शौपिंग मौल्स को सांस्कृतिक चुनौती।

प्रस्तावना: शौपिंग मौल्स भले ही बड़े शहरों में आधुनिक उपभोक्ता की पहली पसंद बन चुके हों पर आगरा में उनका खुलना और चलना एक असफ़ल और प्राय: चुनौतीपूर्ण प्रयास रहा है। ऐसे में आधुनिक उपभोक्तावाद को आंख मूँद कर व्यापार का भविष्य मानना हड़बड़ी का फ़ैसला हो सकता है। इस लेख में इस शहर में शौपिंग मौल्स के अनुभव पर विस्तार से चर्चा की गई है और उसके मुश्किल भरे सफ़र की वजहों पर गौर किया गया है।
आज का भारत उपभोक्तावाद से अंजान नहीं है। शहर की सड़कों से लेकर टी वी की स्क्रीन तक और बाज़ारों में लगे इश्तेहारों से लेकर अख़बारों में पूरे पन्नों के विज्ञापनों तक, आज के हिंदुस्तान का एक एक इंच उत्पादों की तस्वीरों से पटा पड़ा है। पर इस उपभोक्तावाद की सबसे बड़ी प्रतीक वो भव्य इमारतें बनके  उभरी हैं जिन्हें हमशौपिंग मौलके नाम से जानते हैं। आधुनिक भारत के लगभग 23 छोटे बड़े शहरों में शौपिंग मौल की धूम मची हुई है और आने वाले सालों में बाज़ार शास्त्रियों का अनुमान है कि संगठित विक्रय की ये इकाइयाँ और तेज़ी से सारे भारत में अपनी पैंठ बनायेंगी। ऊपर से वर्तमान में चल रही भारतीय विक्रय में विदेशी निवेश की चर्चा इस पुरे विषय को अंतराष्ट्रीय आयाम दे देती है।
हालांकि, मीडिया एवं बुद्धिजीवी वर्ग में इस चर्चा के सिर्फ़ दो पहलू पेश किये जाते रहे हैं। एक पहलू अत्यंत आशावादी है तो दूसरा अत्यंत निराशावादी । जो संयुक्त विक्रय यानि मल्टी ब्रांड और्गनाइज़्ड रीटेल के पक्ष में बोलते हैं वे इसे पूरी व्यापार व्यवस्था को दुरुस्त करने में सक्षम मानते हैं। यानि संगठित विक्रय से किसी उत्पाद के बनने से लेकर उसकी थोक में खरीद और उसके दुकानों पर बिकने तक, सभी में क्रांति सकती है, जिससे ना सिर्फ़ ज़मीनी स्तर पर उत्पादक परंतु खरीददार तथा दुकानदार तक सभी को लाभ हो सकता है। इस तर्क का उपयोग आर्थिक नीति को विक्रय में विदेशी निवेश के समर्थन में मोड़ने के लिए किया जाता है। साथ ही संगठित विक्रय के समर्थन में बोलने वाले आर्थिक विशेषज्ञ इसे मध्यम वर्ग के बढ़ी हुई आमदनी वाले उपभोक्ताओं के बढ़े हुए आत्मविश्वास से भी जोड़कर देखते हैं।
दूसरी तरफ़ वे लोग हैं जो इन तर्कों से बहुत खुश नही हैं। वे ना तो संगठित विक्रय में विदेशी निवेश के पक्षधर हैं और ना ही इसे किसी भी लिहाज से लाभप्रद मानते हैं। उनके अनुसार विदेशी निवेश भले ही रोज़गार के मौके बढ़ा दे, पर विदेशी मूल के होने के कारण उनसे भारत की जनता के अनुसार अपनी इकाइयाँ चलाने की उम्मीद व्यर्थ है। रही बात संगठित विक्रय की तो उससे सबसे बड़ा खतरा असंगठित विक्रेताओं को है जिनमें छोटे दुकानदार, रेढ़ीवाले आदि शामिल हैं। उसूलन शौपिंग मौल का विरोध इसलिए भी किया जाता है क्योंकि इन्हें सैद्धांतिक रूप से मध्यम और उच्च वर्गीय जनता को निम्न वर्गीय जनता से अलग करने के लिए ज़िम्मेदार माना जाता है।
