उच्च जातीय पत्रिकाएँ: जातिगत राजनीति की उपकरण।
प्रस्तावना: जहाँ जातिगत राजनीति निम्न जाति वर्ग के लिए उपेक्षा और अन्याय के विरुद्ध लड़ने का माध्यम बनती है, वहीं अपनी जातीय पहचान को बनाए रखकर इसी जातिगत राजनीति का विरोधाभासी विरोध उच्च जातीय राजनीति की विशेषता है। इसी विरोधाभास का स्पष्ट उदाहरण उच्च जातीय संगठनों द्वारा प्रकाशित पत्रिकाओं के विश्लेषण से मिलता है। इस लेख में उत्तर प्रदेश के विभिन्न जातीय संगठनों द्वारा वर्ष 2001 से 2010 के बीच प्रकाशित पत्रिकाओं का विश्लेषण किया गया है और उच्च जातीय राजनीति के आधुनिक संचार माध्यमों के उपयोग पर प्रकाश डाला गया है।
लोकतांत्रिक चुनावी प्रणाली में अपने अपने जाति समुदायों को संगठित करने का लाभ तो सभी जातियों को मिलता है, पर सामाजिक परिवर्तन के बीच अपने जातीय गौरव के पुनरुत्थान का प्रयोजन उच्च जातीय उपसंस्कृति की खास विशेषता है। आधुनिक लोकतंत्र में जातीय समूह भी खुद को संगठनात्मक स्वरूप में ढाल लेते हैं। इन संगठनों का सदस्यीकरण, विभागीयकरण और आधुनिकीकरण तो किया ही जाता है, पर साथ ही जातिगत पहचान को जाति सदस्यों के बीच साझा करने के लिए पारंपरिक संचार के माध्यमों के बजाय आधुनिक प्रिंट एवं इलैक्ट्रॉनिक माध्यमों का उपयोग भी किया जाता है। इन आधुनिक माध्यमों में जातिगत पत्रिकाओं और प्रकाशनों का विशेष स्थान है।
इस लेख में उत्तर प्रदेश (उ.प्र.) में वर्ष 2001 से 2010 के बीच में जाति संगठनों द्वारा पंजीकृत की गईं पत्रिकाओं के विश्लेषण द्वारा उच्च जातीय संगठनों की राजनैतिक, सामाजिक एवं उपसांस्कृतिक भुमिका का जायज़ा लिया गया है। इस विश्लेषण से यह समझने की चेष्टा की गई है कि इस भूमिका का समाज में जाति निरपेक्षता के सवाल पर क्या असर पड़ता है।
इस विश्लेषण के लिए जानकारी इकट्ठा करने के लिए प्रेस रजिस्ट्रार को सूचना के अधिकार के तहत आवेदन भेजा गया। इसमें जाति संस्थाओं द्वारा पंजीकृत की गईं पत्रिकाओं एवं अन्य प्रकाशित सामग्री का ब्यौरा मांगा गया। प्रेस रजिस्ट्रार के औपचारिक जवाब में जाति के आधार पर पत्रिकाओं के वर्गीकरण न होने की सूचना दी गई। औपचारिक सूचना के अभाव में प्रेस रजिस्ट्रार की वेबसाइट से यह जानकारी ली गई और उसे सूचीबद्ध किया गया।[i]
2001 से लेकर अगले दस वर्षों तक उ.प्र. में कुल 44 ऐसी पत्रिकाओं एवं अन्य प्रकाशित सामग्री का पंजीकरण किया गया, जो या तो उच्च जाति संगठनों द्वारा शुरू की गई थीं या फ़िर जिन्हें वैयक्तिक तौर पर इन संस्थाओं के लिए शुरू किया गया। इनमें से बारह पत्रिकाएँ ऐसी थीं जिनको किसी वर्ण के नाम से शुरू किया गया था जैसे कि ब्राह्मण, वैश्य आदि, जबकि बाकी पत्रिकाएँ किसी उच्च जाति या उप–जाति के नाम पर पंजीकृत थीं। इन पत्रिकाओं को कुल बाईस शहरों से प्रकाशित किया जाता था। चित्र (1) में दिए ग्राफ़ में राज्य के विभिन्न नगरों के अनुसार पंजीकृत पत्रिकाओं का विवरण दिया गया है।
चित्र (1): उत्तर प्रदेश में नगर अनुसार पंजीकृत की गई उच्च जातीय पत्रिकाएँ।
स्त्रोत: प्रेस रजिस्ट्रार वेबसाइट।
