अंक समूह द्वारा ‘बीवियों का मदरसा’ नाटक का मंचन- शारीरिक फार्स कॉमेडी का ज़िम्मेदाराना उपयोग
कहते हैं कि किसी भी चीज की अति बुरी होती है। पर हर नियम के कुछ अपवाद होते हैं। फार्स कॉमेडी हास्य की एक ऐसी विधा है जिसमें विषय-वस्तु, कहानी और चरित्र-चित्रण सभी में अतिवाद मौजूद रहता है और यदि नाट्य कला में इस प्रकार की फार्स कॉमेडी ज़िम्मेदाराना तरीके से निभाई जाए तो यह अति कारगर सिद्ध हो जाती है। ऐसा ही एक फार्स कॉमेडी युक्त नाटक है ‘बीवियों का मदरसा’ जो कि 14वीं सदी के प्रसिद्ध फ्रांसिसी नाटककार मौलियर के नाटक का बलराज पंडित और सुरेखा सीकरी द्वारा उर्दू में किया गया अनुवाद है।
इसी नाटक का मंचन आगरा में चल रहे सात दिवसीय दिनेश ठाकुर मेमोरियल नाट्य उत्सव के छटे दिन, सूरसदन सभागार में मुंबई के अंक नाट्य समूह द्वारा किया गया। अतिशयोक्तियों से भरपूर यह नाटक शारीरिक हास्य यानि फिज़ीकल कॉमेडी का भी एक उम्दा उदाहरण था। नाटक का निर्देशन किया था अतुल माथुर ने।
यह नाटक फार्स कॉमेडी के माध्यम से पुरुषों की महिलाओं के प्रति अपेक्षा और इंसान की बुनियादी प्रवृत्ति के बीच अंतर्विरोध को रेखांकित करता है। पुरुषवादी समाज की महिलाओं को अपने नियंत्रण में करने की चिरकालीन चेष्ठा का उदाहरण देता यह नाटक इस बात को उजागर करता है कि चाहे भौतिक माध्यमों से महिलाओं के जीवन और सोच पर प्रतिबंध लगाने में पुरुष कुछ हद तक कामयाब हो भी जाएँ पर एक इंसान के नाते उसकी इच्छाओं और आकांक्षाओं पर पहरे लगाना उनके लिए नामुमकिन ही रहेगा।
नाटक में मुख्य किरदार हनीफ मुहम्मद का है जिसे निभाया है शंकर अय्यर ने। बूढ़े हो चले हनीफ की मंशा है सत्रह साल की हुस्नारा से शादी करने की जिसे उसने बचपन से ही घर में नज़रबंद रख अपने मन-मुताबिक एक घरेलू और वफादार बीवी बनने के लिए बड़ा किया है। हुस्नारा का किरदार अभिनीत किया है रिया खानुद ने। हुस्नारा पर नज़र रखने के लिए हनीफ के दो नौकर कम्मो, जिसे निभाया है प्रीता माथुर ठाकुर ने और सुल्तान अली, जिसको अभिनीत किया है अमन गुप्ता ने, उसके साथ ही रहते हैं। उनकी निगरानी के बावजूद हुस्नारा को गुलफाम नामक शख्स से प्यार हो जाता है। गुलफाम की भूमिका में थे आशीष सलीम। पूरी कहानी हनीफ की हुस्नारा और गुलफाम को एक दूसरे से अलग रखने की कोशिश और हुस्नारा को अपने लिए हासिल करने की जद्दोजहद पर आधारित है।
नाटक में प्रमुख रूप से फिजीकल ह्युमर और अतिशयोक्तिपूर्ण अभिनय से हास्य को हनीफ मुहम्मद, कम्मो और सुल्तान अली के किरदारों ने उभारा है। निरन्तर एक जैसी ऊर्जा और उत्साह से भरपूर अभिनय के माध्यम से नाटक में भी इन्हीं गुणों का संचार किया जाता रहा। बहुत पहले लिखे जा चुके इस नाटक में आधुनिक प्रसंगों का भी समावेश कर इसे आज के समय के अनुसार ढाला गया।