पर ये दोनो ही पक्ष इस बात पर सहमत दिखते हैं कि ये संगठित विक्रय इकाईयाँ अत्यंत कारगर हैं और उपभोक्ताओं के व्यवहार को जिस तरह चाहें उस तरह मोड़ने में सक्षम हैं जिससे इनकी सफ़लता सुनिश्चित है और इन्हें कोई रोक नही सकता। पर इस तर्क का आधार यही है कि सभी उपभोक्ता सिर्फ़ किसी सौफ़्टवेयर की तरह हैं जिन्हें जैसे चाहे वैसे प्रोग्राम किया जा सकता है। मानो हमारी पसंद, नापसंद पर हम जहाँ रहते हैं, बड़े हुए हैं ,वहाँ के इतिहास, समाज या संस्कृति का हमारी सोच, पसंद या नापसंद पर कोई प्रभाव ही नही पड़ता। क्या हम सिर्फ़ किसी विचारधारा जैसे कि उपभोक्तावाद, मार्क्सवाद या पुंजीवाद के नतीजे हैं या फ़िर क्या हमारा अपना व्यक्तित्व भी हमारे जीवन पर कोई असर पैदा करता है? इस लेख में एक ऐसे ही उदाहरण का उल्लेख है जिसमें शौपिंग मौल जैसे, उपभोक्तावाद की ताकतवर मिसाल को, एक शहर के अपने ही कल्चर ने ना सिर्फ़ कड़ा मुकाबला दिया, बल्कि काफ़ी हद तक शहर के मौजूदा व्यवसायिक व्यवस्था को बचाया भी।
आगरा, जो कि विश्व के पर्यटक स्थलों में सर्वाधिक सुप्रसिद्ध शहरों में से एक है, एक ऐसा उदाहरण बन के उभरा जहाँ होटल व्यवसाय से जुड़े लगभग सभी अंतराष्ट्रीय व राष्ट्रीय नाम अपनी मौजूदगी पिछले कई दशकों से बनाये हुए हैं पर संगठित व्यवसाय से जुड़ा कोई भी बड़ा नाम अपनी पहचान बनाने में सफ़ल नही हो सका।
भारत की आर्थिक व्यवस्था में साल 2008 से पहले आए उछाल के बाद कई छोटे बड़े शहरों में मध्यम वर्गीय परिवारों की आय में तेज़ी से इज़ाफ़ा हुआ। आगरा भी इससे अछूता नही रहा। साल 2007 में सत्रह साल की अनिश्चितता के बाद जब उत्तर प्रदेश में एक स्थायी सरकार आने से आगरा जैसे कई शहरों के विकास प्राधिकरण मजबूत हुए तो परिणामस्वरूप इन शहरों में रीयल एस्टेट के क्षेत्र में अनेक रास्ते खुल गए। साथ ही आगरा को नौएडा से जोड़ने वाले ताज ऐक्सप्रेस वे के बनने की घोषणा से कई रिहायशी प्रोजेक्ट शहर भर में बनने शुरु हो गए। ऐसे में कई बिल्डरों ने शौपिंग मौल की संभावनाएँ भी शहर के नए नए विकसित हो रहे कोनों में तलाशनी शुरु कर दी। बढ़ी हुई आय वाले मध्यम वर्ग के उपभोक्ताओं को लुभाने का यह सबसे आकर्षक उपाय था।
तो इस तरह से आगरा में पहली बार दो नए मौल बनने शुरु हुए। जहाँ पहला मौल पैसिफ़िक समूह द्वारा 2006 में खोला गया, वहीं अगले साल टी डी आई समूह ने पैसिफ़िक के बगल में ही अपने भव्य मौल का उदघाटन किया। दोनों ही मौल में सभी दुकानें एक साथ शुरु नही की गईं। जहाँ पैसिफ़िक में बिग बाज़ार और फ़न सिनेमा को बेसमंट और सबसे उपरी माले पर शुरु किया गया, वहीं टी डी आई में बिग सिनेमा और पैंटालून स्टोर से शुरुआत की गई। ऐसा शायद मौल बनाने में आई लागत की कुछ हद तक भरपाई करने कि लिए किया गया था। पर साथ ही साथ दोनों ही जगह कई नई दुकानों के जल्द खुलने की घोषणा कर दी गई।
