शिक्षा से महरूम। ज़िम्मेदार कौन?

एक बच्चे से उसकी शिक्षा के बारे में पूछे गए कुछ सवालों पर आधारित एक छोटा सा लेख।  
रमेश (बदला हुआ नाम), अपने पिता के साथ बाग बगीचों से गुलाब और दूसरे फूल तोड़ता है। इन फूलों को दोनों पिता-पुत्र किलो के हिसाब से बेचते हैं। रमेश बहुत छोटा सा बच्चा है, चार फीट से भी कम ऊँचाई, पतला दुबला, घने बाल माथे तक आते हुए और चेहरे पर एक प्यारी सी और कुछ नटखट सी मुस्कुराहट। रमेश अपने पिता का काफी समय से हाथ बँटा रहा है और अब इस काम से अच्छी तरह वाकिफ भी लगता है। काम के अलावा भी काफी बातें बना लेता है यह नन्हा आदमी।
 
जब उससे पूछा कि “क्यों तुम स्कूल जाते हो”? तो कुछ बड़बड़ाते हुए उसने हाँ में सिर हिला दिया। कौन सी कक्षा में पढ़ता है, यह पूछने पर अपने हाथ की पाँच उँगलियाँ उठाकर दिखाते हुए बोला “छँटी में”। और बातों में आत्म विश्वास से बोलने वाला यह लड़का अपनी पढ़ाई को लेकर कुछ सहमा था पर सवालों के जवाब फिर भी दे रहा था। उससे पूछा “अपना नाम लिख लेते हो”? थोड़े बढ़े हुए आत्मविश्वास से बोला “हाँ”। उससे कहा “अपना नाम लिखकर बताओ”। उसने मुस्तैदी से कलम हाथ में पकड़ी और कागज़ पर अक्षर बनाने लगा। पहले उसने अपने नाम के सारे अक्षर बना दिए, फिर उन पर एक लकीर खींची और अन्त में बीच के अक्षर पर मात्रा लगाई। हिन्दी लिखना जानने वाले समझेंगे कि इस तरह से लिखना कुछ संदिग्द्ध लगना लाज़मी है। अक्सर जब हम हिन्दी में लिखते हैं तो अक्षरों को उनकी मात्राओं के साथ ही लिखते हैं।
 
अपने संशय को पक्का करने के लिए उससे पूछा “क से कलम, ख से खरगोश जानते हो”? उसने ना में सिर हिला दिया। फिर लगा अपने नाम के पहले अक्षर को तो पहचानता ही होगा। पूछा “र से राम आता है”? बोला “नहीं”। फिर जब उसके नाम के बीच के अक्षर को अलग से बोलकर लिखने को कहा तब पता चला कि असल में उसे अपने नाम के अक्षरों को अलग अलग पहचानना तक भी नही आता। फिर नाम कैसे फटाक से लिख लिया? “दीदी ने सिखाया है”, उसने कहा। आम तौर पर अनौपचारिक रूप से भारत में नाम लिखना आना साक्षरता से जोड़कर देखा जाता है। पर खास बात यह है कि रमेश के लिए उसका नाम लिखना और सूरज की तस्वीर बनाने में कुछ खास फर्क नही था। जैसे सूरज बनाने को बोलो तो एक गोला और उससे निकलने वाली किरणों के लिए लंबी, छोटी लकीरें बना दी जाती हैं, वैसे ही रमेश और उस जैसे कई “साक्षर” लोग अपने नाम का चित्र बनाना जानते हैं। ऐसे में किसी धाँधली से बचना जिसमें किसी दस्तावेज़ को पढ़ना और अपना हित सुनिश्चित करना शामिल हो, ऐसे “साक्षर” लोगों के लिए नामुमकिन है और ऐसी साक्षरता व्यर्थ है।
 
रमेश से पूछा “स्कूल में पढ़ाई होती है”? उसने कहा “हाँ”। क्लास में थोड़े बच्चे हैं। टीचर भी आती है। “टीचर पढ़ाते हैं”? पूछने पर बोला “मैडम आती हैं”। फिर थोड़ी देर में बोला “बैठी रहती हैं”। “इम्तिहान होते हैं”? बोला “हाँ”। “तुम पास हुए या फेल”? बोला “फ़ेल”। पूछा “स्कूल का नाम क्या है”? कुछ नाम बड़बड़ाया। कई बार पूछने पर जो नाम उभर कर आया वो कुछ “त्रिजना” जैसा सुनाई दिया। उससे पुष्टि करवाना बेकार था क्योंकि उसे खुद भी पक्का मालूम नही था। हाँ ये मालूम था कि “जे पी होटल” के पास कहीं है। इतने सारे सवालों के बाद वो शायद थक सा गया था। उसके चेहरे की नटखट सी मुस्कुराहट भी कुछ फीकी पड़ गई थी। वह लौट गया।
 
उसके पिता अपनी साइकिल पर फूल लाद रहे थे। वह उनके पास चला गया। शायद उसने अपने पिता से बताया होगा कि वो लोग उससे पढ़ाई के बारे में सवाल पूछ रहे थे। और शायद उसके पिता ने चिढ़कर कहा होगा “पूछन दै” (पूछने दो)। पर शायद बहुत दिनों बाद उसके और उसके पिता के बीच उसकी शिक्षा का मुद्दा आज फिर निकला होगा।
 
हाँ बच्चे के पिता पर कई इल्ज़ाम लगाए जा सकते हैं। पहला तो अगर उसका बच्चा पढ़ने नही जाता तो लापरवाही का इल्ज़ाम, फिर अगर जाता है और फ़ेल हो जाता है तो अनदेखी का इल्ज़ाम और अगर अपने साथ काम करवाता है तो मतलबी होने का इल्ज़ाम। पर गरीबी का इल्ज़ाम किस पर लगाया जाए।
 
सरकारी शिक्षा का स्तर अच्छा नही है यह सबको पता है। निजी स्कूलों में पढ़ाना कोई आसान बात नही है। पढ़ाई भी एक दीर्घकालिक निवेश की तरह है। मध्यमवर्गीय और उच्चवर्गीय लोग किसी भी और निवेश की तरह लंबे समय तक निवेश कर धीरज से उसके फलने का इंतज़ार कर सकते हैं। पर हर दिन की जद्दोजहद करने वाले परिवारों के लिए यह धीरज मुनासिब नही है। ऊपर से हमारे देश में साक्षरता पर अधिक ध्यान दिया जाता है। जैसा कि पी साईनाथ ने अपनी किताब “एवरी बडी लव्स अ गुड ड्रॉउट” में लिखा है, साक्षरता पर इतना अधिक ज़ोर दिया जाता है कि लोग भूल ही गए हैं कि सरकार की ज़िम्मेदारी सिर्फ साक्षरता नही बल्कि मूलभूत शिक्षा है। ऐसी व्यवस्था में अपने नाम को मात्र किसी चित्र की तरह बनाना सीखना बहुत आश्चर्यजनक नही है। और अगर गरीब बच्चे फेल हो रहे हैं तो इसमें नया क्या है जब पूरा समाज और व्यवस्था ही उनके मामले में फ़ेल हो गए।  

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *