भीड़ की चुप्पी की संस्कृति को रेखांकित करते नाटक ‘बकरी’ का रंगलोक द्वारा मंचन
भीड़ का भी अपना एक समाजशास्त्र होता है। सामाजिक मनोविश्लेषण में भीड़ की मानसिकता का अकसर उल्लेख किया जाता है। आमतौर पर इसका संदर्भ भीड़ की हिंसात्मक प्रवृति होता है जिसके अनुसार भीड़ एक जैसे विवेक अथवा अविवेक के कारण उग्र हो जाती है। आज के समय में विशेषकर भीड़ मानसिकता एक अति चिंताजनक विषय बन गई है जिसके परिणामस्वरूप समाज के लोग अपने ही बीच के लोगों पर प्रहार कर रहे हैं जो कई बार जीवनघाती साबित होता है।
पर भीड़ की एक और मानसिकता है जो उतनी ही खतरनाक हो सकती है जितनी की हिंसात्मक प्रवृति और वह है चुप रहने की मानसिकता। कभी किसी प्रलोभन के चलते तो कभी डर के कारण और कभी किसी रीतिगत विश्वास की वजह से भीड़ कई बार अन्याय के सामने चुप रहने की दोषी पाई जाती है। जहाँ जनता के चुप रहने के कारण अधिकांशत: किसी एक व्यक्ति के साथ हो रहे अन्याय पर कोई अंकुश नहीं लग पाता है, वहीं आगे चलकर चुप रहने वाले लोगों पर भी इसका दुष्प्रभाव पड़ता है। इसी पृष्ठभूमि पर आधारित, सर्वेश्वर दयाल सक्सेना द्वारा लिखित नाटक ‘बकरी’ का मंचन इस शुक्रवार को रंगलोक सांस्कृतिक संस्थान द्वारा सूरसदन प्रेक्षागृह में किया गया।
यह मंचन लगभग एक महीने चली कार्यशाला के समापन के रूप में हुआ जिसमें आगरा शहर के उभरते नाट्यकर्मियों का मार्गदर्शन प्रख्यात रंगकर्मी सलीम आरिफ ने किया। इस कार्यशाला की खास बात यह थी कि ना सिर्फ इसमें नए कलाकारों की अभिनय क्षमता को उभारने का प्रयास किया गया बल्कि साथ ही प्रतिभागियों के नाटक के निर्देशन और निर्माण के विभिन्न पहलुओं को विकसित करने पर भी ध्यान दिया गया। इसके चलते इस नाटक के निर्देशन की बागडोर संभाली आगरा की ही गरिमा मिश्रा ने जो कि फिलहाल हैदराबाद केन्द्रीय विश्वविद्यालय में नाट्यकला में अध्ययन कर रही हैं। इससे पहले भी गरिमा ने रंगलोक के कुछ अन्य नाटकों का निर्देशन किया है पर इतनी बड़ी संख्या में कलाकारों के साथ एक एन्सम्बल कास्ट का नाटक संभवत: उन्होंने पहली बार निर्देशित किया था।
नाटक की खास विशेषताओं में से एक था ब्रज क्षेत्र में इसका आधार जिसे भाषा और वेशभूषा के माध्यम से मंच पर प्रस्तुत किया गया। लाइव संगीत पर स्वयं गरिमा मिश्रा मौजूद थीं जिनके साथ डिम्पी मिश्रा भी थे। अधिकांश नए कलाकारों के बीच कुछ मंझे हुए कलाकारों की प्रतिभा साफ दिखाई दी जिसमें मुदित शर्मा, दयालवती, दीपांशु मिश्रा और आकाश वशिष्ठ की भूमिका प्रमुख रूप से उल्लेखनीय हैं। साथ ही बकरी की भूमिका में नव्या अग्निहोत्री ने बिना संवादों के एक खास प्रकार का हास्य उत्पन्न किया जिसने पूरे नाटक में एक कॉमिक रिलीफ का काम किया।
नाटक की बात करें तो कहानी एक ऐसे गाँव की है जिसमें अपना हित साधने के लिए कुछ छुटपईये नेता एक बकरी को गाँधी की बकरी बताकर उसे देवी का दर्जा दे देते हैं। ये नेता उस बकरी को पूजने के लिए गाँववालों को धर्म और विश्वास का हवाला देकर विवश तो करते ही हैं पर साथ ही उस बकरी को देवी का दर्जा देकर उसके नाम पर धर्म-कर्म के आडम्बर के नाम पर उनसे चुनाव में अपने लिए वोट भी डलवाते हैं। ऐसे में जो लोग इस गोरखधंदे का विरोध करने का प्रयास करते हैं, उन्हें ना सिर्फ राष्ट्रद्रोही करार कर दिया जाता है बल्कि उनको कारावास में भी बंद कर दिया जाता है। ऐसे में भीड़ की चुप्पी कैसे इस अन्याय को होने देती है यह बात तब स्पष्ट होती है जब अंतत: गाँववाले अपनी बदहाली से तंग आकर सचेत होते हैं और अन्याय के खिलाफ आवाज़ उठाने की ठानते हैं।
एक बकरी को देवी बनाकर पूजना किसी फार्स यानि अतिश्योक्तिपूर्ण कॉमेडी का विषय लग सकता है पर मौजूदा हालात में जो राजनीतिकि घटनाएँ घट रही हैं उसमें क्या फार्स है और क्या असल यह कहना कठिन होता जा रहा है। इस नाटक में सर्वेश्वर दयाल सक्सेना की लेखनी ने ना सिर्फ राजनीतिक-सामाजिक संबंधों के गणित को हास्य-व्यंग्य के माध्यम से रेखांकित किया था बल्कि आने वाले समय में क्या-क्या घटने की संभावना थी संभवत: इसे भी भांप लिया था। भीड़ के सत्ताधारियों के सामने हामी भरने की इस संस्कृति के लिए बकरी से अधिक सटीक प्रतीक कुछ और हो भी नहीं सकता था शायद। भीड़ की मानसिकता के चलते आज ही नहीं बल्कि बहुत समय से घट रही अन्यायपूर्ण घटनाएँ और इस नाटक के मर्म में एक बात आम है और वह है भीड़ की चुप्पी।
भीड़ की चुप्पी की इस मानसिकता और संस्कृति में बदलाव के लिए इस तरह के नाटक और इनका मंचन, दोनों ही आवश्यक हैं।