शहर में पहली बार स्वचलित सीढ़ियाँ (एस्कलेटर) और कई मालों पर फ़ैली हुई दुकानों तथा मल्टीप्लेक्स और फ़ूड कोर्ट जैसी आकर्षक सुविधाओं ने लोगों का मन मोह लिया। अखबारों और रेडियो पर भी इन मौल की धूम मची रही। हर छोटे बड़े मौके या उत्सव पर यहाँ आयोजित होने वाले समारोह से यहाँ आने वालों का उत्साह बना रहा। बहुत जल्द लगने लगा कि शहर का पूरा शौपिंग कल्चर रातों रात बदलने लगा है और सालों से चले आ रहे पुराने बाज़ार अब बहुत जल्द इतिहास की बात बनकर रह जाएंगे। कई बड़ी दुकानों ने मौल की नीति अपनाते हुए वहाँ जैसी ही तरकीब अपने यहाँ भी अपना ली, जैसे कि कुछ ऐसे ऑफ़र या फ़िर बिना दुकानदार के दुकान में खुद ही तफ़री करते हुए शौपिंग करना आदि। साथ ही साथ आगरा के दूसरे कोनों और पुराने शहर के बीच भी मौल परियोजनाएँ शुरू की जाने लगीं।
पर शुरुआत के उत्साह के बाद जल्द ही मौजूदा स्थिति बदलने लगी। 2010 के खत्म होते  तक मौल में आगन्तुकों की भीड़ में भारी कमी आ चुकी थी। एक समय में खचाखच भरी रहने वाली दुकानें अब खरीददारों के इंतज़ार में एक एक करके बन्द होने लगीं। यहाँ तक कि जिन दुकानों के खुलने की सिर्फ़ घोषणा भर हुई थी, वे कभी खुली ही नही। देखते ही देखते साल 2011 के अन्त तक बड़ी दुकानें जैसे कि पैँटालून्स, ज़ोन, के एफ़ सी और फ़ूड कोर्ट बन्द हो चुके थे। अब पुरी की पुरी मंज़िलें सूनसान हो गई थीं। विश्वास नही होता था कि कुछ समय पहले तक जहाँ इतनी रौनक थी, वहाँ अब इस कदर सन्नाटा पसर गया था। जिन लोगों ने यहाँ पर दुकानें किराए पर ली थीं, वे भी मौल की उदासीनता देखकर इन्हें छोड़कर जाने लगे। जो बचा था वो था बिग सिनेमा और मैक डॉनल्ड। बिग बाज़ार बंद कर दिया गया और फ़न सिनेमा के बंद होने पर वहाँ पैसिफ़िक द्वारा ही एक मल्टीप्लेक्स शुरू कर दिया गया।
जो नए मौल बनने की प्रक्रिया में भी थे, वे भी या तो अधबने रह गए या फिर खुल कर भी इक्का दुक्का दुकानों तक ही सिमटे रहे। और जहाँ मौल की इस तरह दुर्दशा हो रही थी वहीं शहर के बंद होने से बचे रह गए सिनेमाघरों में फ़िर से चहल पहल शुरु होने लगी। जिन चाट की दुकानों के बंद होने के कयास लगाए जा रहे थे, वहाँ पहले से भी ज़्यादा रौनक आ गई। इसका एक सबूत शहर के सबसे सुप्रसिद्ध सदर बाज़ार में चाट की छोटी सी दुकानों का भी मासिक किराया लाख रुपए तक पहुँचना था।  