जैसे की देखा जा सकता है, उत्तर प्रदेश के कुल बाईस शहरों से प्रकाशित होने वाली इन उच्च जातीय पत्रिकाओं में सबसे बड़ा हिस्सा लखनऊ शहर का है जहाँ से कुल ग्यारह ऐसी पत्रिकाएँ पंजीकृत की गई हैं। उसके बाद आगरा से पाँच, गाज़ियाबाद से चार, अलहाबाद से तीन, बिजनौर, मेरठ एवं ललितपुर से दो और अन्य सभी शहरों से एक एक पत्रिका का विभिन्न उच्च जातीय संगठनों द्वारा पंजीकरण किया गया है।
लखनऊ से सर्वाधिक पत्रिकाओं का प्रकाशन, प्रदेश की राजधानी के यहाँ के राजनैतिक केन्द्र होने की ओर इंगित करता है। सभी शहरों से कहीं अधिक जातीय पत्रिकाएँ यहां से पंजीकृत पाई गईं। इससे यह तथ्य उजागर होता है कि यहाँ के जाति संगठन बाकि शहरों की तुलना में अधिक क्रियाशील हैं। जैसा कि चित्र (2) में उल्लेख है, यह सक्रियता विशेषकर 2006 के अंत से बढ़कर, 2007 के चुनावी साल में चरम सीमा पर पहुँच गई।
चित्र (2):लखनऊ से पंजीकृत की गईं पत्रिकाएँ (2001-2010)
स्त्रोत: प्रेस रजिस्ट्रार वेबसाइट।
यदि पूरे राज्य के आंकड़ों की भी समीक्षा करें तो, 2002 और 2007 में इस तरह की पत्रिकाओं के पंजीकरण और फ़लस्वरूप जाति संगठनों की सक्रियता में तीव्र बढ़ौतरी देखी गई है। चित्र (3) में इसका उल्लेख है।
चित्र (3): राज्य में पंजीकृत पत्रिकाओं का वर्षानुसार विवरण (2001-2010)।
स्त्रोत: प्रेस रजिस्ट्रार वेबसाइट।
जैसा कि देखा जा सकता है जहाँ लखनऊ में इन पत्रिकाओं के पंजीकरण में 2007 के चुनावी वर्ष में तेज़ी देखी गई, वहीं पूरे राज्य के आंकड़ों में यह तेज़ी2002 और 2007 में समान रूप से देखी गई। लखनऊ की राजनैतिक संस्कृति के इतिहास के अलावा जिस एक कारण का प्रभाव जातीय संगठनों की सक्रियता पर पड़ता है, वह है चुनावों का माहौल। चुनावी वर्षों में यह संगठन अपने सदस्यों में जातीय संबोधन का संचार करने के लिए अधिक उत्साहित रहते हैं।
जातीय संगठनों की सक्रियता राज्य के बड़े शहरों में अधिक देखी गई। लखनऊ, गाज़ियाबाद एवं आगरा, तीनों ही शहरों में शहरी आबादी राज्य में लगभग बाकी सभी शहरों से अधिक है। इसके अलावा राज्य की अर्थ व्यवस्था में इन शहरों का महत्वपूर्ण योगदान भी है। समाजशास्त्रियों के अनुसार किसी भी उपसंस्कृति का बड़े शहरों में विकसित होना स्वाभाविक है। कई समुदायों और संस्कृति के लोगों का एक साथ रहना और आर्थिक, राजनैतिक एवं शैक्षणिक अवसरों के लिए आपस में स्पर्धा करना, उन्हें अपनी अलग अलग उपसंस्कृति विकसित करने के लिए पर्याप्त कारण प्रदान करते हैं। और क्योंकि जातीय पहचान उत्तर प्रदेश में काफ़ी महत्व रखती हैं इसलिए जाति संगठन इसी उपसंस्कृति का वास्तविक रूप ले लेते हैं।
2002 और 2007 के चुनावों पर नज़र डालें तो पाएंगे कि, ये दोनों ही चुनाव राज्य की राजनीति और जातीय समीकरणों में बहुत महत्वपूर्ण परिवर्तनों की ओर इंगित करते हैं।2002 तक उत्तर प्रदेश में भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) की घटग सरकार थी, पर इन चुनाव में भाजपा को हार का मुँह देखना पड़ा। राज्य में अब बहुजन समाज पार्टी (बसपा) और समाजवादी पार्टी (सपा) दो सबसे बड़े दल बनकर उभरे थे। इस परिवर्तन में उच्च जाति समूहों ने महत्वपूर्ण भुमिका निभाई थी। जैसा कि माना जाता है भाजपा को पारंपरिक रूप से उच्च जाति के लोगों का समर्थन मिलता है। इस चुनाव में 1999 के लोक सभा चुनाव की तुलना में भाजपा का उच्च जातीय मत 0.3% की दर से कम हुआ। हालांकि यह बहुत बड़ा गिराव नही है, परंतु कुल मतदान पर नज़र डालें तो बसपा ने उच्च जाति वर्ग में2.2% की और सपा ने सात प्रतिशत की मत बढ़ौतरी दर्ज की।
