कला, साहित्य और संस्कृतिसमीक्षा

रंगलोक सांस्कृति संस्थान द्वारा आयोजित 'नाट्य कोलाज' का आगाज़

हम बिहार से चुनाव लड़ रहे हैं

समय और युग के परिवर्तन के बावजूद प्रासंगिक रहने वाली साहित्यिक कृतियाँ एक तरफ अपने रचनाकारों की दूरदर्शिता का परिचय देती हैं तो दूसरी तरफ इस तरफ भी इशारा करती हैं कि समय के साथ सूरत-ए-हाल कितना कम बदला है। यह विडंबना व्यंग्यकारों के साथ और अधिक सच साबित होती है। ऐसे ही एक व्यंग्यकार जिनकी कृतियाँ समय के साथ भी प्रासंगिक बनी रहती हैं, इतनी कि आज के सोशल मीडिया युग में भी उनके पहले कभी लिखे व्यंग्य साझा किए जाते रहते हैं, वह हैं हरिशंकर परसाई।
 
ऐसी ही एक कृति जो परसाई द्वारा भारतीय चुनावी राजनीति पर एक तीक्ष्ण कटाक्ष और व्यंग्य प्रस्तुत करती है, हैहम बिहार से चुनाव लड़ रहे हैं इस गुरुवार को इस रचना का नाट्य मंचन, आगरा के सेंट पीटर्स कॉलेज के प्रेक्षागृह में रंगलोक सांस्कृतिक संस्थान द्वारा आयोजित दोदिवसीय नाट्य कोलाज के अंतर्गत किया गया। हैदराबाद विश्वविद्यालय के भारतीय नाटक के विभाग में कार्यरत और प्रमुख नाट्य अभिनेता, प्रो0 कन्हैयालाल कैथवास ने एक बेहद रोचक और कठिन विधाएकल नाट्य प्रस्तुति के माध्यम से इस सामाजिकराजनीतिक कृति की बारीकियों को लगभग एक घंटे चले इस नाटक में उभारा और दर्शकों का भरपूर मनोरंजन किया, जिसके साक्ष्य थे समयसमय पर प्रेक्षागृह में गूँजने वाले ठहाके।
 
इस नाटक के केन्द्र में है भारतीय राजनीति में चुनावों को मिलने वाला अत्यधिक महत्व जिसके चलते सिर्फ जातीय, सांप्रदायिक और आर्थिक समीकरणों का गणित बिठाया जाता रहता है और जनता के सरोकारों को बाकी समय की ही तरहदरकिनार किया जाता रहता है। ऐसी राजनीति में, जिस परहमेशा चुनाव हावी रहते हैं, उसमें यदि भगवानभी स्वयं चुनाव के रणक्षेत्र में उतरनाचाहें और जनता कीभलाई करना चाहें तो उन्हें भी किसहद तक निराशा का सामनाकरना पड़ सकता है, इसी कल्पना को परसाई ने इसकृति में दर्शाया है।
 
एकल प्रस्तुति की विधा नाट्य कला में संभवतः सबसे चुनौतीपूर्ण होती है। अकेले कई पात्रों को निभाना, उनकी भावभंगिमाओं को अलग-अलग पकड़े रहना और उनके बीच का संवाद संभालना, लगातार अपनी आवाज़ और शारीरिकता के माध्यम से पूरी प्रस्तुति को निभाना और इस सब के बीच भी एक व्यंग्यात्मक प्रस्तुति के दो प्रमुख पहलु- हास्य और सामाजिक टिप्पणी, का ध्यान रखना, ऐसी ही कुछ चुनौतियाँ थीं जिनसे कैथवास ना सिर्फ सफलतापूर्वक निबटे बल्कि पूरी प्रस्तुति के दौरान दर्शकों को बाँधे रखा।
 
नाटक की खास बात थी इसमें कई नाट्य-संस्कृतियों की विशेषताओं का समावेश होना। पूरे नाटक की संरचना उत्तर भारतीय नौटंकी पर आधारित थी जिसमें संवाद के साथ-साथ लोक संस्कृति से प्रेरित गीतों की भी प्रमुख भूमिका थी। मंच पर ही ढोलक द्वारा लाइव संगीत की व्यवस्था नाटक की लोक सांस्कृतिक संरचना को और भी प्रामाणिकता प्रदान करती रही। प्रस्तुति की एक और खास बात थी कैथवास का बीच-बीच में अपने किरदार से बाहर आकर और कभी किरदार में ही रहकर दर्शकों से मुखातिब हो जाना। इसे चाहे तो ब्रेख्टियन लघु-विराम भी समझा जा सकता है और चाहे तो नौटंकी शैली की सहज प्रस्तुति की एक विशेषता ही।
 
आज के समय में जहाँ अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर अनेक सामाजिक-राजनैतिक खतरे निरन्तर मँडराते रहते हैं, वहाँ इस तरह के राजनैतिक कटाक्ष से ओतप्रोत नाटक का मंचन इस कोलाज को सामाजिक-राजनैतिक रूप से आवश्यक और सार्थक बनाता है। हास्य के माध्यम से लोगों को अपने वर्तमान समय की राजनीति के सत्य से रूबरू कराना ही व्यंग्यात्मक रचना का उद्देश्य होता है। पर ऐसी रचना जब पन्नों की काली स्याही से निकलकर एक बहुआयामी और बहुरंगीय रूप में प्रस्तुत हो जाती है तो इसकी पहुँच कई गुना बढ़ जाती है। और जब हाल ही में चुनावों की खुमारी पूरे न्यूज़ मीडिया के सर पर चढ़ कर बोली हो और सट्टे के बाज़ारों को गर्म किया हो, तब चुनावी राजनीति को उजागर करने वाली ऎसी प्रस्तुति एक धुँध को छाँटने का काम करती है। दिसम्बर की सर्दी में और क्या चाहिए?
-सुमित
नाट्य कोलाज में दूसरी प्रस्तुति, मोहन राकेश द्वारा कृत और जयंत देशमुख द्वारा निर्देशित ‘आधे-अधूरे’, का मंचन 22 दिसम्बर को सूरसदन प्रेक्षागृह में होगा।    

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