रही बात दुकानों की तो लगभग सभी पुराने बाज़ारों में बड़े से बड़े ब्रांड अपने नए नए शोरूम धड़ाधड़ खोल रहे थे। और यह सूरत सिर्फ़ बड़े बाज़ारों की ही नही थी। जैसा कि अन्य शहरों में देखा गया है, किसी भी मौल के आसपास के दो से तीन किलोमीटर के क्षेत्रफल में सभी छोटे एवं मध्यम विक्रेताओं के काम पर बुरा असर पड़ने की संभावनाएं जताई जाती हैं। पर यहाँ मौल की असफलता के साथ ही, लघु और मध्यम दर्जे के विक्रेताओं की दुकानों की संख्या में तेज़ी से बढ़त देखने को मिली। इनमें रोज़मर्रा की ज़रूरत से लेकर घर की साजसज्जा और कंस्ट्रक्शन आदि की दुकानें शामिल थी।
बड़े शहरों से बिल्कुल उलट इस पुरे अनुभव की वजह पर गौर करना ज़रूरी है। क्या वजह थी कि जहाँ पूरे देश में मौल जैसी विक्रय इकाइयों को बाज़ार का भविष्य माना जा रहा था, वहीं एक मध्यम शहर में यह उपभोक्तावाद का अंतराष्ट्रीय फ़ॉर्मुला फ़ेल हो गया? पर ये ध्यान रखा जाना चाहिए कि ऐसा नही है कि शहर के आम उपभोक्ताओं ने सभी बड़े ब्रांड को सिरे से नकार दिया। बड़े नाम चाहे वे फ़ैशन में हो या खान पान में या फ़िर इलैक्ट्रानिक्स में ही, सभी निरंतर अपनी मौजूदगी शहर के बाज़ारों में मजबूती से बनाए रहे, बस एक साथ होकर नही पर अलग अलग दुकानों में।
इसके कारण कुछ इस प्रकार हो सकते हैं। सबसे पहला और महत्वपुर्ण कारण है, इन मौल कीपैन औप्टिकन” (संदर्भ के लिए जेरेमी बेन्थम को गूगल कीजिए) जैसी बनावट जिससे खरीददारों की बाज़ार में हर गतिविधि पर नज़र रखी जा सकती थी जिसके अनुसार विभिन्न उत्पादों की मर्केटिंग विधि को बनाया जा सके। पुराने शहर के बाशिंदों को खुले बाज़ारों की आदत होती है। साथ ही पुराने बाज़ारों की सालों से चली आ रही दुकानों से खरीददारों का एक रिश्ता बन जाता है जिसका खरीददारी के तरीके पर खासा प्रभाव पड़ता है। लोगों को पारस्परिक संवाद की दरकार होती है, जो मौल के माहौल में मिलना बेहद मुश्किल है।
दूसरा कारण जो पुराने बाज़ारों के नए अत्याधुनिक मौल के सामने टिके रहने में मदद करता रहा वो थे शहर के व्यापारी संघ जो मुख्यत: वैश्य समाज के सदस्यों से बना था। इन जातीय एवं व्यापारिक संघटनों के कारण शहर के पुराने बाज़ारों को मजबूती मिली। हालांकि ऐसी जातीय संस्थाओं के और मजबूत होने के दुष्परिणामों पर अलग से चिंता करना आवश्यक है।
तीसरा कारण मनोरंजन सुविधाओं से जुड़ा हुआ है। जब बात फ़िल्मों की आती है तो पारंपरिक लोग फ़िल्म देखने और थिएटर में नाश्ते पानी पर अपव्यय नही करना चाहते हैं। मल्टीप्लेक्स में टिकट एवं खाने पीने की वस्तुओं की अत्याधिक कीमतें आगरा के लोगों को ज़्यादा दिन तक रास नही आईं और मल्टीप्लेक्स की दूसरी सुविधाओं के बावजूद ये वजह उनके भारी नुकसान का कारबन गई।
आखिरी और शायद सबसे विचित्र वजह थी स्वाद। ये शायद ही किसी ने कभी सुना होगा कि किसी शहर की व्यापार व्यवस्था पर वहाँ के लोगों की स्वाद ग्रंथि का असर पड़ा होगा। पर जहाँ तक मौल में खुले खाने पीने की दुकानों के बंद होने की बात करें तो इस वजह पर गौर करना वाजिब है। पुराने बसे शहरों के स्वाद वहाँ की संस्कृति का एक हिस्सा बन जाते हैं। आगरा के लोग मुख्यत: चटपटे खाने पीने के शौकीन हैं। शहर के लगभग हर बाज़ार के साथ जुड़ी हुई गलियों और सड़कों पर चाट की दुकानों का जमावड़ा रहा है। खरीददारी के साथ लोगों को मिर्चीले और चटपटे खाने का शौक है। इसे साझा शौपिंग अनुभव कहा जा सकता है। जहाँ मौल में शौपिंग करने का मतलब है किसी बड़े फ़ास्ट फ़ूड दुकान पर लंच या डिनर करना, वहीं यहां पर उसका मतलब है शाम की चाट आदि। ऐसे में किसी बड़े फ़ास्ट फ़ूड ब्रांड पर खालिस हिन्दुस्तानी चटपटा और तीव्र स्वाद वाला खाना मिलना मुश्किल है जिसके कारण ये दुकानें ज़्यादा दिन तक खाने पीने के शौकीनों को लुभा नही पातीं।
शौपिंग मौल की सफ़लता, किसी शहर के पुराने शौपिंग कल्चर को मिटाने पर आधारित है। विभिन्न शहरों के उपभोक्ताओं की ऐतिहासिक और सांस्कृतिक पहचान को खत्म कर एक साझा पहचान बनाना जो आधुनिक उपभोक्तावाद मात्र पर आधारित हो, शौपिंग मौल की सफ़लता के लिए आवश्यक है। पर आगरा एक पुराना शहर है। इस शहर की अर्थ व्यवस्था प्राय: उद्योग या सर्विस सेक्टर पर केन्द्रित नही रही है। सालों से मुख्यत: व्यापार ही निरंतर यहां की आर्थिक व्यवस्था का आधार रहा है। ऐसे में सालों से चले आ रहे व्यापार और उपभोक्ता कल्चर को बदलना इतना आसान नही है।
जहाँ शौपिंग मौल मुख्यत: सफ़ल हुए हैं, यानि बड़े शहर, वहाँ का इतिहास या तो नया है या फ़िर बहुत पहले से नागरिकता के लिहाज से मिश्रित रहा है। दोनों ही सूरतों में एक नए शौपिंग कल्चर का, जो अलग अलग पहचान के लोगों को एक ही तरह के आधुनिक शौपिंग अनुभव मे ढाल कर बना हो, सफ़ल हो पाना आसान हो जाता है। आगरा जैसा शहर, जो बाहरी शहर वालों को सिवाय होटल व्यवसाय के किसी भी क्षेत्र में रोज़गार नही देता है और वह भी बहुत कम मात्रा में, ऐसी शौपिंग व्यवस्था के लिए उपयुक्त नही है।
पर ऐसा नही है कि यह शहर किसी भी तरह के सामाजिक बदलावों से अछूता रहने में सक्षम है फ़िर चाहे वे आर्थिक क्षेत्र से ही क्यों ना जुड़े हों। पर आधुनिक उपभोक्तावाद की समझ को छोटे बड़े और विभिन्न प्रकार के शहरों पर एक तरह से थोप देना ना तो समाजशास्त्रियों के लिए और ना ही अर्थशास्त्रियों के लिए तर्कसंगत होगा। किसी भी विचारधारा के असर को समझने के लिए उस शहर के अपने इतिहास और संस्कृति को समझना आवश्यक है जहाँ उसके असर को परखा जा रहा है। खास कर जब बात विक्रय व्यापार की हो। दुकानदारी एक ऐसा व्यवसाय है जिसमें लोगों के आपसी संबंधों को नकारना नामुमकिन है। इसलिए आर्थिक राजनीतिक परिभाषाओं को सामाजिक ऐतिहासिक चश्मे से समझना आवश्यक है।    

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