साइकिल, समाजवाद और कामगार

 


साइकिल (जो कि समाजवादी पार्टी का चुनाव चिन्ह है) का समाजवाद और समाजवादी पार्टी, दोनों से ही गहरा रिश्ता है। समाजवाद से इसलिए कि, साइकिल आज भी अधिकाँश आम जनता का सबसे महत्वपूर्ण वाहन है और पार्टी से इसलिए कि, यह दल साइकिल को अपने पार्टी के प्रचार में नियमित रूप से इस्तेमाल करता रहा है। सपा इस मामले में बाकि दलों से अधिक फायदे में भी है क्योंकि अपने पार्टी चिन्ह का वह ज़मीनी स्तर पर आम जनता के नाम पर इस्तेमाल कर सकती है जबकि अधिकाँश दलों को यह अवसर उपलब्ध नहीं होता है।

साइकिल रैली, ज़रूरतमंदों को साइकिल वितरण जैसी योजनाओं के बाद, साइकिल के नाम पर सबसे नया और आधुनिक कदम जो इस सरकार ने उठाया है, वह है हाल ही के कुछ वर्षों में उत्तर प्रदेश के कुछ चुनिंदा शहरों में साइकिल ट्रैक (पथ) का निर्माण। डेनमार्क और युरोप के अन्य देशों की तर्ज पर विकसित किए जा रहे साइकिल ट्रैक फिलहाल कुछ मुख्य सड़कों के समानांतर, दोनों ओर बनाए जा रहे हैं। लखनऊ में इसका उद्घाटन स्वयं मुख्यमंत्री- अखिलेश यादव द्वारा किया जा चुका है और आगरा में ताज महल के आस-पास स्थित दो सड़कों पर इस पर काम जारी है। इस काम में मार्गदर्शन के लिए बाहर के देशों से विशेषज्ञों को भी बुलाया गया है। साइकिल ट्रैक की इन योजनाओं का प्रचार करने के लिए स्वस्थ जीवन-शैली और प्रदूषण-मुक्त पर्यावरण का हवाला दिया जा रहा है। 

आगरा के कैंटोनमेंट क्षेत्र में स्थित मॉल रोड उन सड़कों में से एक है जहाँ इन साइकिल ट्रैक का निर्माण जारी है। यहाँ पर ट्रैक की चौड़ाई बहुत अधिक नहीं है। एक समय पर एक ही साइकिल चालक इस पर से गुज़र सकती है। पर इसके निर्माण में प्रयुक्त सामग्री जैसे कि टाइल्स, ट्रैक के किनारी पर लगे छोटे खंभे आदि, प्रत्यक्षत: अच्छी किस्म के लगते हैं।

थोड़ी-थोड़ी दूर पर लगे साइनबोर्ड और बगल की दीवारों पर लिखे कुछ जुमले साइकिल ट्रैक का चालकों और राहगीरों के साथ संवाद स्थापित करने का प्रयास भी करते हैं।

पर वस्तुस्थिति में यह प्रयोग कुछ खास असर दिखाता नहीं लग रहा है। हालांकि अभी पुरे ट्रैक का निर्माण कार्य पूरा नहीं हुआ है, पर जितना भी पथ निर्मित हुआ है, वह खाली और बेरौनक ही पड़ा है और साइकिल चालक इसके बगल से चल रही सड़क पर ही चलना पसंद कर रहे हैं।

इसके कुछ ठोस कारण हैं। पहले-पहल तो यह समझना ज़रूरी है कि यह योजना साइकिल चलाने की आदत को बढ़ावा देने के लिए अधिक है और मौजूदा साइकिल चालकों की सहूलियत के लिए कम। ज़रूरतमंद साइकिल चालक वे हैं जिन्हें अपने काम पर जाने के लिए साइकिल का उपयोग करना पड़ता है। सुबह-सवेरे और शाम-अंधेरे साइकिल पर कस्बों और देहातों से शहरों की तरफ जाने वाले कामगारों का हुजूम आपको किसी भी आम भारतीय शहर में दिख सकता है।

तालिका 1: भारत में कामगारों द्वारा यातायात के साधनों के प्रयोग का संख्यात्मक विवरण

