मेलन का आयोजन यहाँ के सबसे बड़े और महंगे होटलों में से एक “जे पी पैलेस” में किया गया। शहर-भर में इसमें आने वाले अतिथियों और सदस्यगणों के स्वागत के होर्डिंग और बैनर लगाए गए।
एक प्रकार से यह वैश्य वर्ण के अन्तराष्ट्रीय डाइस्पोरा का एक बड़ा आयोजन था। अतिथियों का स्वागत करने वालों में एक राजनैतिक दल के लोग प्रमुखता से लक्षित हुए। यह दल था भाजपा। जैसा कि अनेक होर्डिंग में से एक को देखकर पता चलता है, इसमें शामिल हैं, आगरा क्षेत्र की एक विधानसभा सीट से विधायक- जगन प्रसाद गर्ग जो कि कार्यक्रम के संयोजक भी हैं और साथ ही नवीन जैन जो कि शहर के पूर्व डिप्टी मेयर रह चुके हैं और भाजपा के बृज क्षेत्र के कोषाध्यक्ष भी हैं। पर सबसे बड़ा नाम जो स्वागतकर्ताओं में शामिल है, वह है केन्द्रीय मानव संसाधन राज्यमंत्री- डॉ राम शंकर कठेरिया। कठेरिया हाल ही के समय में अपने विवादास्पद बयानों के कारण चर्चा में रहे हैं, जिनमें से शिक्षा और दूसरे क्षेत्रों में भगवाकरण और संघवाद को बढ़ावा देने को सही ठहराना एक है।
वर्ण व्यवस्था और अंबेडकर
एक तरफ जहाँ भाजपा ने इस वर्ष अंबेडकर के गुणगान करने और अपनी पार्टी को उनकी विचारधारा के साथ जुड़ा दिखाने में कोई कमी नहीं छोड़ी है, वहीं दूसरी तरफ वैश्य समाज (जो कि वर्ण व्यवस्था के वैश्य वर्ण का प्रतिनिधित्व करता है) के अंतराष्ट्रीय महासम्मेलन का आयोजन एक विरोधाभास नज़र आता है। इसे समझने के लिए वैसे तो कई तर्क दिये जा सकते हैं, पर यहाँ सबसे उपयुक्त होगा अंबेडकर के वर्ण व्यवस्था के बारे में विचारों को जानना।
अंबेडकर के जाति और वर्ण व्यवस्था के बारे में विचारों को जानने के लिए सबसे महत्वपूर्ण दस्तावेजों में से एक है, उनके द्वारा लिखित उनका भाषण, जो लिखा तो गया पर कभी कहा नहीं जा सका। इस भाषण का नाम है, “Annihilation of Caste”। इस कृति में भारतीय समाज में व्याप्त जातीय और वर्ण आधारित व्यवस्था के चलते भेदभाव की समस्या पर तीक्ष्ण और सुतर्क से भरपूर प्रहार किया गया है। अंबेडकर ने समान रूप से तत्कालीन समाजवादियों को भी आड़े हाथ लिया है और गांधी और आर्य समाजियों जैसे परंपरावादियों से भी सीधा-सीधा प्रश्न किया है।