अगले चुनाव तक, यानि 2007 में यह बढ़ौतरी और तीव्र हुई और बसपा ने इस बार निम्न एवं उच्च जाति मत में सपा को भी बहुत पीछे छोड़ दिया। यानि2001 से 2010 तक के दशक में उच्च जाति वर्ग ने राज्य में अपना भरोसा पूरी तरह से भाजपा से हटाकर अन्य दल, खास कर बसपा, पर स्थान्तरित कर दिया। परंतु यह भरोसा किसी जाति निरपेक्षता की भावना से प्रेरित नही था। बसपा ने 2002 से ही अपने दल का राजनैतिक एजेंडा केवल ‘बहुजन’ से हटाकर ‘सर्वजन’ की तरफ़ मोड़ दिया था। सपा को भले ही 2002 में उच्च जाति मत का फ़ायदा पहुँचा हो, पर 2007 तक आते आते उच्च जाति वर्ग का विश्वास बसपा ने, सर्वजन एजेंडे के अनुसार, उम्मीदवारों के चयन और अपना मैनीफ़ेस्टो तैयार कर जीत लिया था। यानि अब उच्च जाति वर्ग अपने जातीय विकास को बसपा के साथ जोड़कर देखने लगा था।
यह चुनावी समीक्षा इस बात की ओर इशारा करती है कि उच्च जाति वर्ग की बदलती राजनैतिक वफ़ादारी और चुनावी वर्षों में जाति संगठनों की सक्रियता में समन्वय था और जाति संगठन इस प्रकार अपनी जातिगत चुनावी रणनीति को, अपनी जातीय पहचान को पुख्ता कर, क्रियान्वित कर रहे थे।
चुनावी नतीजों और जाति संगठनों की इस तुलना को प्रमाणित करने के लिए जातीय पत्रिकाओं की विषय वस्तु और सामग्री पर गौर करना आवश्यक है। इस शोध में शामिल सभी पत्रिकाओं का विश्लेषण करना उनकी साक्षात अनुपलब्धता के कारण संभव नही था परन्तु कुल 44 प्रकाशनों में से आठ ऐसी पत्रिकाएँ भी हैं जिनकी इंटरनेट पर उपस्थिति है। यह पत्रिकाएँ ब्लॉग, वेबसाइट एवं सोशल मीडिया पर समूहों के रूप में जाति संगठनों के मुखपत्र की तरह काम करती हैं और इंटरनेट के माध्यम से इनकी पहुँच कहीं अधिक बढ़ जाती है। इन साइटों के विश्लेषण से कुछ खास बातें स्पष्ट होती हैं।
सबसे पहली बात जो पता चलती है, वह यह है कि इन सभी जाति संगठनों की स्वकल्पना भले ही अलग अलग सिद्धांतों पर आधारित है, पर सभी का मुख्य उद्देश्य अपने अपने जाति समूह के स्वजन के बीच प्रगाढ़ता बढ़ाना है। उदाहरण के लिए, पुरवाल वैश्य समाज द्वारा प्रकाशित पुरवार समाज पत्रिका अपने जाति समुदाय को 1901 की जनगणना में वैश्य समाज के विश्लेषण के आधार पर बाँधने का प्रयास करती है।
यदि यहाँ पर ऐतिहासिक सिद्धांत को सामाजिक कल्पना का आधार बनाया गया है, तो अग्रवाल टुडे नामक पत्रिका अपने जाति समुदाय के लिए एक ऐसी पहचान विकसित करना चाहती है जिसमें भारत और उससे बाहर के सभी जाति सदस्य अपने आप को एक ही जाति समाज से जोड़कर देखें। इस प्रकार यहाँ एक जातीय डाइस्पोरा विकसित करने का प्रयास दिखाई पड़ता है। अंतर्जातीय विवाहों का यदि प्रत्यक्ष विरोध ना भी हो, पर स्वजातीय विवाह के ऊपर अत्याधिक ज़ोर देना अधिकाँश उच्च जातीय संगठनों की प्राथमिकता रहती है। इसी के चलते कई पत्रिकाओं में मैट्रिमोनियल व्यवस्था पर ज़ोर दिया गया है।