अकसर देखा गया है कि सामाजिक टिप्पणी करने वाले हास्य नाटकों में पूर्वाग्रही किरदार कुछ नाटक के लेखन के कारण और कुछ कलाकारों के अभिनय की वजह से बाकी किरदारों पर हावी हो जाते हैं। ऐसा प्राय: इसलिए होता है क्योंकि ऐसे किरदार फूहड़ हास्य और पूर्वाग्रह से ग्रस्त मानसिकता से परहेज़ नहीं करते जिस पर आमतौर पर अधिकांश दर्शक ठहाके लगाना पसंद करते हैं। समाज की इस प्रवृत्ति की इस प्रकार काट ढूंढना कि लोग ऐसे किरदारों के साथ नहीं बल्कि उन पर हंसें नाटककार और कलाकारों की ज़िम्मेदारी हो जाती है।
इस नाटक में इन जिम्मेदारियों को बखूबी निभाया गया। हनीफ मुहम्मद का किरदार जो कि अपने आस-पास के सभी लोगों और स्थितियों को नियंत्रित करना चाहता है और महिलाओं के प्रति हीन-भावना रखता है, अपने ही ‘वफादार’ नौकरों के हाथों निरंतर पछाड़ खाता रहता है और हुस्नारा और गुलफाम को अलग रखने की लगातार विफल कोशिशें करता रहता है। अभिनय के मद्देनजर हनीफ के किरदार में शंकर की ऊर्जा और शारीरिक हास्य को कम्मो और सुल्तान अली की भूमिका में प्रीता और अमन ने बखूबी मैच किया है। इसमें यदि कोई कमी रह जाती तो शायद नाटक पर हनीफ का किरदार हावी हो जाता और नाटक की राह भटक जाती। इस संतुलन को बनाए रखने के लिए नाटक के कलाकार और निर्देशक, सभी की सराहना की जानी चाहिए।
-सुमित चतुर्वेदी
#अकसर देखा गया है कि सामाजिक टिप्पणी करने वाले हास्य नाटकों में पूर्वाग्रही किरदार कुछ नाटक के लेखन के कारण और कुछ कलाकारों के अभिनय की वजह से बाकी किरदारों पर हावी हो जाते हैं। ऐसा प्राय: इसलिए होता है क्योंकि ऐसे किरदार फूहड़ हास्य और पूर्वाग्रह से ग्रस्त मानसिकता से परहेज़ नहीं करते जिस पर आमतौर पर अधिकांश दर्शक ठहाके लगाना पसंद करते हैं। समाज की इस प्रवृत्ति की इस प्रकार काट ढूंढना कि लोग ऐसे किरदारों के साथ नहीं बल्कि उन पर हंसें नाटककार और कलाकारों की ज़िम्मेदारी हो जाती है।#
नाटक वास्तव में बेहतर तरीके से प्रदर्शित किया गया है। जैसा कि नाटक की मूल भावना हास्य के साथ पुरुषों की उस सोच को भी उजागर करना था।
पूरा नाटक में बस केवल अंतिम दृश्य जब कम्मो एक और छह महीने की बच्ची को लेकर आती है, ही मेरे हिसाब से गलत बन पड़ा है। उस दृश्य में सामाजिक चेतना और संदेश देने की कमी खली। जबकि उसे बेहतर ढंग से अंजाम दिया जा सकता था और नाटक में इसके लिए जगह भी थी। लेकिन चूंकि नाटक काफी पुराना होने के कारण उसमे आज की परिस्थितियों के हिसाब से परिवर्तन दिखने चाहिए थे, जोकि थे भी, लेकिन अंतिम दृश्य ने फिर से उस पहले ही दृश्य पर लाकर खड़ा कर दिया। अंतिम दृश्य में हनीफ को कुछ आत्मज्ञान के बोध का चित्रण किया जा सकता था।
इसको छोड़कर अभिनय के हिसाब से बहुत उम्दा।