'सिटीज़ ऑफ़ स्लीप' (2015): नींद का सामाजिक-आर्थिक गणित

गरीबी को कई चश्मों से देखा जाता रहा है। पहले इसे भौतिक वस्तुओं के अभाव में देखा जाता था। अमर्त्य सेन और जॉन द्रे जैसे समाज-शास्त्रियों ने जब से आर्थिक-विकास के बजाय मानव-विकास को तरजीह देना शुरु किया तब से इसे मानव क्षमताओं के अभाव के रूप में देखा जाने लगा। इन क्षमताओं को भी इस आधार पर आँका जाता है कि क्या इनके द्वारा हर मनुष्य अपने मन चाहे रूप में अपना पूर्ण विकास कर सकता है या नहीं। इस नए बदलाव से गरीबी की और व्यापक परिभाषा लोगों के समक्ष प्रस्तुत हुई है जिससे खास कर विकासशील और अविकसित कहे जाने वाले और कई मायनों में विकसित देशों में भी गरीबी को कई नए रूपों में समझा जाने लगा है।

 
खास बात यह है कि किसी भी नए बदलाव से पुरानी सोच में तो परिवर्तन आता ही है, पर साथ ही नित नई परिभाषाओं को गढ़ने और महत्वपूर्ण सामाजिक-राजनैतिक विषयों को और भी नए रूपों में देख पाने की संभावनाएँ भी बढ़ जाती हैं। ऐसी ही गरीबी की एक नई संभावना और परिभाषा को तलाशती हुई डॉक्यूमेंट्री है ‘सिटीज़ ऑफ़ स्लीप’/ ‘नींद शहर’। शौनक सेन द्वारा निर्देशित यह फिल्म 2015 में बनी और देश-विदेश में कई जगहों पर दिखाई और सराही गई। हाल ही में इस फिल्म को टाटा स्काय के मुंबई फिल्म समारोह में दिखाई गईं फिल्मों के लिए समर्पित चैनल पर रिलीज़ किया गया है जिसके कारण यह फिल्म देश के सभी हिस्सों में उपलब्ध हो सकी है।



 
इस फिल्म ने गरीबी को एक ऐसी चीज़ से जोड़कर देखा है जिसके महत्व को किसी भी वर्ग का इंसान झुठला नहीं सकता- नींद। एक अच्छी नींद के लिए इंसान क्या-क्या जतन नहीं करता? विकसित शहरों में समृद्ध वर्ग में ‘इनसोमनिया’ यानि नींद ना आने की बिमारी, एक आधुनिक शहरी आपदा का रूप लेती जा रही है। पर ठीक इसके उलट, इस फिल्म में नींद आने पर भी सो पाने के अवसरों के अभाव को केंद्र में रखा गया है।
 
दिल्ली शहर के हाशिए की दुनिया का प्रतिनिधित्व करतीं दो खास जगहों पर अधारित यह फिल्म नींद के इस परिदृश्य के विपरीत छोर पर खड़े दो किरदारों- शकील और रंजीत, की कहानियों को बयान करती है। एक तरफ है शकील- एक गरीब फक्कड़ आदमी जिसका ना दिन का ठिकाना है और ना रात का, जो भीख माँगकर गुज़ारा चलाता है पर फिर भी अपने जन्मदिन, यानि 12 जनवरी, को केक काटकर, दाढ़ी बनवाकर और दोस्तों के साथ नाच गाकर मनाता है। उसे हर रात अपने लिए सोने का एक आसरा ढूँढना पड़ता है। दिल्ली की ठिठुरती सर्दी में वह कई ठिकानों में आसरा तलाशता है पर अक्सर मायूस होकर रह जाता है। वहीं दूसरी तरफ है रंजीत जो पुरानी दिल्ली में स्थित लोहे के पुल के नीचे यमुना के तट पर एक अस्थायी टेंट में एक सिनेमा हॉल चलाता है जिसमें आए दर्शकों के लिए फिल्म देखने का आनंद उतना ही महत्वपूर्ण है जितना दिन की गरमी में एक अदद आराम की नींद पा लेना। दिन और रात के बीच तैरती यह फिल्म सरदी और गरमी के मौसमों के बीच भी निरन्तर सफर तय करती है।
 
यह फिल्म दिल्ली की उन संदों से होकर सफर तय करती है जिनसे होकर एक ऐसी दुनिया को रास्ता जाता है जिससे संपन्न वर्ग निरन्तर आँख चुराकर रहना चाहता है। यह वह दुनिया है जिसमें भींख माँगने वाले, रिक्शा चलाने वाले, सड़क किनारे अस्थायी दुकान लगाने वाले, सामान ठेलने वाले आदि रहते हैं। ये सभी अपनी भूख-प्यास और जीवन की अन्य सभी ज़रूरतों के लिए जूझते हैं। पर एक आराम की नींद इनके लिए एक निरंतर बने रहने वाली ज़रूरत भी है और आसानी से ना मिल पाने वाला सुख भी।
 
खास बात यह है कि जो कुछ उपाय इस वर्ग के जुझारू लोगों ने अपनी कर्मठता और किसी भी तरह से गुज़ारा कर पाने की जुगाड़ के चलते तैयार किए भी हैं, उन पर भी कई प्राकृतिक और कई गैर-प्राकृतिक कारणों के चलते निरन्तर उखाड़े जाने का खतरा मंडराता रहता है। चाहे अचानक बाढ़ के आने के खतरे से लोहे के पुल के नीचे के टेन्टों को हटाने का हड़कंप हो या फिर गैर-कानूनी तरीके से चल रहे खाट और कंबल के कारोबार के सरकार द्वारा हटाए जाने का कहर हो, ये खतरे सर्दियों की ठिठुरन, तूफानी बारिश या झुलसा देने वाली गर्मी को नहीं देखते।
 
नींद को सिर्फ इस फिल्म के मर्म का ही हिस्सा नहीं बनाया गया है। फिल्म के पूरे कथानक को भी नींद के धागे में पिरोया गया है। टेंट, रैन बसेरे, ट्रेन आदि में बेतरतीब तरीके से फैले सामान की तरह सोते हुए लोगों के दृश्य नींद की दुर्लभता को निरन्तर उभारते रहते हैं। शकील के साथ चलता कैमरा दिल्ली शहर के रात के रूपांतरण का क्रूर रूप सामने ले जाता है। जगमगाती सड़कों के किनारे बने बस स्टॉप कभी आसरा बन जाते हैं तो कभी पहले आसरा रह चुके सड़क के नीचे से जाने वाले पैदल-पार पथ यानि सबवे पर लटके ताले इन्हें आसरा नहीं बने रहने देते हैं।
 
ये कहानी है उन सैंकडों लोगों की जो ना जाने कब से नींद से महरूम हैं। मात्र आँख बन्द कर लेने से इन्सान कैसे नींद की दुनिया में खो जाता है, असलियत से दूर हो लेता है और उठकर तरोताज़ा हो जाता है, यह कुदरत का एक करिश्मा ही है। इस करिश्मे के जादू को वो उतना नहीं समझ सकता है जिसे ये आसानी से मिले जाए और जिसे मिलती ही नहीं वो भला क्या समझेगा। पर शायद ‘नींद शहर’ यानि ‘सिटीज़ ऑफ स्लीप’ अपने दर्शकों को इस करिश्में से एक बेहद मार्मिक और उद्वेलित कर देने वाले अंदाज़ में ज़रूर वाकिफ करा सकती है।       

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