पुरवार समाज पत्रिका में समाज की महिलाओं के वर्णन से एक दूसरा सामाजिक उद्देश्य भी उजागर होता है। “जहां तक नारी स्वतत्रांता का संबंध है, पुरवाल समाज की स्त्रिायां अनकहे और अपरिभाषित अनुशासन के दायरे में रहती हैं। वे स्वेच्छा से पुरूष को स्वयं से ऊंचा दर्जा देती हैं और उसकी सहमति के बिना कोई कार्य नहीं करतीं। वे अपने से बड़ों का मान करती हैं ओर उनके सामने आने पर सम्मान रूप में सिर को ढंक लेती हैं या घूंघट करती हैं। पति–पत्नी के बीच एक अलिखित व अव्यक्त सा समझौता है जिसके अंतर्गत महिला गृहस्थी की देखभाल करती है और पुरूष धन अर्जित करता है”।
शायद बदलते सामाजिक परिवेश में जातीय समीकरण के परिवर्तन जाति संगठनों के लिए एकमात्र चुनौती नहीं हैं। महिलाओं की बदलती आर्थिक और सामाजिक भुमिका की चुनौती का प्रतिवाद भी जातीय संगठनों की प्राथमिकता नज़र आती है। इस प्रकार के पितृसत्तात्मक वर्णन से सम्पूर्ण जाति समुदाय का आधार भी पितृसत्ता की ओर झुक जाता है और समाज में पुरुष प्रधानता के सिद्धांतों का संचार होता है।
भटनागर वार्ता जो कि अखिल भारतीय भटनागर उपकारक ट्रस्ट फ़ंड का मुखपत्र है, अपने समुदाय के संगठनात्मक इतिहास को प्राथमिकता देता है। अखिल भारतीय ब्राह्मण उत्थान समिति एक तरफ़ वर्ण आधारित संबोधन से खुद को प्रमाणित करती है और दूसरी ओर निम्न जाति वर्ग को आज तक मिलते आ रहे समता के प्रावधानों, जैसे आरक्षण आदि, को जातिगत राजनीति से प्रेरित बताकर, उनका पुरजोर विरोध भी करती है। इस तरह की विरोधाभासी बातें उच्च जातीय मानसिकता और प्रतिवादी राजनीति की परिचायक हैं।
शोध में यह भी सामने आया कि इन पत्रिकाओं को छापने एवं चलाने का खर्चा मुख्यत: जाति समुदाय के सदस्यों द्वारा दिए गए विज्ञापनों द्वारा ही निकलता है। ये विज्ञापन व्यावसायिक और वैवाहिक प्रयोजन से होते हैं।
निष्कर्ष: आधुनिक समय में जातीय व्यवस्था अपने मौलिक स्वरूप में अस्तित्व नही रखती। पर जातीय श्रंखला में निचली जातियों के प्रति, जातीयता और वर्ण व्यवस्था से उपजे पूर्वाग्रह और उपेक्षा की भावनाएँ आज भी उच्च जाति वर्ग को प्रभावित करती हैं। उच्च जातीय राजनीति, आधुनिक अन्तरजातीय प्रतिस्पर्धा में इन्हीं भावनाओं से प्रेरित होती है। पूर्ववर्ती जाति व्यवस्था के अभाव में इस राजनीति को जीवित रखने के लिए उच्च जाति वर्ग ने भी अपनी अलग उपसंस्कृति का निर्माण किया। यह उपसंस्कृति आधुनिक राजनैतिक प्रणाली की तरह संगठित है, सदस्यीय है और व्यवस्थित है। और जाति संगठनों के रूप में वास्तविक शक्ल लेती है।
पर किसी भी जाति वर्ग के सदस्य विभिन्न क्षेत्रों में बिखरे रहते हैं। ऐसे में एक संगठित, एकीकृत जातीय पहचान बनाने के लिए जातीय संगठन, पत्रिकाओं के रूप में, अपने अपने मुखपत्र विकसित करते हैं। ये मुखपत्र राजनैतिक और सामाजिक दो तरह की भूमिकाएँ निभाते हैं। सामाजिक रूप से ये जाति समुदाय के सदस्यों को आधुनिकता के अनुरूप किसी एक खास सिद्धांत के आधार पर बांधते हैं, जैसे कि ऐतिहासिक रूप से जाति संगठन की व्याख्या करना या फ़िर डाइसपोरा के रूप में समुदाय को संगठित करना आदि। यह पहचान इन सदस्यों को निरंतर अपने जातीय संबोधन से जोड़कर रखती है।
चुनावी मौसम में मीडिया एवं चुनावी विश्लेषकों द्वारा मतों का जातीय विश्लेषण इस संबोधन को राजनैतिक रूप दे देता है। उत्तर प्रदेश में हमेशा से ही राजनैतिक दलों को मिल रहे मतों का जातीय वर्गीकरण स्पष्ट रूप से होता रहा है। जैसा कि इस लेख में देखा गया है, 2001 से 2010 के बीच उच्च जातीय वर्ग का विश्वास भाजपा से हटकर बसपा और सपा जैसे दलों के प्रति स्थानान्तरित हुआ। 2007 में बसपा की राज्य में सत्रह वर्ष के बाद बनी पहली एकदलीय सरकार का बहुत बड़ा श्रेय पार्टी के चुनावी नारे में हुए बहुजन से सर्वजन के परिवर्तन को जाता है।
