नारी प्रधान राजनैतिक दलों का (धीमा) उदय।
राजनीति: इंडिया स्पेंड के लिए लिखे गए अंग्रेजी के लेख का हिन्दी अनुवाद जो 2001 से अब तक महिला प्रधान दलों के उदय पर एक नज़र डालता है।
वर्ष 2001 से अब तक कम से कम चौदह ऐसे राजनैतिक दलों का उदय हुआ है जिनका एजेंडा नारी प्रधान राजनीति पर आधारित है। राजनैतिक दलों की अप्रैल 2001 से जनवरी 2015 तक की आधिकारिक सूची की पड़ताल से यह जानकारी सामने आई है।
वर्ष 2001 से अब तक कम से कम चौदह ऐसे राजनैतिक दलों का उदय हुआ है जिनका एजेंडा नारी प्रधान राजनीति पर आधारित है। राजनैतिक दलों की अप्रैल 2001 से जनवरी 2015 तक की आधिकारिक सूची की पड़ताल से यह जानकारी सामने आई है।
लोक सभा और राज्य विधान सभा के चुनावी नतीजों के आंकड़ों के अनुसार इनमें से पाँच दलों ने लोक सभा या विधान सभाओं के चुनावों में हिस्सा लिया है।
बहुत कम सफलता मिलने के बावजूद (सभी चुनावों में100% ज़मानत ज़ब्त होने की सूरत में) न सिर्फ इनमें से ज़्यादातर दल अभी भी टिके हुए हैं, बल्कि इस तरह के दलों की संख्या में साल दर साल लगातार बढ़ौतरी हो रही है।
जैसा कि ग्राफ से पता चलता है, ऐसे दलों की संख्या 2001 में दो से 2015 में 14 तक पहुँच गई। उत्तर प्रदेश (एक ऐसा राज्य जहाँ नारी विकास और सशक्तीकरण का स्तर बाकी राज्यों से कम है) की राजधानी लखनऊ ऐसे दलों के पंजीकरण का केन्द्र मालूम पड़ता है। सबसे अधिक जनसंख्या वाले इस राज्य में कुल नौ दल पंजीकृत पाए गए।
इन दलों पर मीडिया और अन्य स्त्रोतों में बहुत कम जानकारी उपलब्ध होने की सूरत में यह कहना कठिन है कि ये दल स्त्री अधिकारों पर क्या राय अख्तियार करते हैं। इन दलों के नामों पर गौर करने से पता चलता है कि ये दल विभिन्न एजेंडों को लेकर शुरु किए गए हैं। जहाँ कुछ दल स्त्री सशक्तिकरण, स्त्री स्वाभिमान और महिला अधिकारों के पक्षधर होने का दावा करते हैं, वहीं कुछ दल ऐसे भी हैं जो महिला लोकतांत्रिक मोर्चा या संगठन बनाने के इच्छुक हैं। हालांकि अधिकाँश दलों का मुख्य ध्येय महिलाओं को एक मोर्चे के अंतर्गत संगठित करना ही है।
ऑल इंडिया महिला दल (अखिल भारतीय महिला दल), जो कि चार जनवरी, 1998 को पंजीकृत किया गया था, इस लेख के विश्लेषण की समय सीमा से बाहर पड़ता है। लेकिन इस दल और युनाइटिड विमेन फ़्रट (संयुक्त नारी मोर्चा) के एजेंडे पर अगर नज़र डालें तो पता चलता है कि दोनों का ही उद्देश्य राष्ट्रीय स्तर का महिला दल बन कर उभरना था पर साथ ही दोनों ही दल महिलाओं के मुद्दों को राष्ट्रीय स्तर पर बेहतर प्रस्तुत करने के उद्देश्य में पुरुषों को साथ लेकर चलने के पक्षधर थे।
दोनों के ही मुख्य उद्देश्यों को देखने से पता चलता है कि समाज में आधी आबादी के अनुरूप, राजनैतिक संस्थाओं में भी महिलाओं की बराबरी की हिस्सेदारी को सुनिश्चित करना इन दलों का राजनैतिक आधार है।
कुल मिलाकर ये दल छ: राज्यों में वितरित हैं– पश्चिम बंगाल, दिल्ली, उत्तर प्रदेश, आँध्र प्रदेश, कर्नाटक एवं महाराष्ट्र। ये दल राजधानियों में दिल्ली, हैदराबाद, कोलकाता, बैंगलौर, मुंबई एवं लखनऊ से तथा अन्य शहरों में उन्नाव, धारवाड़ और चित्तौर से पंजीकृत हैं।
असोसिएशन फ़ॉर डेमोक्रैटिक रिफ़ॉर्म्स (लोकतांत्रिक सुधारों के लिए संगठन) के जगदीप एस छोकर के अनुसार क्योंकि पंजीकृत दलों को आयकर नियम के 13 ए अनुभाग के तहत 100% कर छूट प्राप्त है, इसलिए कई दल कर से बचने के लिए ही पंजीकृत किए जाते हैं और कुल दलों में से 75% से 80% कभी चुनाव लड़ते ही नहीं हैं। “कर छूट राजनैतिक दल बनाने के पीछे एक बड़ा कारण होता है”- जगदीप एस छोकर।
चुनाव लड़ने वाले दलों की जद्दोजहद
इन दलों में से एक दल ने 2004 में, तीन ने 2009 में और एक ने 2014 में लोक सभा के चुनाव लड़े हैं। एक दल ने 2008 में दिल्ली विधान सभा का चुनाव भी लड़ा था।
ऊपर दी गई तालिका में से कुछ खास बातें:
इनमें से कोई भी दल 1% वोट पाने में भी असमर्थ रहा है। सभी की ज़मानतें ज़ब्त हुई हैं।
एक दल को छोड़कर बाकी सभी दल किसी भी सीट पर आधे उम्मीदवारों से भी बेहतर प्रदर्शन नहीं कर सके हैं।सभी सीटों में महिला प्रत्याशियों की संख्या औसतन 12.5% है। क्योंकि इन सभी दलों की प्रत्याशी महिलाएँ हैं, इसलिए इनकी उम्मीदवारी से महिला प्रत्याशियों के एक बेहद कम औसत में वृद्धि हो सकी है।
सभी दलों ने अपने अपने चुनावों में एक ही उम्मीदवार मैदान में उतारा है। जहाँ सभी दलों ने अपना उम्मीदवार उस शहर की सीट पर उतारा है जहाँ से उनका पंजीकरण हुआ है, वहीं महिला अधिकार पार्टी जो कि दिल्ली से पंजीकृत है, ने अपनी प्रत्याशी अमेठी से उतारा जो कि परंपरागत रूप से काँग्रेस का गढ़ रहा है।
यू डब्ल्यू एफ़ जिसने मूलत: 2008 दिल्ली विधान सभा चुनाव में सभी 70 सीटों से प्रत्याशी उतारने का मन बनाया था, अंतत: सिर्फ एक ही प्रत्याशी को खड़ा कर सकी। यह एक मात्र ही दल बन पाया जिसने एक के अलावा और भी चुनावों में हिस्सा लिया। 2014 में बनी महिला स्वाभिमान पार्टी ने क्योंकि इसी साल में लोक सभा चुनाव लड़ा था इसलिए भविष्य में इसके चुनाव में भाग लेने की स्थिति आगे ही साफ हो सकेगी।
यू डब्ल्यू एफ़ की एकाकी लड़ाई
यू डब्ल्यू एफ़ के2009 के लोक सभा चुनाव में छ: उम्मीदवार उतारने की सूरत में, इस दल का और विस्तृत विश्लेषण किया जा सकता है।
जैसा कि कई मीडिया स्त्रोतों (जैसे द हिन्दु, वी न्यूज़ एवं द क्रिश्चियन साइंस मॉनीटर) की कवरेज से पता चलता है 2007 में शुरू किए गए इस दल को शुरुआत से ही काफी लोकप्रियता मिली। इस दल की पहली अध्यक्ष सुमन कृष्ण कांत पूर्व उपराष्ट्रपति कृष्ण कांत की पत्नी हैं।
इस पार्टी का एजेंडा है पार्लियामेंट में महिला भागीदारी को बढ़ाना। सुमन कांत कहती हैं, “हम महिला आरक्षण विधेयक के आने की प्रतीक्षा करते थक चुके हैं।” उनके अनुसार, यह भागीदारी में कमी ही महिलाओं को समाज में पेश आने वाली दिक्कतों की एक प्रमुख वजह है।
वह आगे कहती हैं, “महिलाओं को आज तक उस तरह का प्रशासन नही मिला है जो उन्हें मिलना चाहिए। यह इसलिए है क्योंकि निर्णय लेने वाले संस्थानों और प्रक्रियाओं में महिलाओं की भारी कमी है। मात्र कुछ महिलाओं के चुने जाने अकेले से यह स्थिति नहीं बदलेगी।”
नीचे दी गई तालिका में इस दल का 2009 के चुनावों में प्रदर्शन वर्णित है।
2009 के चुनाव इस दल के दूसरे आम चुनाव थे और इसमें इसका प्रदर्शन पहले से काफी बेहतर था।
2008 के दिल्ली आम चुनावों में इकलौता उम्मीदवार उतारने के बाद, 2009 में अपनी राष्ट्रीय उपस्थिति दर्ज करने हेतु इस दल ने चार राज्यों में, पाँच शहरों में छ: उम्मीदवार उतारे। इस साल में दल के सोलह भिन्न शहरों में संगठनों की मौजूदगी बताई जाती है जिसका नेतृत्व विभिन्न अनुभवशाली कार्यकर्ता कर रही थीं।
उदाहरण के तौर पर 2008 में उड़ीसा प्रदेश के संगठन का नेतृत्व शांति दास (युनियन कार्यकर्ता) के आधीन था। बाद में सुमन कांत के स्वास्थ्य कारण हेतु पद से हटने के बाद, 2011 में शांति दास दल की राष्ट्रीय अध्यक्ष भी बन गईं।
2009 के चुनावों में दल की हिस्सेदारी इसलिए भी ध्यान देने योग्य है क्योंकि इसमें पार्टी ने दो पुरुष उम्मीदवार भी उतारे थे। कांत का कहना है “हम पुरुषों के खिलाफ नहीं हैं। हमें चाहिए कि पुरुष हमारे उद्देश्य में हमारे साथ काम करें और हमें अपना सहयोग दें।” हालांकि यह पूर्वनिर्धारित था कि पुरुष राष्ट्रीय कार्यकारिणी के सदस्य नहीं बनाए जाएंगे और सिर्फ राज्य स्तरीय सदस्य ही बन सकेंगे। साथ ही सिर्फ एक महिला ही दल की अगुवाई कर सकेगी।
भले ही इस दल को इस चुनाव में निराशा हाथ लगी हो, पर ऐसा प्रतीत होता है कि मतदाताओं ने इस दल को सिरे से नहीं नकारा है। उम्मीदवारों की फेहरिस्त में औसतन कम से कम आधों को पछाड़ पाना एक नए दल के लिए कोई छोटी बात नही है।
दिल्ली और आंध्र प्रदेश में इस दल ने दो दो उम्मीदवार खड़े किए जबकि बाकि दो बिहार और हरयाणा से जहाँ इसे पहले दो राज्यों से ज़्यादा मत हासिल हुए (0.78% एवं 0.36%)। यहां तक कि वैशाली (बिहार) और सोनीपत (हरयाणा) में तो इस दल की उम्मीदवार चुनाव लड़ने वाली अकेली महिला उम्मीदवार रहीं।
इस दल ने आगामी दिल्ली विधान सभा या लोक सभा चुनाव नही लड़े। हालांकि गल्फ़ न्यूज़ को दिए 2010 में एक साक्षात्कार में कांत ने 2009 के नतीजों पर अपनी प्रतिक्रिया कुछ इस प्रकार दी, “यह हमारा पहला चुनाव था और हमने आशा नही छोड़ी है। हमें सत्ता में आने में समय लगेगा पर हमें खुशी है कि कम से कम लोग हमारे मोर्चे को पहचानने तो लगे हैं।” वह आगे बताती हैं “हमने अपने दल की शाखाएं दिल्ली, हरयाणा, उड़ीसा, झारखंड, छत्तीसगढ़, पंजाब और पूर्वी राज्यों समेत पूरे देश में स्थापित कर ली हैं।”
महिलाओं के लिए हर चुनावी कामयाबी के मायने
महिलाओं के लिए भारत का चुनावी परिदृश्य बेहद निराशाजनक है। 543 लोक सभा सीटों पर सिर्फ 668 महिला प्रत्याशियों ने चुनाव लड़ा जो कि कुल प्रत्याशियों का मात्र 8.1% ही है।
इनमें से सिर्फ 62 उम्मीदवारों ने ही जीत दर्ज की, यानि कुल महिला उम्मीदवारों में से सिर्फ 9.3% महिलाओं को ही सफलता हासिल हुई। 525 महिलाओं की ज़मानत तक ज़ब्त हो गई।
2014 के चुनावों में मात्र 11.4% महिलाएँ लोकसभा में चुनी जा सकीं जो कि महिला प्रतिनिधियों के अंतराष्ट्रीय औसत 22% से काफी कम है और जैसा कि संयुक्त राष्ट्र के आंकड़ों से पता चलता है, दुनिया के 145 देशों की फेहरिस्त में भारत को 111वीं पायदान पर खड़ा करता है।
महिलाओं के लिए राजनैतिक दलों का नज़रिया सभी दलों के मद्देनज़र फीका ही दिखाई देता है। भारतीय जनता पार्टी जिसने 543 में से 282 सीटें जीतीं, ने 428 उम्मीदवारों में से सिर्फ 38 ही महिलाओं को चुनाव में उतारा यानि सिर्फ 8.9%।
काँग्रेस ने 464 उम्मीदवारों में से 60 महिलाओं को मौका दिया यानि 12.9%।
भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (भाकपा) और मार्क्सिस्ट कम्युनिस्ट पार्टी (माकपा) का महिला उम्मीदवारों का प्रतिशत रहा 8.9% और 11.8%। वहीं बहुजन समाज पार्टी (बसपा) ने 5.4% और राष्ट्रवादी काँग्रेस पार्टी ने 11.1% महिलाओं को ही उम्मीदवारी का मौका दिया।
कुल मिलाकर राष्ट्रीय स्तर के दलों ने मात्र 21.9% महिलाओं को चुनाव में उतारा जबकि इनमें से अधिकाँश दलों ने 2009 में महिला आरक्षण विधेयक, जो कि सभी प्रतिनिधि सभाओं में महिलाओं के लिए 33% आरक्षण की माँग करता है, का राज्य सभा में मुखर होकर समर्थन किया था।
जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय की पूर्व प्रोफेसर ज़ोया हसन ने कहा है कि राजनैतिक दलों ने लोकतांत्रिक प्रक्रिया में पिछड़े और ऐतिहासिक रूप से उपेक्षित वर्गों को राजनैतिक प्रणाली में लाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। पर महिलाओं के मद्देनज़र यह सच होता दिखाई नही देता है। ऐमहर्स्ट कॉलेज की प्रोफेसर अमृता बसु का कहना है कि राजनैतिक दलों का महिलाओं को संगठित करने में कोई खास योगदान नही रहा है। ज़्यादातर दलों में पुरुषों का दबदबा है और वे महिलाओं और उनकी माँगों की अनदेखी करते रहे हैं। महिलाओं ने श्रेष्ठ राजनैतिक पदों पर और ज़मीनी स्तर पर बेहद ज़रूरी और महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है पर फिर भी राजनैतिक दलों में उनकी भागीदारी कम रखी गई है।
93.6% महिला उम्मीदवार 2014 के चुनाव में अपनी ज़मानत नहीं बचा पाईं इस बात की पुष्टि करता है कि ना ही राजनैतिक दल और ना ही आम जनता महिलाओं को अपना प्रतिनिधित्व करने देने के इच्छुक हैं। फिर भी इन कुछ दलों का उदय एक उत्साहजनक बात है।
पर समान भागीदारी, महिलाओं के अधिकारों और माँगों की बेहतर नुमाइनदगी के लिए लाभदायक हो ऐसा नही है। जैसा कि वारविक युनिवर्सिटी की प्रोफेसर शिरिन एम राय का कहना है “जिन महिलाओं ने राजनैतिक दलों में मुख्य भूमिका निभाई है उन्होंने भी महिलाओं की माँगों और लैंगिक समानता के मुद्दों को बहुत कम ही राजनैतिक पटल पर उठाया है।”
-सुमित चतुर्वेदी
(यह लेख मूलत: अंग्रेज़ी में इंडिया स्पेंड के लिए लिखा गया था।)