आगरा शहर के बनते बिगड़ते सिंगल स्क्रीन सिनेमा हॉल
हाल ही में आगरा में स्थित मेहर टॉकीज़ (जो कि एक सिंगल स्क्रीन सिनेमा है) में एक फिल्म देखी तो आज से लगभग 10 साल पहले का समय याद आ गया, जब इससे पहले आखिरी बार किसी सिंगल स्क्रीन सिनेमा हॉल, संजय प्लेस मार्केट में स्थित संजय टॉकीज में प्रदर्शित हृतिक रोशन की फिल्म कृष देखी थी। वो टिकटों के लिए लाइन में लगना, एडवांस बुकिंग के लिए एक दिन पहले या सुबह से टॉकीज़ के चक्कर लगाना, एक बेहद कमज़ोर से कागज की पर्ची पर छपी टिकट और फिर एक पतले से शटर के बीच से होकर फिल्म हॉल में दाखिल होना।
साथ ही खास थीं सिंगल स्क्रीन हॉल की बाहरी और अंदरूनी साज–सज्जा। हर एक हॉल अपने–आप में खास था और शहर में उसकी अलग पहचान हुआ करती थी। आगरा शहर के सिनेमा हॉल की बात करें तो जहाँ अंजना टॉकीज़ उत्तर प्रदेश में सबसे अधिक संख्या में सीटों वाले वातानुकूलित हॉल में से एक था, वहीं रघुनाथ टॉकीज़ के अंदर बना कृत्रिम झरना जो इंटरवल के दौरान चालू किया जाता था शहर के लोगों के लिए एक बहुत बड़ा आकर्षण हुआ करता था और वहीं लगभग दो दशक पहले ही अपना पुनर्निमाण करा ज्वाला टॉकीज़ पुराने दौर के सिनेमा हॉल के बीच आधुनिक रंग–रूप वाला एकमात्र हॉल बन गया था।
हालांकि पिछले एक–डेढ़ दशक में शहर के सबसे भव्य से लेकर सबसे मामूली, कई सिनेमा हॉल एक के बाद एक इतिहास की बात होते गए। अंजना टॉकीज़ और शाह टॉकीज़ जैसे बड़े और शहर के बीचोंबीच स्थित सिनेमा हॉल के बंद होने के साथ ही लगने लगा कि सिंगल स्क्रीन का समय अब ख्त्म हो जाएगा और बालकनी और ड्रेस सर्किल (जो नाम नई पीढ़ी ने शायद नहीं सुने होंगे) में बँटे इन सिनेमा हॉल की जानकारी अब किसी संग्राहालय में ही मिल सकेगी।
सिंगल स्क्रीन के इस पतन के साथ ही उदय हो रहा था मल्टीप्लेक्स सिनेमा का। शॉपिंग मॉल के भीतर स्थित ये मल्टीप्लेक्स उसी दौरान देश के नए उभरते शहरों में भी अपनी जगह बना रहे थे। इन शहरों की समृद्धि को इसी से आँका जाने लगा कि वहाँ मल्टीप्लेक्स कितने हैं। टिकटों के रूप–रंग के साथ ही इनके दाम भी बढ़ गए। जहाँ अधिकाँश सिंगल स्क्रीन सिनेमा हॉल तब भी वातानुकूलित नहीं हुआ करते थे, मल्टीप्लेक्स में ना सिर्फ एक साथ कई हॉल मौजूद थे पर साथ ही सभी बेहतरीन एयर कड़ीशनिंग, डिजिटल गुणवत्ता वाली फिल्म प्रदर्शन और डॉल्बी सराउंड साउंड के साथ लेस थे। साथ ही फिल्मों के मामले में अधिक विकल्पों के चलते दर्शकों का रुझान इनके प्रति बढ़ता गया।
मॉल संस्कृति में आते इजाफे का फायदा इन मल्टीप्लेक्स को हो रहा था और मल्टीप्लेक्स संस्कृति का फायदा मॉल को भी। मॉल-मल्टीप्लेक्स के द्वारा मिलने वाली सुविधाओं के चलते कई सिंगल स्क्रीन ने प्रासंगिक बने रहने के लिए अपने-आप में कई बदलाव किए। डिजिटल प्रदर्शन, डॉल्बी साउंड और वातानुकूलन की सुविधाएँ इनमें भी शुरु की गईं। यहाँ पर भी टिकटों के दाम बढ़ते गए। पर फिर भी मल्टीप्लेक्स की चमक बरकरार रही।