आर्य समाजियों द्वारा मान्य चतुर्वर्ण व्यवस्था को लेकर इस लेख में एक अलग अनुभाग में अंबेडकर इस व्यवस्था को लेकर कुछ बुनियादी सवाल उठाते हैं। उनका कहना है कि वर्ण व्यवस्था को, इसके समर्थकों द्वारा, गुण पर आधारित होने के कारण एक आदर्श व्यवस्था माना जाता है। पर अंबेडकर का पूछना है कि यदि वर्ण गुण पर ही आधारित हैं तो इनको नाम देने की आवश्यकता क्यों है। वह पूछते हैं कि क्या ब्राह्मण नाम दिये बिना किसी विद्वान का सम्मान संभव नहीं है?
उनका तर्क है कि किसी को वर्ण आधारित नाम दिये जाने से हिन्दु समाज में उसके साथ एक निश्चित अवधारणा जोड़ दी जाती है और वर्णों से बुने, जन्म पर आधारित, उँच-नीच के जाल से वह बच नहीं पाता है। अंबेडकर यहाँ तक कहते हैं कि चतुर्वर्ण व्यवस्था के खिलाफ उनका पूरा अस्तित्व स्वत: ही विरोध में उठ खड़ा होता है।
यहाँ अंबेडकर चतुर्वर्ण को लागू करने के लिए मनुस्मृति में मौजूद दंडों की भी चर्चा करते हैं जिनमें शूद्रों द्वारा वेद-पाठ सुन लेने या कर लेने पर उनकी ज़बान काट देने या उनके कानों में पिघला हुआ सीसा डाल देने जैसे दंड शामिल हैं। साथ ही वह वर्ण समाज में स्त्रियों की स्थिति पर भी मूलभूत प्रश्न खड़े करते हैं। वह पूछते हैं कि क्या स्त्री की वर्ण में जगह उनकी वैवाहिक स्थिति से मिलनी चाहिये या फिर उनको स्वयं के आधार पर वर्ण व्यवस्था में स्थान मिल सकता है? और यदि वे स्वयं ही वर्ण व्यवस्था में स्थान पाती हैं तो क्या हिन्दु समाज स्त्रियों को पुरोहितों, सैनिकों आदि के रूप में स्वीकार कर सकता है? अंबेडकर को इसकी संभावना कम ही नज़र आती है।
अंबेडकर वर्ण व्यवस्था में शुद्रों को दिये गये निचले स्थान के चलते उनको होने वाली सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक असुरक्षाओं को लेकर चिंतित हैं। उनके अनुसार समाज में हर किसी को शिक्षा और स्वयं की सुरक्षा के लिए साधनों का अधिकार है और कोई भी ऐसी व्यवस्था जो केवल कुछ लोगों को इसका अधिकार दे, उनके लिए बिल्कुल निरर्थक है। अंबेडकर का कहना है कि वर्ण व्यवस्था के उद्गम के समय पर ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य हालांकि एक दूसरे से खुश नहीं थे, पर शूद्रों को दबाने के लिए उन्होंने सांठ-गांठ की।
उनके अनुसार, जहाँ अन्य देशों में सामाजिक क्रांतियाँ हुई हैं, भारत में ऐसा कुछ इसलिये नहीं हो सका क्योंकि चतुर्वर्ण के आधार पर निचले तबके के लोगों को व्यवस्था के खिलाफ बोलने के लिए पूरी तरह से अक्षम कर दिया गया। इस प्रकार अंबेडकर चतुर्वर्ण व्यवस्था को समाज के पतन का सबसे बड़ा उदाहरण करार देते हैं और समाज को बाँटने का सबसे बड़ा कारण मानते हैं।

भाजपा का वर्ण व्यवस्था को समर्थन 

यदि भाजपा एक दल के रूप में अंबेडकर के सिद्धांतों में सच में विश्वास रखती तो इसके नेता भी चतुर्वर्ण को कभी स्वीकार नहीं कर पाते। पर वैश्य महासम्मेलन का आगरा में आयोजन कर और इसका ज़ोर-शोर से प्रचार कर, भाजपा एक स्पष्ट संदेश दे रही है, कि उसे वैश्य वर्ण को संगठित और सुदृढ़ करने में खास दिलचस्पी है। इसमें उसके स्थानीय नेता ही नहीं बल्कि राष्ट्रीय स्तर के नेता भी शामिल हैं।
एक राष्ट्रीय दल, जिसकी सरकार इस समय केन्द्र और कई राज्यों में भी है, का किसी ऐसे वर्ण को समर्थन और सहयोग देना जो वर्ण व्यवस्था में विशेषाधिकारयुक्त हो समाज में जातिवाद की राजनीति के विरुद्ध चलने वाली लड़ाई को तो छिन्न-भिन्न करता ही है, पर साथ ही भाजपा के अंबेडकरवादी होने के दावे पर भी प्रश्न खड़े करता है।
भारत में जहाँ जातीय और वर्ण-आधारित भेदभाव को गैर-कानूनी करार दिया गया है, वहीं जाति-व्यवस्था या वर्ण-व्यवस्था को गैर-कानूनी नहीं घोषित किया गया है। आज भी विशेषाधिकारयुक्त वर्ण और जातियाँ जिन्हें वर्ण व्यवस्था में विशेष और ऊँचा स्थान प्राप्त है अपने वर्ण और जाति के नाम पर गर्व महसूस करते हैं और इस प्रकार की भावनाओं को खुलकर समाज में व्यक्त करते हैं। स्वयं को उच्च जातीय या उच्च वर्ण का कहना ही जातिवाद को जन्म देता है, क्योंकि इससे ना सिर्फ इस व्यवस्था को स्वीकारिता दी जाती है बल्कि सदियों से जाति व्यवस्था और वर्ण व्यवस्था के चलते उपेक्षित और तिरस्कृत लोगों को उनके निचले वर्ण या जाति का एहसास भी कराने का प्रयास किया जाता है।
यदि भाजपा सच में ही अंबेडकर के सपनों का भारत चाहती होती तो भारतीय समाज में वर्ण व्यवस्था और जातिवाद का विध्वंस करने के प्रयासों को बल देती पर यहाँ तो देखा जा सकता है कि यह दल खुलकर एक विशेष वर्ण को और संगठित और मजबूत करने के लिए प्रयासरत है। ऐसे में इस दल का अंबेडकर के सिद्धांतों पर चलने का दावा कितना सच है, इस पर संदेह करना लाज़मी है।
– सुमित  

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