ज्योतिराव फूले द्वारा रखी गई वैचारिक नींव और आज की राजनीति के बीच का फासला

1827 में महाराष्ट्र में जन्मे ज्योतिरा फूले, इस देश के कुछ गिनेचुने सामाजिकसुधारकों में से थे जिन्होंने सामाजिक-सुधार को समग्रता से समझा था। उनसे पहले और उनके बाद कई प्रभावशाली समाज-सुधारकों ने समाज की किसी एक कुरीति जैसे सतीप्रथा, विधवापुनर्विवाह पर सामाजिक-प्रतिबंध, बाल-विवाह आदि के विरुद्ध काम किया, पर समाज के हर स्तर को ग्रस्त करने वाली प्रथाओं जैसे जातिप्रथा और पितृसत्ता के खिलाफ लड़ने वाले कुछेक नामों में ज्योतिराव फूले का नाम उल्लेखनीय है।

उन्नीसवीं सदी में जब जाति-प्रथा, सवर्णवाद और ब्राह्मणवाद को लेकर समाज में कोई व्यापक चर्चा नहीं थी, तब ज्योतिराव ने इन मुद्दों पर एक बेहद उत्तेजक कृति लिखी जिसका नाम था– “गुलामगिरी। यह पुस्तक सन्1873 में लिखी गई। इस पुस्तक के छपने के साथ ही सत्यशोधक समाज की भी स्थापना हुई। इस कृति का मुख्य तर्क था कि भारत में व्याप्त जाति-व्यवस्था उस समय के अमेरिका जैसे देशों में मौजूद गुलाम-प्रथा से कोई अलग नहीं है।

गुलामगिरीके एक महत्वपूर्ण अंश में मौजूद है हिंदु-समाज की एक महत्वपूर्ण शख्सियत, और विष्णु के अवतार कहे जाने वालेपरशुराम का ज़िक्र। ज्योतिराव कहते हैं कि ब्राह्मणों द्वारा जिन यातनाओं की पीड़ा से शूद्र और अतिशूद्र समाज को गुजरना पड़ा है और निरन्तर गुजरते रहना पड़ता है, इसका बोध अगर तत्कालीन अंग्रेज़ी सरकार को हो जाए तो उन्हें यह अहसास होगा कि भारत के इतिहास की अपनी समझ में में उन्होंने कितना बड़ा और महत्वपूर्ण अध्याय छोड़ दिया है।

इसके लिए वह ब्राह्मणों द्वारा ही लिखित एक ग्रंथ का उल्लेख करते हैं। इस ग्रंथ में परशुराम की कहानी लिखी गई है जिसमें उनके क्षत्रीय जाति के लोगों के प्रति किए गए व्यवहार का वर्णन है। यहाँ ज्योतिराव क्षत्रियों को देश के मूलनिवासी की संज्ञा देते हैं, जो शायद ऐतिहासिक रूप से तर्कसंगत ना हो, पर मुख्यत: वह इस बात का वर्णन करते हैं कि कैसे परशुराम ने क्षत्रीय पुरुषों को मारा और उनकी संतानों को भी नहीं छोड़ा। ज्योतिराव का तर्क है कि ब्राह्मणों और क्षत्रीय के बीच वैमनस्य था और परशुराम द्वारा समस्त क्षत्रीय जाति के लोगों को एक बार नहीं बल्कि इक्कीस बार धरती से मिटा देने की घटना का वर्णन लिखकर ब्राह्मणों ने इस बात का प्रमाण दिया है कि यह उनके लिए गौरवपूर्ण बात थी।

पौराणिक और धार्मिक ग्रंथों में लिखे कई ऐसे वृतान्त हैं जिनकी सत्यता और प्रामाणिकता पर आज भी विवाद बना रहता है। पर यहाँ ज्योतिराव का तर्क इस बात पर ज़ोर नहीं देता कि यह घटना सत्य या असत्य है। मारे गए क्षत्रीय पुरुषों के परिवारों, पत्नियों आदि की व्यथा का वर्णन करते हुए वह इस बात को उजागर करना चाहते हैं कि किस प्रकार दूसरों के प्रति हिंसा, उससे उपजा दु:ख और शोक किसी के गौरव का स्त्रोत बन सकता है। इस प्रकार ब्राह्मणवाद और उनके द्वारा निर्मित जातीय-भेदभाव के अनेक उदाहरण देकर ब्राह्मणों द्वारा संरचित इस पूरी व्यवस्था पर ज्योतिराव ने प्रहार किया है।

1873 और आज के बीच लगभग डेढ़ सदी का समय बीत गया है। कुछ चीज़ें बदली हैं और कुछ बिल्कुल नहीं। आज ज्योतिराव फूले द्वारा समाज के उपेक्षित वर्गों जैसे कि दलितों, महिलाओं और अन्य पिछड़े वर्ग के लोगों के लिए किए गये संघर्ष को देश में व्यापक स्तर पर मान्यता मिली है। उनकी ब्राह्मणवाद के खिलाफ की लड़ाई को भी आज कई राजनैतिक एवं सामाजिक दल अपने लिए प्रेरणा का स्त्रोत मानते हैं। 2007 में उत्तर प्रदेश में स्थापित हुई मायावती की बहुजन सामज पार्टी की सरकार के कार्यकाल में प्रदेश के एक शहर का नाम, ज्योतिबा फूले नगर भी रखा गया। नोएडा और लखनऊ में दलित प्रेरणा स्थलों में भी फूले को स्थान दिया गया।

उत्तर प्रदेश में ये कदम इसलिए भी महत्वपूर्ण हैं कि जिस बसपा सरकार के कार्यकाल में ये उठाए गए वह मायावती की सोशल इंजीनियरिंगयानि नए सामाजिक समीकरण बनाए जाने के बाद सत्ता में आई थी। ये सामाजिक समीकरण बसपा द्वारा सवर्ण समाज के साथ साझेदारी करने पर बने थे। ब्राह्मण एवं अन्य कई सवर्ण जातियों के लोगों को बसपा द्वारा प्रत्याशियों के रूप में चुनाव में उतारा गया और इसका भरपूर फायदा बसपा को मिला जिसके फलस्वरूप17 साल बाद राज्य में पूर्ण बहुमत से सरकार बनी।

सवर्ण-समाज के साथ समीकरण बिठाने के बावजूद यदि मायावती ने दलितबहुजन चेतना के लिए इतने बड़े कदम उठाए तो इसका अर्थ था कि राजनैतिक रूप से सवर्ण समाज को इन मुद्दों पर बहुजन मोर्चे की भावनाओं को स्वीकार करना पड़ा। पर बड़ा सवाल है कि क्या इस राजनीतिक परिवर्तन का सामाजिक स्तर पर असर पड़ा।

इसका उत्तर मिलता है एक ऐसे विरोधाभास में जो परशुराम को लेकर उत्तर प्रदेश के वर्तमान समाज में दिखाई देता है। परशुराम आज भी ब्राह्मण समाज के लिए एक महत्वपूर्ण प्रतीक हैं, यह पता चलता है प्रदेश में उनकी जयंती मनाने को लेकर ब्राह्मणों के उत्साह को लेकर। उनके इस प्रतीक में भी हिंसा निहित है जैसा कि इस लेख के आरम्भ में स्थित तस्वीर को देखकर पता चलता है, जिसमें परशुराम के गंडासे पर रक्त की बूँदे दिखाई देती हैं। यानी ज्योतिराव ने परशुराम की हिंसा को जिस प्रकार ब्राह्मणों द्वारा अपने गौरव का चिन्ह बनाने का तर्क दिया था, वह आज भी प्रासंगिक है।

यह तस्वीर उत्तर प्रदेश के एक महत्वपूर्ण शहर- आगरा की हैं। हालांकि परशुराम जयंती 9 मई को थी, पर शहर में इसे 15 मई को परशुराम की शोभायात्रा को बड़े ज़ोर-शोर से निकालकर मनाया गया। इसके लिए विभिन्न संगठनों ने भव्य होर्डिंग लगाकर शहरवासियों को शुभकामनाओं के संदेश भी दिए। 

पर विरोधाभास तब उत्पन्न होता है जब इन होर्डिंग में आप बहुजन समाज पार्टी के नेताओं और प्रत्याशियों की तरफ से भी शुभकामनाएँ देखते हैं। एक तरफ यह पार्टी ज्योतिराव फूले को उनके सामाजिक सुधार के कार्यों और सोच के लिए उचित सम्मान देती है और दूसरी तरफ उसी दल में शामिल हुआ ब्राह्मण वर्ग उन्हीं के शब्दों के उलट जाते हुए भी दिखताहै। 

यह एक राजनैतिक-सामाजिक द्वंद है। यहाँ यह समझना है कि क्या ब्राह्मण समाज बहुजन प्रतीकों के महिमामंडन को स्वीकार कर ब्राह्मणवाद की विचारधारा के विरुद्ध जा रहा है, या फिर बहुजन राजनीतक दल अपने ही मोर्चे के अगुवाई करने वाली ऐतिहासिक विभुतियों के शब्दों के खिलाफ जा रहा है? बसपा के उत्तर प्रदेश में राजनैतिक रूप से सशक्त होकर उभरने से इस द्वंद का जन्म हुआ है। यह सामाजिक स्तर पर कौन सी करवट लेगा, यह सामाजिक न्याय की लड़ाई के लिये एक महत्वपूर्ण प्रश्न है।

डॉ भीमराव अंबेडकर ने अपने प्रख्यात प्रकाशित भाषण- “Annihilation of Caste” में कहा है की इतिहास गवाह रहा है कि राजनैतिक क्रांतियों से पहले हमेशा सामाजिक और धार्मिक क्रांतियाँ आई हैं। पर यहाँ राजनैतिक परिवर्तन पहले आया है। क्या सामाजिक स्तर पर यह परिवर्तन समग्रता से आ पाएगा? या फिर आगे चलकर किसी दूसरे प्रकार के, अधिक व्यापकता लिए हुए, सामाजिक परिवर्तन के आने के बाद ही असल मायनों में एक राजनैतिक परिवर्तन देखने को मिलेगा और अंबेडकर के कथन को सच करेगा?

    

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