पर समय को अभी एक और करवट लेनी थी। मल्टीप्लेक्स की संख्या में वृद्धि तो ज़रूर हो रही थी पर ये बढ़त उतनी सहज नहीं थी जितनी प्रतीत हो सकती है। प्रारम्भ में शुरु हुए फन सिनेमा और बिग सिनेमा के कारोबार मॉल संस्कृति के बढ़ने के साथ बढ़े पर इस संस्कृति के ढलान ने साथ ही कुछ मंद भी पड़े। फन सिनेमा बन्द हुआ और उसकी जगह पैसिफिक सिनेमा ने ली और एडलेब्स ने बिग और हाल ही में कार्नीवल सिनेमा में परिवर्तित होकर यह सफर तय किया। अब अपने–अपने उजड़े हुए मॉल में ये मल्टीप्लेक्स ही कुछ इक्का–दुक्का दुकानों के साथ शेष बचे हैं।
वहीं दूसरी तरफ कुछ सिंगल–स्क्रीन सिनेमा ने अपना पुन:आविष्कार किया। बुनियादी सुविधाओं में बदलाव के साथ ही नए ज़माने के मल्टीप्लेक्स की तरह अपनी आंतरिक साज–सज्जा को सँवारा, सीटों को ठीक किया, कैफेटेरिया को सुधारा और टिकट खिड़की को इंटरनेट की बुकिंग से जोड़ा। इनमें शहर के मेहर सिनेमा और श्री टॉकीज़ प्रमुख उदाहरण हैं। श्री टॉकीज़ ने अपने सिंगल स्क्रीन में ही एक से अधिक फिल्मों को एक ही दिन में अलग–अलग समय पर दिखाकर मल्टीप्लेक्स की तरह का अनुभव देने का प्रयोग भी किया।
आज शहर में जहाँ मल्टीप्लेक्स सिनेमा हॉल मुस्तैद हैं वहीं कुछ सिंगल स्क्रीन सिनेमा हॉल जिन्होंने अपने आप को समय के साथ बदलना ठीक समझा, भी मजबूती से खड़े हुए हैं। जहां मल्टीप्लेक्स बाज़ारू और अलग हट के सिनेमा दिखा सिनेमा दर्शकों के लिए विकल्प खड़े कर रहे हैं, वहीं सिंगल सिनेमा भारी भीड़ में आने वाले दर्शक वर्ग के लिए उपयुक्त हैं। इन दोनों का बने रहना कुछ लिहाज़ से महत्वपूर्ण भी है।
जहाँ मल्टीप्लेक्स बनाने और चलाने वाली अधिकाँश कंपनियाँ बहुराष्ट्रीय और बड़े वाणिज्यिक समूहों से पोषित होती हैं वहीं सिंगल-स्क्रीन सिनेमा शहर के ही व्यवसायियों द्वारा संचालित किए जाते हैं। वैश्विक आर्थिक व्यवस्था में जब मंदी का संकट आता है तो बहुराष्ट्रीय और बहुराज्यीय व्यवसाय घाटा बचाने के लिए सबसे पहले छोटे शहरों की इकाइयाँ ही बंद करते हैं क्योंकि यहाँ के लोगों की खर्च करने की क्षमता बड़े शहरों के लोगों से कम होती है। ऐसे में शहरी व्यवसायों से जुड़े कारोबारी और इस पर रोज़गार के लिए निर्भर लोगों का शहर के व्यवसायों पर बड़ा आसरा होता है।
आगरा जैसे शहरों में सिनेमा दर्शन ने लंबा सफर तय किया है और यहाँ के सामाजिक-आर्थिक परिदृश्य में इसका बड़ा स्थान रहा है। सिंगल स्क्रीन सिनेमा मल्टीप्लेक्स के मुकाबले उच्च मध्यम वर्ग के लोगों के अलावा कई और तबके के लोगों के लिए आज भी पहुँच में हैं। साथ ही अपने अलग-अलग बाहरी संरचना के कारण शहरों की आर्कीटेक्चरल पहचान का महत्वपूर्ण प्रतीक भी हैं। आज दस साल बाद भी किसी सिंगल स्क्रीन सिनेमा को चलते देखकर यह सुकून मिलता है कि कुछ चीजें आज भी हैं जो पूरी तरह से बदली नहीं हैं।
-सुमित