स्त्रोत: भारतीय जनगणना 2011

2011 की भारतीय जनगणना के नतीजों में यह पाया गया है कि 13.1%, यानि 2.62 करोड़ लोग साइकिल से अपने काम पर जाते हैं जो किसी भी माध्यम पर निर्भर लोगों का सबसे अधिक प्रतिशत है। साइकिल चालकों का प्रतिशत देश भर में ग्रामीण क्षेत्रों से आने वाले लोगों के लिए 13.2% है और नगरीय क्षेत्रों में 13% है।

एक दूसरे से अपने दिन भर की बातों का लेखा-जोखा करते हुए ये लोग, जो प्राय: निम्न-मध्यम वर्ग और निम्न वर्ग से आते हैं, फिर चाहे लू के थपेड़ों वाली गर्मियाँ हों या हाड़-माँस गला देने वाली ठंड हो, एक से 30 किमी तक लंबे रास्ते रोज़ तय कर जाते हैं। इन लोगों के लिए साइकिल चलाने के पीछे पर्यावरण का भला करने या अपना स्वास्थ्य बेहतर करने का उद्देश्य नहीं होता बल्कि अपनी जीविका कमाने की बुनियादी आवश्यकता होती है। 

तालिका 2: भारत में साइकिल से चलने वाले कामगारों द्वारा विभिन्न दूरियाँ तय करने का संख्यात्मक विवरण। स्त्रोत: भारतीय जनगणना 2011

ऐसे में ये संकरे साइकिल ट्रैक इन चालकों का पूरा भार उठा पाएँ ऐसा संभव नहीं लगता। इसके अलावा, गाँव-देहात से निकलकर आने वाले इन चालकों के लिए शहर में बने ये ट्रैक वैसे भी अधिक लाभदायक नहीं हैं। रही बात शौकिया साइकिल चलाने वालों की तो अभी भारत में विकसित शहरों तक में साइकिल-कल्चर अपनी जमीन तैयार नहीं कर सका है। यूरोपीय देशों के मानी, भारत में ना तो लोग अपने काम पर साइकिल से जाते हैं और ना ही ज़्यादा तादाद में साइकिल चलाने का शौक रखते हैं।

इस कल्चर को और शहर और शहर-वासियों के स्वास्थ्य की बेहतरी को बढ़ावा देने के लिए यह कदम सराहनीय तो है पर मौजूदा समय में प्रासंगिक नहीं है। फिलहाल साइकिल से जुड़े अधिकाँश लोगों को साइकिल पर उनकी निर्भरता कम करने के प्रयत्नों की आवश्यकता है। ना सिर्फ लंबी दूरी की ये साइकिल यात्रायें हड्डी-पसली एक कर देने वाली होती हैं, बल्कि सड़क हादसों में साइकिल-चालक भारी मात्रा में शिकार होते हैं और कई बार अपनी जान से हाथ धो बैठते हैं।

इसी कारण मौजूदा समय में साइकिल ट्रैक से अधिक जनसाधारण के लिए यातायात के साधनों पर ध्यान देने की आवश्यकता है। देश भर के अधिकाँश शहरों में नियमित महानगर बस सेवाएँ या तो मौजूद ही नहीं हैं, या फिर खस्ता हाल में हैं। उसी प्रकार गाँव, कस्बों को शहरों से जोड़ने वाली ईएमयू, डीईएमयू रेल सेवाओं पर नीतिगत ध्यान नहीं दिया जाता है और उसके बजाय शहरों के भीतर ही चलने वाली मेट्रो सेवाओं पर करोड़ों की राशि खर्च की जाती है जो कि इस स्तर के निवेश को सार्थक करने में भी असफल साबित हो रही हैं।

उत्तर प्रदेश के मामले में यह इसलिए और महत्वपूर्ण हो जाता है क्योंकि इस प्रदेश में देश की 15% साइकिल से चलने वाली कामगार जनता मौजूद है। साइकिल वाले चुनाव चिन्ह की पार्टी के सत्ता में होने का कुछ फायदा इनको भी मिल सके तो साइकिल की प्रतीकात्मक राजनीति के लिए भी अच्छा होगा और समाजवाद की विचारधारा के लिए भी।     

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *