'देख भाई देख'- साहित्य, समाज और प्रामाणिकता

90 के दशक के हास्य धारावाहिकों में “देख भाई देख” की एक ख़ास जगह थी। इस लेख में प्रस्तुत है समाज और साहित्य के घनिष्ट सम्बन्ध पर इस धारावाहिक में की गई टिप्पणी पर एक विश्लेषण।

80 के दशक के उत्तरार्ध में और 90 का दशक शुरू होते-होते, फिल्मों में मुख्यधारा के सामानांतर कही जाने वाली सिनेमा का सूर्य अस्त होने लगा और विशुद्ध बाज़ारी फिल्में मनोरंजन उद्योग पर हावी होती गईं। जहाँ मुख्यधारा की सिनेमा पूरी तरह से मेलोड्रामा, ऐक्शन और मनोरंजन पर निर्भर रहती थीं वहीं सामानांतर सिनेमा भारत में नवयथार्थवाद (neo-realism) के साथ सामाजिक-आर्थिक और सामाजिक-राजनीतिक विषयों को केन्द्र में रखती थीं। इन दोनों के बीच में पाई जाती थीं ऎसी सिनेमा जो मध्यमवर्गीय जीवन के हल्के फुल्के विषयों पर कुछ तीखी और कुछ मीठी टिप्पणी करती थीं। पर 90 का दशक आते-आते  इनकी चमक भी फीकी पड़ती गई।

 
इसी समय टीवी परिपक्व हो रहा था पर कैनवास अभी भी बहुत कोरा था। 80 के मध्य से ही टीवी पर नएनए प्रयोग किए जा रहे थे। मुख्यधारा और समानांतर विषयों के मध्य पड़ने वाली कहानियों को भी टीवी पर जगह मिलने लगी थी। मध्यमवर्गीय जीवन पर आधारित कई धारावाहिक तब के सबसे प्रभावशाली माने जाने वाले दूरदर्शन चैनल पर प्रसारित हो रहे थे।ये जो है ज़िंदगी”, “वाघले की दुनिया”, आदि जैसे कई ऐसे कार्यक्रम थे जो इन विषयों पर कहानियाँ सुना रहे थे पर साथ ही भारतीय दूरदर्शन पर हास्य धारावाहिकों की रचना पद्धति (genre) की स्थापना भी कर रहे थे।
 
इन्हीं में से एक था 1993 में शुरु हुआ धारावाहिकदेख भाई देख। इसकी निर्माता थीं जया बच्चन जो खुद 70 और 80 के समय की मध्यमवर्गीय सिनेमा में एक अहम अदाकारा रह चुकी थीं। इस धारावाहिक का मुख्य आधार था एक उच्च मध्यमवर्गीय, उच्च जातीय संयुक्त परिवार जिसके सभी किरदार साधन संपन्न थे और जिनके जीवन की छोटी-मोटी घटनाएँ हास्य का विषय बन जाती थीं।
 
इस साप्ताहिक कार्यक्रम की बारहवीं कड़ी में एक महत्वपूर्ण मुद्दा उठाया गया जिसकी प्रासंगिकता समय और समाज के अंतरों को लांघती है। इस मुद्दे का प्रस्तुतीकरण किस तरह किया गया और इस पर किस प्रकार की टिप्पणी की गई यह अलग बात है पर यह मानना पड़ेगा कि जहाँ समय के साथ भारतीय हास्य धारावाहिक एक ओर घिस पिट कर एक ही ढर्रे पर बनने लगे और दूसरी ओर फूहड़ता के सहारे टीआरपी जुटाने में लग गए, इस तरह का मुद्दा उठाना इस धारावाहिक की एक उपलब्धि ही थी।
 
अगर कुछ वाक्यों में इस कड़ी में उठाए मुद्दे को परिभाषित करना हो तो कहा जा सकता है कि यहाँ एक गृहस्थ स्त्रीसुनीता के गरीबी के विषय पर बेहद यथार्थवादी उपन्यास लिखने की आकांक्षा को कहानी का केन्द्रबिन्दु बनाया गया है। यह आकांक्षा अपनेआप में भी कोई गहराई लिए हुए नहीं है बल्कि सुनीता के साहित्य के लिए मिलने वाले एक राष्ट्रीय पुरस्कार की इच्छा और उससे मिलने वाली ख्याति को अर्जित करने की लालसा के चलते है। अपने परिवार द्वारा यह महसूस कराए जाने पर कि गरीबी पर यथार्थवादी चित्रण लिखने के लिए आवश्यक, गरीबी के यथार्थ का अनुभव उसके पास नहीं है, सुनीता अपने सुविधासंपन्न घर में ही एक झोंपड़ी खड़ी कर लेती है और अपने ही घर में नौकरानी की तरह काम करने लगती है जो अपने आप में पूरी कहानी के हास्य का विषय बन जाती है।
 
कहानी का अंत होता है उसके पति समीर द्वारा एक आम घरों में काम करने वाली बाई के साधारण पति के स्वरूप का भेष रखकर अपनी पत्नी के साथ दुर्व्यवहार करने से और उसे यह एहसास दिलाने से कि सुनीता एक गरीब मेहनतकश गरीब कामवाली बाई के जीवन की सभी विषमताओं को चाहकर भी आत्मसात नहीं कर सकती है और ऐसा जीवन निभाना उसके बस की बात नहीं फिर चाहे वह एक उपन्यास के शोध के लिए ही क्यों ना हो। 
इस कड़ी के सार में एक ऐसा महत्वपूर्ण मुद्दा उठाया गया है जो आज के समय में बेहद प्रासंगिक है। सुनीता के किरदार के माध्यम से साहित्य लेखन और लेखन के बारे में दो महत्वपूर्ण मुद्दे उठाए गए हैंपहला यह कि साहित्य लिखने का उद्देश्य क्या है और दूसरा किसी भी सामाजिक मुद्दे पर लिखने वाले की खुद की सामाजिक स्थिति किस प्रकार उसके लेखन के दृष्टिकोंण को प्रभावित करती है।

सामाजिक यथार्थवाद पर हिन्दी साहित्य में अधिकाँश विषयचयन गरीबी को लेकर ही होता है। यह शायद प्रेमचन्द के, आधुनिक हिन्दी साहित्य के उद्गम पर, बहुत समय तक हावी रहने के कारण हुआ है क्योंकि प्रेमचन्द का अधिकाँश साहित्य गरीबी और मुफलिसी के इर्दगिर्द ही घूमता था। पर जहाँ प्रेमचन्द के साहित्य में जातिभेद, अस्पृश्यता, स्त्री शोषण आदि जैसे विभिन्न विषयों पर भी बात होती थी, उनसे प्रभावित हुए लिखने वाले इन बारीकियों को नहीं अपना सके और यथार्थवाद का अर्थ गरीबी और गरीबों पर लिखने से ही जोड़ दिया। सुनीता के विषय चयन में भी इसी बात पर हास्यास्पद टिप्पणी की गई है।
 
सुनीता के द्वारा पुरस्कार और उससे मिलने वाली ख्याति को साहित्य लिखने का उद्देश्य बनाना साहित्य और कला की ओर एक विशेष सुविधा संपन्न वर्ग के लोगों की गंभीरता की कमी को प्रदर्शित करता है। साहित्य और समाज की अधूरी समझ उनकी सामाजिक यथार्थ के प्रति सीमित सोच का कारण बनती है और यह उनके लेखन में सामाजिक विषयों की बारीकियों की कमी को ज़ाहिर करता है।
 
सुनीता के उपन्यास की कहानी में ही गरीबी के यथार्थ के बारे में उच्च वर्गीय, उच्च जातीय समाज की सीमित सोच की कलई खुलती है। उपन्यास का संदेश है कि एक गरीब आदमी भले ही अपने झोंपड़े में लाखों की चीज़ें एक साथ नहीं ला सकता है पर चाहे तो धीरे धीरे ये सब इकट्ठा ज़रूर कर सकता है जैसे कि टीवी, फ्रिज, एसी, संगेमरमर का बाथरूम आदि। कितनी ही बार उच्च मध्यम वर्गीय, उच्च जातीय परिवारों में हमने ये चर्चाएँ सुनी हैं जिनमें गरीबों की गरीबी का ठीकरा उनकी हीनासमझीऔर“”दूरदर्शिता की कमीजैसे कारणों पर फोड़ा जाता है और खुद की समझ और मेहनत पर अपनी पीठ थपथपाई जाती है बिना यह मानते हुए कि उनकी प्रगति में सबसे बड़ा हाथ उनको जन्म से मिली बेहिसाब सहूलियतों का ही है। इस कड़ी में इस चलन का भरपूर मज़ाक बनाया गया है।
 
इस मज़ाक को तब और गहरा कर दिया जाता है जब सुनीता गरीबी को समझने के लिए अपने ही घर में बाई का स्वरूप धारण कर लेती है और बीच ड्राइंग रूम में अपनी झोंपड़ी लगा लेती है। उसके इस अतिश्योक्तिपूर्ण नाटकीय व्यवहार के माध्यम से उस चलन पर तीक्ष्ण टिप्पणी की गई है जो कई साहित्यकार और लेखक अपनाते हैं जहाँ वह किसी उपेक्षित या हाशिये पर दरकिनार किए गए वर्ग की समस्या पर लिखते हुए उसकी प्रामाणिकता का यह तर्क देते हैं कि क्योंकि उन्होंने इस जीवन को कुछ समय के लिए करीब से देखा है इसलिए वह उस पर सत्यपूर्ण कहानी या वृतान्त लिख सकते हैं। इसे अंग्रेज़ी भाषा में appropriation कहा जाता है, यानि किसी के अनुभवों और अनुभूतियों की चोरी करना या उसे हड़प लेना।
 
सुनीता का नौकरानी के रूप में अपने ही आलीशान घर में झोंपड़ा बना के रहना इस कृत्रिम रचनात्मक ढोंग की ओर इशारा करता है जो आजकल कई कलाकार करते हैं अपनी कृति की प्रमाणिकता को साबित करने के लिए। ऐसे में जब सुनीता का पति समीर एक शराबी गरीब आदमी का भेष धर कर सुनीता के साथ दुर्व्यवहार करता है तब सुनीता को गरीब वर्ग की मेहनतकश स्त्री के जीवन की विषमताओं को समझने के अपने खोखले प्रयास की निर्थकता का बोध होता है।
इस कड़ी के अन्त में समीर के किरदार द्वारा कहा जाता है कि ये ज़रूरी नहीं कि अगर गरीबी पर लिखना हो तो लेखक स्वयं गरीब बन जाए। यह एक महत्वपूर्ण विषय है। प्रामाणिकता के लिए ईमानदारी आवश्यक है ना कि ढोंग। इसके लिए सामाजिक और राजनीतिक विश्लेषण ज़रूरी है, ना कि किसी और के अनुभवों पर अपना कब्ज़ा जमाने की। ऐसा करके आप सिर्फ़ एक और तरह से उपेक्षित समूह का शोषण ही कर सकते हैं।
  
इस कड़ी में क्या कमियाँ थीं इस पर भी ध्यान डाल लेना चाहिए। पहलेपहल तो सुनीता के रूप में एक नासमझ लेखिका को दिखाना जो कि सामाजिक मुद्दों पर बेहद उथली समझ रखती है और अपना उपन्यास लिखने के लिए एक बचकाना तरीका अपनाती है, एक सामाजिक विषय पर कहानी गढ़ने का बेहद पुरुषात्मक तरीका प्रतीत होता है। इस तरह से यह धारणा प्रचलित होने का खतरा है कि समृद्ध वर्ग की सिर्फ महिलाओं को ही हकीकत का कोई इल्म नहीं होता है जबकि असलियत में अपने समृद्ध जीवन की सहूलियतों में डुबे पुरुष भी समाज के शोषण और गरीबी के यथार्थ से उतने ही अनभिज्ञ होते हैं। दूसरा, समीर द्वारा सुनीता के बाई के स्वरूप के पति के रूप में एक शराबी, हिंसक पुरुष का किरदार निभाना कहीं न कहीं एक रूढ़ प्रारूप(stereotype) को प्रचलित करने का काम करता है जो निम्न आय वर्ग के पुरुषों की एक खराब छवि को बढ़ावा देता है फिर चाहे घरेलू हिंसा के किस्से सभी आय वर्गों में क्यों न मिलते हों। और कड़ी के अन्त में एक जटिल मुद्दे को जिस अपरिपक्वता से सुलझा गया है, वह भी निराशाजनक है।
 
हालांकि सरल, हास्यपूर्ण तरीके से इतने क्लिष्ट विषय को उठाने में यह खतरा तो था ही कि इस विषय के साथ पूरा न्याय नहीं किया जा सकता है। पर फिर भी यह कड़ी दिखाती है कि एक समय में हिन्दी धारावाहिक में यह संभावना थी कि समाज और साहित्य के रिश्ते की इतनी गहराई और प्रामाणिकता से छानबीन की जा सकती थी। यदि हिन्दी धारावाहिक इसी दिशा में बढ़ता तो शायद इन विषयों को और परिपक्वता और समझदारी से दिखाया जा सकता था, पर अफसोस हिन्दी धारावहिक इसकी बिल्कुल विपरीत दिशा में बढ़ता गया। शायद मध्यमवर्ग, जो कि टीवी का सबसे बड़ा उपभोक्ता है, की उथली सोच (जिस पर इस कड़ी ने टिप्पणी की थी) के ही कारण आगे इस तरह की टिप्पणियों की संभावनाएँ समाप्त होती चली गईं।

 

 – सुमित

One thought on “'देख भाई देख'- साहित्य, समाज और प्रामाणिकता

  • April 10, 2020 at 7:29 pm
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    बहुत ही सुन्दर विशलेषण। कई पहलुओं पर रोशनी डाली गयी है जिससे यह महसूस होता है कि किस प्रकार हमारे देखते-देखते धारावाहिकों की कथावस्तु की गुणवत्ता का पतन हुआ है। अब तो विशलेषण योग्य कथानक है ही नहीं।

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