पर कोई भी एजेंडा अपने आप में अधूरा है, जब तक कि उसकी सफ़लता के लिए एक पृष्ठभूमि पहले से तैयार न हो। उच्च जाति वर्ग ऐतिहासिक रूप से निम्न जाति वर्ग से सामाजिक, आर्थिक एवं शैक्षणिक आधार पर ज़्यादा सुरक्षित रहा है। हमेशा से जीवन में मिले बेहतर मौकों का फ़ायदा उठाते आया यह वर्ग जातीय व्यवस्था के ध्वस्त होने और आरक्षण जैसे प्रावधानों से अपने आप को सामाजिक अस्थायित्व और असुरक्षा की स्थिति में पाता है। समानता का ढिंढोरा पीटकर खुद को आरक्षण के मुद्दे पर नुकसानमंद दिखाते हुए यह वर्ग समता के सिद्धांत को अनदेखा करना चाहता है।
इसी सामाजिक सोच का नतीजा है यह उपसंस्कृति जिसका लाभ राजनैतिक दल उठाने के लिए तत्पर रहते हैं। समता बिना समानता के खोखले चुनावी नारों का उच्च जातीय उपसंस्कृति पर गहरा असर पड़ता है और इस वर्ग के अधिकांश सदस्य इसे अपनी विचारधारा बना लेते हैं। संचार के आधुनिक माध्यम जैसे कि प्रिंट जातीयता कि इस भावना को पुख्ता करने का प्रबल माध्यम बन जाते हैं।
अलग अलग जगहों पर बिखरे जाति सदस्य ना सिर्फ़ इन पत्रिकाओं द्वारा अपनी एकीकृत पहचान बनाते हैं, बल्कि जाति संगठनों के लिए यही पत्रिकाएँ कार्यभूमि भी तैयार करती हैं। जातीय संगठनों के वास्तविकता में ठोस संगठनात्मक ढांचे के अभाव में यही पत्रिकाएँ इनके कार्यकारी प्रणालियों, ब्यौरों, इतिहास, संविधानों और चुनाव आदि का रिकार्ड रखती हैं। यही रिकार्ड इनके अस्तित्व का आधार भी बन जाते हैं और इनके सिद्धांतों को जीवित रखने के उपकरण भी।
चुनावी समय में इन पत्रिकाओं की बढ़ी हुई संख्या इन निष्कर्षों की एक हद तक पुष्टि भी करती है। आधुनिक टेक्नोलॉजी का जातीयता जैसी प्राचीन सामाजिक व्यवस्था को ना सिर्फ़ जीवित रखने बल्कि प्रासंगिक बनाए रखने में हो रहा उपयोग, आधुनिकता और रूढ़िवादिता के अनोखे संगम का उदाहरण है। पर सामाजिक रूप से इस तरह का प्रयोग प्रगतिशीलता के लिए अत्यंत खतरनाक है। समानता पर आधारित सामाजिक पहचान के बजाय जातिगत पहचान को जीवित रखने में यह उपसंस्कृति अहम भूमिका निभा रही है और जातीय व्यवस्था से निदान की संभावनाओं को नष्ट कर रही है।
[i] “Verified Titles- Statewise, State: Uttar Pradesh.” Registrar of Newspapers for India: Government of India, मार्च 2013 में विभिन्न तारीखों पर देखी गई। (http://rni.nic.in/rni_display_state.asp)
its become very difficult to read what was our first language; shows the dominance of English language in our milieu
its become very difficult to read what was our first language; shows the dominance of English language in our milieu
Yes. That's true indeed. भाषा कब जोड़ने के एक माध्यम से ना जुड़ सकने की बाधा बन गई इसका एहसास post colonial societies से ज़्यादा और किसी को नही हो सकता है।
Yes. That's true indeed. भाषा कब जोड़ने के एक माध्यम से ना जुड़ सकने की बाधा बन गई इसका एहसास post colonial societies से ज़्यादा और किसी को नही हो सकता है।